(श्री पं. तुलसीरामजी शर्मा सितारी)
ततोहृष्टमनाँ देवाममन्थुः क्षीरसागरम्।
ततोऽलक्ष्मी समुत्पन्नाकालास्यारक्तलोचना॥ 9॥
(पद्य पु. 4/9)
जब देवता प्रसन्न मन होकर क्षीरसागर मथने लगे तब अलक्ष्मी (दरिद्रता) उत्पन्न हुई जिनका काला मुख और लाल नेत्र थे॥ 9॥
रुक्ष पिंगलकेशाच जरन्तीविभ्रती तनुम्।
साचज्येष्ठाऽब्रवीद् देवान् किंकर्त्तव्यंमयेतिच॥ 10॥
रूखे पिंगलवाल, जरती देह को धारण करे, लक्ष्मी की बड़ी बहन (प्रथम उत्पन्न होने के कारण) देवताओं से बोली मुझको क्या करना चाहिये॥ 10॥
देवास्तथा ब्रुबंस्ताँ च देवीं दुखस्यभाजनम्।
येषाँ नृणाँगृहेदेवी कलहः संप्रवर्तते॥
तत्र स्थानं प्रयच्छामोवसज्येष्ठेशुभान्विता॥ 11॥
तब देवता दुख की पात्र रूप तिनदेवीजी से बोले कि हे ज्येष्ठेदेवी! जिन पुरुषों के घर में लड़ाई रहती है तहाँ पर हम तुम्हें स्थान देते हैं अशुभ युक्त होकर वहाँ निवास करो॥ 11॥
निष्ठुरं वचनं ये न वदन्ति येऽनृतंनराः।
संध्यायाँये हिचाश्नन्ति दुखदातिष्ठतद् गृहे॥12॥
जो पुरुष मिथ्या और निष्ठुर (रूखे) वचन कहते हैं और संध्याकाल में भोजन करते हैं उनके घर में हे दुख देने वाली! तुम रहो॥ 12॥
कपाल केशभस्मा स्थि तुषाँ गाराणि यत्रतु।
स्थानं ज्येष्ठे तत्रतवभविष्यतिन संशयः॥13॥
जहाँ पर ठीकरे, केश, राख, हड्डी, भूसी और अंगार हों अर्थात् मलिनता रहती है। हे ज्येष्ठे! निःसंदेह वह तुम्हारा स्थान होगा। साराँश यह है कि वहाँ दरिद्रता होगी॥ 13॥
अकृत्वा पादयोर्धौतं ये चाश्नन्ति नराधमाः।
तद्गृहे सर्वदातिष्ट दुखदारि द्रयदायिनी ॥14॥
जिस घर में नीच पुरुष बिना पैर धोये भोजन करते हैं उस घर में दुख और दरिद्रता के देने वाली तुम सदैव रहो॥ 14॥
गुरु देवाति थीनाँ च यज्ञदानं विवर्जितम्।
यत्रवेदध्वनिर्नास्ति तत्रतिष्ठ सदाऽशुभे॥ 18॥
हे अशुभे! जहाँ पर गुरु, देवता और अतिथियों का आदर सत्कार न हो, यज्ञदान न हो और वेद-शास्त्र की ध्वनि न हो वहाँ पर सदैव तुम्हारा निवास हो॥ 18॥
दम्पत्योः कलहोयत्र पितदेवार्चनं नवै।
दुरोदररतायत्र तत्रतिष्ठ सर्दाशुभे॥ 19॥
जहाँ स्त्री पुरुषों में लड़ाई रहती हो, पितर और देवताओं का पूजन न हो, जूए में आसक्ति हो। हे अशुभे! तहाँ तुम्हारा निवास हो॥ 19॥
परदाररतायत्र पर दृव्यापहारिणः।
विप्रसज्जन वृद्धानाँ यत्र पूजानविद्यतै॥
तत्रस्थाने सदातिष्ठ पापदारिद्यदायिनी॥ 20॥
जहाँ पराई स्त्रियों में प्रेम, पर दृव्य के हरने वाले हों, ब्राह्मण, सज्जन और वृद्धों की पूजा न होती हो तिस स्थान में हे! पाप और दरिद्रता की देने वाली तुम्हारा निवास हो॥ 20॥
सात्विक सहायतायें
इस मास ज्ञान यज्ञ के लिए निम्न लिखित सहायतायें प्राप्त हुई हैं। इन उदार महानुभावों के लिए अखंड-ज्योति अपनी आन्तरिक कृतज्ञता प्रकट करती है।
4) श्री मानकचन्द न्यादर जी, खरगोन।
3) श्री गोण्डानारायणजी महाराज, देगलूर।
2) श्री हजारीलाल जी, शाहजहाँपुर।
2) श्री सुशीलचन्द गुप्त, शाहाबाद।
2) श्री चन्द्रभानजी गुप्त, शाहाबाद।
2) श्री देवकृष्ण भदर, पिपरिया।
1) पं. केशवलाल शर्मा, मुरार।
1) श्री कालूरामजी यादव पटेल, कसरावद।