(डॉक्टर श्याम मनोहर अग्निहोत्री, वीघापुर)
“योग कर्मस्तु कौशलम्” गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को आदेश दिया है कि तुम कर्म-कुशल योगी बनो। लौकिक और पारलौकिक कार्यों में तुम अपना उचित स्थान प्राप्त करते हुए सफलता प्राप्त करो ओर निरंतर विकास की ओर बढ़ते चलो। एक सच्चे कर्मवीर का यही लक्ष और यही उद्देश्य होना चाहिए।
योग शास्त्र सिखलाता है कि मानव पुरुषार्थ यह है कि जीव को तब तक साधना करनी चाहिए जब तक आत्मा से एक न हो जाए। चूँकि आत्मा ही मनुष्य में ईश्वरीय अंश है इसलिए इस एकता का अंतिम परिणाम “परमेश्वर के साथ एकता” होता। ईश्वरपरायण मनुष्य को आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान विश्वासी मनुष्य को स्वतंत्र, वीर, अमर और आत्म विश्वासी बना देता है। सच्चे अभिमान के प्रकाश में मनुष्य वास्तविक मनुष्यत्व प्राप्त करता है, वह अपने व्यक्तित्व को दृढ़ बना लेता है, उसकी शक्ति को सभी मनुष्य स्वीकार करते हैं, जिनके संपर्क में वह आता रहता है वह भी उसी के सदृश हो जाता है। ऐसी स्थिति में पहुँचा हुआ मनुष्य सच्चा कर्मवीर बन सकता है। सच्चा कर्मवीर संसार में अपने प्रत्येक कर्त्तव्य का दृढ़तापूर्वक पालन करता है वह जीवन के खेल में ही आनन्द मानता है न कि उसके प्रतिफल में। वह खेल को खेलता है अच्छी तरह खेलता है, भले से खेलता है। गीता में भगवान ने इसी प्रकार कर्म करने को बतलाया है सच्चा कर्म योगी बनने के लिए हमें इसी मार्ग का अवलम्बन करना चाहिये।