धर्म का सार

March 1944

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री सत्यदेव राव, अजमेर)

महाभारत में एक प्रसंग है कि धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों सहित भीष्म पितामह के पास धर्म का तत्व जानने के लिए गए। उन्होंने पितामह से पूछा कि भगवन्! धर्म की बहुत उलझी हुई और परस्पर विरोधी विवेचनाएं शास्त्रों में प्राप्त होती हैं। हम लोग संक्षेप में धर्म का तत्व जानना चाहते हैं सो आप कृपा पूर्वक हमें बताइए। भीष्म जी ने कहा--

श्रुयता धर्म सर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।

आत्मनः प्रतिकूला निपरेषाँ न समाचरेत्॥

हे युधिष्ठिर! धर्म का सार सुनो और सुनकर उसे हृदय में धारण करो - “जो अपने को बुरा लगे उसे दूसरों के साथ व्यवहार न करे।”

कैसी सुन्दर उक्ति है। कितना अनमोल उपदेश है। अपने लिए जैसे व्यवहार की हम आशा करते हैं वैसा ही दूसरों से करें, जो बात अपने लिए बुरी समझते हैं उसे दूसरों के साथ न करें यही धर्म का सार है। पुण्य पाप की, धर्म अधर्म की सारी गुत्थियाँ इस छोटे से सूत्र ने सुलझादी हैं। इस कसौटी पर कसने के उपरान्त हर एक कार्य के बारे में यह जाना जा सकता है कि क्या पुण्य है? क्या पाप? क्या धर्म? क्या अधर्म? क्या करना चाहिए? क्या न करना चाहिए?

मनुष्य चाहता है कि दूसरे लोग उसके साथ भलमनसाहत का बर्ताव करें, शिष्टाचार और सभ्यता के साथ पेश आवें, मीठा बोलें, सहायता करें, वचन का पालन करें, यथार्थ बात कहें, निष्कपट रहें, ईमानदारी दिखावें, प्रेम संबंध रखें, न्याय बुद्धि से काम लें। जो व्यक्ति इन शर्तों का पालन करता है वह प्रिय लगता है, उसको अच्छा समझते हैं, धर्मात्मा का यही चिन्ह है। मानव जाति की इन स्वाभाविक आकाँक्षाओं की जो कोई भी पूर्ति करता है वह धर्म परायण है।

मनुष्य चाहता है कि दूसरे लोग उसके साथ दुर्व्यवहार न करें, कुछ वस्तु न चुरावें, मारें न, कडुआ न बोलें, अपमानित न करें, धोखा न दें, निन्दा या चुगली न करें, सतावें न, अन्याय न करें, निष्ठुरता धारण न करें, क्रूरता न दर्शावें, जो व्यक्ति इन्हीं आचरणों को करता है वह बुरा लगता है, उसे घृणा करते हैं और दुष्ट बताते हैं। यही पाप का चिन्ह है। मनुष्य को आमतौर से जो व्यवहार ना पसंद है वे पाप हैं। जो इन पाप कर्मों को करता है वह पापी है।

नाना प्रकार के मत, मतान्तरों, सम्प्रदायों, के उलझन भरे कर्मकाण्डों के जंजाल में भटकते रहने से धर्मतत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। जो धर्म की प्राप्ति करना चाहते हैं, सच्चे अर्थों में धर्मात्मा बनना चाहते हैं इन्हें चाहिए कि अपनी इच्छा, रुचि और आदतों की कड़ी समालोचना करके देखें कि इनमें कितने अंश ऐसे हैं जो दूसरों के उचित अधिकारों से टकराते हैं। अपनी स्वार्थपरता, अनुदारता, संग्रहशीलता और भोगेच्छा को घटाना चाहिए और दया, उदारता, परमार्थ, प्रेम सेवा, सहायता, त्याग, सात्विकी प्रवृत्तियों को बढ़ाना चाहिए। स्वार्थ की मात्रा जितनी घटती जाती है और परमार्थ की मात्रा जितनी बढ़ती जाती है उतना मनुष्य धर्मात्मा, पुण्यात्मा बनता जाता है। इसी मार्ग पर चलता हुआ पुरुष स्वर्ग या मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

संसार के सारे दुखों, क्लेशों, संघर्षों का एक मात्र कारण यह है कि लोग अपने लिए जो बातें चाहते हैं वह दूसरों के लिए व्यवहार नहीं करते। खरीदने के बाँट और रखना चाहते हैं तथा बेचने के और। यह घातक नीति ही अशान्ति की जड़ है। स्वार्थ की निकृष्ट इच्छा से अन्धे होकर जब हम अपने लिए बहुत अच्छा बर्ताव चाहते हैं और दूसरों के साथ बहुत बुरा व्यवहार करते हैं, तो उसका निश्चित परिणाम कलह होता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118