संगति की महिमा

March 1944

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विद्वान बेकन का कथन है कि “मनुष्य कोरे कागज के समान है। वह जिन परिस्थितियों में रहता है, उसी ढांचे में ढल जाता है।” एक सच्चा जैनी अपने धार्मिक विश्वासों की प्रेरणा से जीव दया को अपना धर्म मानता है। किन्तु एक सच्चा मुसलमान, अपने मजहब में अत्यंत निष्ठा रखता हुआ ईश्वर के नाम पर कई पशुओं की कुर्बानी करता है। यदि दोनों के अन्तःकरणों की परीक्षा की जाए तो दोनों ही समान रूप से अपने को धर्मरुढ़ अनुभव करते पाये जायेंगे। जैनी का दृढ़ विश्वास है कि जीव दया करके मैंने उचित कर्त्तव्य किया। इसी प्रकार मुसलमान का भी निश्चित मत है कि उसने पशु वध करके ईश्वरीय आज्ञा का पालन किया।

जीव दया और पशु वध यह दोनों कार्य आपस में एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत हैं फिर भी विचार मित्रता के कारण सच्चे भाव से उन्हें अपनी अपनी दृष्टि से ठीक मानते हैं। योरोपियन लोग मलत्याग के उपरान्त कागज से पोंछ कर शुद्धि कर लेते है उनकी इस प्रथा को हिन्दू लोग बुरी दृष्टि से देखते हैं। एक योरोपियन महिला से इस विषय में एक बार हमारी बहुत बातचीत हुई। उन्होंने हिन्दुओं को एक लोटा जल से मल शुद्धि करने को बहुत बुरा बताया। उनका कहना था कि इस प्रकार विष्ठा का कुछ भाग पानी में मिल कर गुदा स्थान के चारों ओर फैल जाता है और इससे अशुद्धि और भी बढ़ जाती है। यदि जल से शुद्धि करनी हो तो नल के नीचे झुक कर बहुत देर तक शुद्धि करनी चाहिए अन्यथा एक लोटे जल से की हुई शुद्धि तो अशुद्धि को और अधिक बढ़ा देने वाली है। उन महिला की दृष्टि से कागज की शुद्धि उचित थी और जल की शुद्धि घृणित। हिन्दू कागज की शुद्धि को घृणित मानते हैं और योरोपियन जल की शुद्धि को। हम लोग गोबर से घर लीप कर शुद्धि अनुभव करते हैं। किन्तु पाश्चात्य देशवासी मनुष्य की विष्ठा की भाँति पशु की विष्ठा को भी गंदी मानते हैं और गोबर से लीपे हुए स्थान को गंदा एवं घृणित समझते हैं। एक कार्य को एक व्यक्ति उचित समझता है, दूसरा अनुचित।

नंगे बदन रहना हमारे यहाँ त्याग का चिन्ह है किन्तु दूसरे देशवासियों की दृष्टि में वह असभ्यता का चिन्ह है। हिन्दू की दृष्टि में वेद ईश्वरीय संदेश है किन्तु दूसरी जाति के लोग उन्हें एक भजन पूजा की बेढंगी किताब से अधिक कुछ नहीं मानते। विधवा का विवाह हमारे समाज में एक भयंकर बात है पर अन्य जातियों में वह एक बिलकुल साधारण और स्वाभाविक प्रथा है। एक दो नहीं असंख्यों उदाहरण ऐसे मिल सकते हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि परस्पर विरोधी दो बातों को लोग अपने-अपने दृष्टिकोण से बिलकुल सत्य समझते है और निष्कपट मन से अपने विश्वासों को ठीक अनुभव करते हैं।

विचारणीय बात यह है कि परस्पर विरोधी दो बातों में से एक सत्य होनी चाहिए दूसरी असत्य। परन्तु फिर भी यह देखा जाता है कि वे दोनों ही बातें अपने अपने क्षेत्र में सत्य समझी जाती हैं। हिन्दू के लिए वेद ईश्वरीय पुस्तक है, पर मुसलमान के लिए कुरान के अतिरिक्त अल्लाह का कलाम दूसरा नहीं है। वेद और पुराण में काफी मतभेद है, यदि दोनों ईश्वर के कलाम हैं तो परस्पर विरोधी बातें क्यों? यदि इन में से एक ईश्वर की वाणी है तो दूसरा असत्य मार्ग पर मानना पड़ेगा। यदि दोनों ही असत्य हैं तो दोनों को भ्रम में पड़ा हुआ मानना पड़ेगा। इस गड़बड़ी का उचित समाधान कुछ नहीं। सत्य क्या है? यह गुत्थी अभी तक उलझी हुई ही पड़ी है। मनुष्य जिन विचारों और कार्यों को सत्य माने बैठा है उनमें कितना अंश सत्य का है कितना असत्य का, यह अभी निर्णय होना बाकी है। मानव जाति धीरे धीरे आगे बढ़ती जा रही है, एक दिन वह तत्व को खोज ही निकालेगी, ऐसी आशा करनी चाहिए। परन्तु आज यह कहना कठिन है कि जिन बातों को लोग उचित-सत्य-धर्म माने बैठे हैं वह वास्तव में वैसी है या नहीं।

इस गुत्थी का मनोविज्ञान शास्त्र के अनुसार जो विवेचना होती है उसमें विद्वान बेकन के मन की पुष्टि होती है “मनुष्य कोरे कागज के समान है। वह जिन परिस्थितियों के बीच में रहता है, वैसा ही बन जाता है”। एक ही माता पिता से उत्पन्न दो बालकों में से एक हिन्दू को पालन पोषण के लिए दिया जाए और दूसरा अंग्रेज को। तो वे बालक अपने अपने संरक्षकों की भाषा ही बोलेंगे वैसे ही आचार विचारों को अपनायेंगे। अफ्रीका के जंगल में एक भेड़िया मनुष्य के दो बालक पकड़ ले गया, कुछ ऐसा आश्चर्य हुआ कि उन बच्चों को उसने खाया नहीं वरन् पाल लिया। बड़े होने पर यह बच्चे भेड़िये की तरह गुर्राते थे, चार पावों से चलते थे और शिकार मार कर कच्चा माँस खाते थे। इन बालकों को शिकारियों ने पकड़कर वैज्ञानिकों की परीक्षार्थ पेश किया था। इन बातों से जाना है कि मनुष्य सचमुच कोरा कागज है। जिन लोगों के बीच वह रहेगा, उसी प्रकार प्रभाव ग्रहण करेगा और बहुत अंशों में वैसा ही बन जावेगा। उसके विचार और विश्वास भी उसी ढाँचे में ढल जायेंगे।

संक्षेप में यों कहा जा सकता है कि “संगति” के असर से मनुष्य की जीवन यात्रा आरंभ होती है और इसी के प्रभाव से उस में हेर फेर होता है। विचार बदलते हैं, विश्वास बदलते हैं, कार्य बदलते हैं, स्वभाव बदलते हैं, और उद्देश्य बदलते हैं, वायु के थपेड़ों में उड़ता हुआ सूखा पत्ता इधर से उधर उड़ता फिरता है उसी प्रकार संगति और परिस्थितियों के प्रभाव से मनुष्य की शारीरिक और मानसिक क्रिया पद्धति में होता है और होता रहता है। संगति के असर से लोग कुछ बनते हैं और फिर उसी के प्रभाव से कुछ से कुछ बन जाते हैं। आचार्य फ्रायड का मत है कि “मनुष्य गीली मिट्टी के समान है जो प्रभाव के ढांचे में ढलता है और ढाला जाता है”। हम देखते हैं कि असंख्य प्रतिभाशाली, सुतीक्ष्ण, मनोभूमि वाले लोग अपनी शक्ति का उपयोग तुच्छ कार्यों में कर रहे हैं, यदि वे शक्तियाँ किन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों में लगती तो अपना और दूसरों का बहुत कुछ भला कर सकती थीं। प्रभाव और परिस्थितियों ने, संगति और शिक्षा ने, उन्हें जिधर लगा दिया उधर वे लग गईं, और लगी रहेंगी। चाहे वह मार्ग उचित हो या अनुचित।

भारतीय धर्माचार्यों ने मानव प्राणी का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण बड़ी गंभीरता एवं तत्परता से किया था। वे इस सत्य को समझते थे कि मनुष्य सिद्धान्त की दृष्टि से कुछ भी क्यों न हो परन्तु व्यवहारतः वह “परिस्थितियों का गुलाम है”। संगति के प्रभाव से वह कुछ का कुछ बनता है और बन सकता है। इसलिए हर व्यक्ति को समय समय पर ऐसी परिस्थितियों और प्रभावों के संपर्क में आते रहना चाहिए जो ऊंचा उठाने वाली हों उत्तम प्रभाव डालने वाली हों, हिन्दू धर्म में तीर्थ यात्रा का महत्व इसी दृष्टिकोण से स्थापित किया गया है। साधारण कामकाजी लोगों की योग्यता, विद्या, साधना, सच्चरित्रता और तपस्या ऊँचे दर्जे की नहीं होती। यह तो उन्हीं में पाई जाती है जो ब्राह्मण वृत्ति को अपना कर लोक सेवा, ईश्वर आराधना, स्वाध्याय, और साधना में प्रवृत्त रहे हैं। जहाँ ऐसे ब्रह्मर्षि जलवायु की उत्तमता के कारण, एवं ऐतिहासिक महत्व के कारण, अधिक संख्या में रहते हैं वह स्थान तीर्थ कहे जाते हैं। तीर्थ यात्रा में वायु परिवर्तन होता है, ऐतिहासिक स्मृतियों का अनुभव होता है और उन ब्रह्मर्षियों से सत्संग करने का सौभाग्य प्राप्त होता है जिनमें दूसरों पर अच्छा असर डालने की योग्यता का बाहुल्य होता है। तीर्थ यात्रा में पुण्य फल प्राप्त होता है इसका तात्पर्य यही है कि श्रेष्ठ व्यक्तियों की संगति का उत्तम प्रभाव पड़ता है और उस प्रभाव के कारण अपने अन्दर जो सद्गुण उत्पन्न होते हैं उनके फलस्वरूप सुखदायक आनन्दमयी परिस्थितियाँ होती हैं।

आज तीर्थ स्थानों का वातावरण वैसा नहीं रहा है तो भी वह प्राचीन सिद्धान्त आज भी ज्यों का त्यों बना हुआ है स्थूल शरीर स्वस्थ रखने के लिए आहार की आवश्यकता है इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर को, मनोभूमि को, स्वस्थ रखने के लिए सत्संग की आवश्यकता है। स्मरण रखिए मनुष्य कोरे कागज के समान है, गीली मिट्टी के समान है, उस पर संगति का प्रभाव पड़ता है। इसलिए उन्नतिशील, आनन्दमय, सतोगुणी प्रभाव अपने ऊपर ग्रहण करने के लिए, सत्संग का अवसर तलाश करते रहना चाहिए और जब भी मौका प्राप्त हो उससे लाभ उठाना चाहिए।

कथा प्रसिद्ध है कि एक बार विश्वामित्र ने वशिष्ठ को अपनी हजार वर्षों की तपस्या दान दी, बदले में वशिष्ठ ने एक क्षण के सत्संग का फल विश्वामित्र को दिया। विश्वामित्र ने इसे अपना अपमान समझा। उन्होंने पूछा कि मेरे इतने बड़े दान का बदला आपने इतना कम क्यों दिया? वशिष्ठ जी विश्वामित्र को शेष जी के पास फैसला कराने ले गये। शेषजी ने कहा मैं पृथ्वी का बोझ धारण किये हूँ। तुम दोनों अपनी अपनी वस्तु के बल से मेरे इस बोझ को अपने ऊपर ले लो। हजार वर्ष के तपोबल की शक्ति से वशिष्ठ पृथ्वी का बोझ न उठा सके, किन्तु क्षणभर के सत्संग के बल से विश्वामित्र ने पृथ्वी को उठा लिया। तब शेषजी ने फैसला किया कि हजार वर्ष की तपस्या से क्षण भर सत्संग का फल अधिक है।

अच्छे व्यक्तियों की संगति करने के लिए कुछ अन्य कार्य हर्ज करने पड़े, पैसा खर्च करना पड़े तो करना चाहिए क्योंकि यह हानि बीज रूप है जो अन्त में हजार गुनी होकर लौटती है। जो अपने जीवन को उच्च बनाना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि स्वाध्याय के लिए कुछ समय नित्य निकालें, श्रेष्ठ पुरुषों की उत्तम रचनायें जो ऊँचा उठाने वाली हों, नित्य पढ़ें। स्वाध्याय करना घर बैठे सत्संग करना है। इसके अतिरिक्त उत्तम विचारवान, श्रेष्ठ पुरुषों के पास बैठने, उनसे प्रश्न पूछने, उनके आदर्शों और स्वभावों का अनुकरण करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। लोहे को सोना बना देने की शक्ति पारस पत्थर में होती है। और पशु को मनुष्य बना देने की क्षमता सत्संग में पाई जाती है। पारस पत्थर अप्राप्य है पर सत्संग की इच्छा करें तो उसे अपने समीप ही प्राप्त कर सकते हैं।

ध्यान रखना चाहिए कि हमारे आस पास बुरा प्रभाव डालने वाला वातावरण तो नहीं है, यदि हो तो उससे सावधान रहने और बचते रहना चाहिए। स्मरण रखना चाहिए कि जीवन को ऊँचा उठाने की शक्ति सत्संग में है अतएव इसके लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। विद्वान बेकन का कथन ठीक है कि मनुष्य कोरे कागज के समान है। पतन और उन्नति बहुत कर निकटस्थ प्रभाव के ऊपर निर्भर है इसलिए अपने को बुरे भावों से बचाने और अच्छे प्रभावों की छाया में लाने का सदैव प्रयत्न करते रहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118