आत्म शुद्धि कीजिये।

March 1944

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(श्री. वटेश्वर दयालीजी शास्त्री, भिण्ड)

जब मनुष्य दिन रात यही सोचने लगता है कि मेरी बातों का प्रभाव दूसरों पर पड़े, तो क्या वह ऐसा करने से अपनी मर्यादा के बाहर नहीं जाता है? मनुष्य केवल इतना ही क्यों न सोचें कि मेरा कर्त्तव्य क्या है! और मैं उसका कहाँ तक सच्चाई के साथ पालन कर रहा हूँ। जो सच्चा कर्त्तव्यपरायण है, उसका प्रभाव अपने साथियों पर और दूसरों पर क्यों न पड़ेगा? पर यदि नहीं पड़ता है, क्या यह अपना दोष नहीं हैं? अवश्य, अपने कर्त्तव्यपरायणता में कमी है? अवश्यमेव अपनी तपस्या अधूरी है। और तपस्या क्या है? अप विचार और उच्चार के अनुसार आचार। सोचना चाहिये कि यदि मैं ऐसा क्रियावान् हूँ फिर मेरे बिना कहे ही मेरे साथ कर्त्तव्यपरायण बनने का उद्योग करेंगे। यदि विनोद पूर्ण व्यंग, स्नेह पूर्ण उपालम्भ और मधुर आलोचना से मेरा साथी सजग नहीं होता है और अपने कर्त्तव्य यथावत पालन नहीं करता है तो फिर कठोर वचन उसके लिये बेकार हैं। कठोर वचन कहने की अपेक्षा मैं अपनी आत्मशुद्धि, और आत्म-ताड़ना का उद्योग क्यों न करूं। संसार में जो दोष और बुराई हैं, मेरी ही बुराई का प्रतिबिम्ब मात्र है। मुझे अपनी इस जिम्मेदारी को खूब समझ लेना चाहिये। मेरी आत्म-शुद्धि बढ़ती हो, और दूसरों की सेवा करने की वृत्ति दृढ़ होती हो, तो यह हद दर्जे की नम्र और सचाई है। यदि दूसरों से सेवा लेने की वृत्ति बढ़ती हो, अपने बड़प्पन का भाव तीव्र होता हो, तो यह अवश्य अहंकार और पाखण्ड है।


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