एक अद्भुत घटना

February 1940

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(ले. श्री संतराम बी.ए.)

मेरा जन्म एक बहुत ही छोटे से गाँव में हुआ है। यह गाँव इतना छोटा है कि उसकी जनसंख्या, बच्चे बूढ़े और स्त्री-पुरुष सब मिला कर, तीन सौ से अधिक न होगी। यह होशियारपुर से ढाई मील पूर्व की ओर और बहुत पुराना है, इसलिए इसका नाम ही पुरानी बस्ती है। इसमें खंडहर ही खंडहर पड़े हैं। किसी समय यह पहाड़ी राजों को रोकने के लिए मुसलमान पठानों की छावनी थी इसके चारों ओर कब्रें ही कब्रें हैं। तीन ओर पहाड़ी नाला बहता है। आज से कोई सत्तर वर्ष पूर्व इसके इर्द गिर्द एक बड़ा वन था। अंग्रेजी सरकार ने इसे कटवा डाला है। अब वहाँ नंदन-वन नाम का एक छोटा सा गाँव बस गया है।

जब मैं छोटा सा था, तो अपने यहाँ के किसानों विशेष कर उनकी स्त्रियों से सुना करता था कि अमुक जामुन के पुराने वृक्ष पर चुड़ैल रहा करती थी, अमुक फकीर ने अपने ‘कलाम’ के जोर से भूत और चुड़ैलों को वशीभूत करके एक कूजे में बन्द कर दिया था; और तीन चुड़ैलें नाले के अमुक स्थान में गड़ी पड़ी हैं ताकि वे गाँव में न आ जायँ। एक आदमी तो मेरे बड़े भाई के पास आकर आँखों देखी बात भी सुनाया करते थे। कहते थे कि कल बृहस्पतिवार था। रात सुनसान थी। मैंने अमुक कब्रिस्तान में भूतों और चुड़ैलों की एक बारात निकलती देखी थी। उसके साथ मशालें थीं; बाजे बज रहे थे; चुड़ैलें नाच रहीं थीं। चुड़ैलों के पैर पीछे की ओर मुड़े हुए थे, स्तन, कंधों पर से पीठ की ओर लटक रहे थे और केश बिखरे हुए थे, इत्यादि। मेरे भाई उनसे कहते थे चौधरी जी, यदि यह अद्भुत बारात आप हमें भी कभी दिखावें, तो हम सच मानें। चौधरी जी अगले ही बृहस्पतिवार को दिखाने का वचन देते थे। परन्तु आज तक वह कभी दिखा नहीं सके। नवी गड़रिये ने अनेक बार मुझे भूतों और चुड़ैलों के आँखों देखे वृत्तांत सुनाये, और रात को दिखाने की प्रतिज्ञा भी की। परन्तु अन्त को वह कह देता था कि आपका इनमें विश्वास नहीं, इसलिये आपको नहीं दिखलाये जा सकते।

मैं जब बच्चा था, तब इन भूत बेतालों की बातें सुनकर बहुत डरा करता था। परन्तु बड़ा होकर जब स्कूल में पढ़ने लगा, तो मेरा वह डर विस्मय और आश्चर्य में बदल गया फिर जब कॉलेज में पदार्थ विज्ञान की शिक्षा पाई, विद्वानों का सत्संग किया तो इस आश्चर्य ने मनोरंजन का रूप धारण कर लिया। गाँव के लोगों से भूतों की बात सुनने में मुझे उपन्यास का सार मजा मिलने लगा। पर मन ही मन मैं उन लोगों के मूढ़ विश्वास पर हँसता था। कारण, सत्यार्थ प्रकाश आदि सद्ग्रन्थों के पाठ और भौतिक विज्ञान की शिक्षा से मुझे यह निश्चय हो गया था कि भूत प्रेत आदि का अस्तित्व ही नहीं है। ये अज्ञानी लोगों के निर्बल मन की कल्पना या सृष्टि मात्र हैं। अनेक बार मुझे अकेले होशियार पुर से घर आना पड़ता था रास्ते में पहाड़ी, नाला और कब्रिस्तान पड़ता था। जब मैं वहाँ से गुजरता था, तो भूत प्रेत आदि को मूढ़ लोगों की कल्पना मात्र समझने पर भी स्वतः मेरे मन में भय सा होने लगता था। पर मेरे मन में यह दृढ़ विश्वास था, और अब भी है कि पहले तो भूत प्रेत आदि कोई अमूर्त प्राणी है ही नहीं, क्योंकि श्री भगवद् गीता के अनुसार दूसरा चोला तैयार होने पर ही आत्मा अपने पहले शरीर को छोड़ती है। किन्तु भूत प्रेत के रूप में घूमने के लिए उसके पास कोई शरीर होनी चाहिए, जिससे दुबारा मर कर उसे दूसरी योनि में जाना पड़ेगा। दूसरे यदि कोई ऐसे प्राणी हों भी तो वे निरपराध मनुष्यों का कुछ अनिष्ट नहीं कर सकते। यदि वे अनिष्ट करना भी चाहें तो भगवती गायत्री के जप का कवच उनके आक्रमण को विफल कर सकता है। इसलिए मैं गायत्री का जप शुरू कर देता था। इससे डर बिलकुल जाता रहता था। उस डर को मैं अपने मन की निर्बलता समझता था। मुझे किसी भूत प्रेत के कभी दर्शन नहीं हुए थे।

ऊपर की सब बातें आगे लिखी जाने वाली आश्चर्य जनक घटना की भूमिका मात्र हैं। इस भूमिका के बिना उस घटना का वास्तविक स्वरूप समझ में नहीं आ सकता। अब वह घटना सुनिये।

पुरानी बस्ती से कोई पौन मील के अन्तर पर, पश्चिम की ओर नाले के पार हमारा एक बड़ा सा बाग है। उसके चारों ओर दूर दूर तक गोचर भूमि है। उसमें सरकंडे और कास के बड़े बड़े असंख्य झुण्ड हैं। बसंत में नई घास उगने लगती है, और वर्षाकाल में यह सारी भूमि एक घना बाग बन जाती है। बाँस के फूलने पर वहाँ का दृश्य बड़ा ही रमणीय हो जाता है। चारों ओर विस्तृत निर्जन मैदान में हवा से उन झुँडों के विकंपित होने पर जो गंभीर मर मर ध्वनि निकलती है, वह अन्तरात्मा के अंतस्थल में पहुँचकर, अन्धकारमयी रजनी में भय और विस्मय दोनों उत्पन्न करती है। बाग के एक कोने पर एक छोटी सी कुटिया है। वहाँ कभी एक साधु रहा करता था। परन्तु जिन दिनों की बात मैं करता हूँ, उन दिनों वहाँ कोई साधु न था। उन दिनों एप्रिल मास था। मेरा भतीजा बीमार था। उसे वह कुटिया बहुत पसंद थी। इसलिए वह दिन रात वहीं रहता था। उसके साथ रात को मैं भी वहीं सोता था।

एक दिन-तिथि मुझे याद नहीं रही-सायंकाल का भोजन गाँव में कर के मैं रोगी के लिए एक लोटे में दूध लेकर कुटी को चला। उस समय आकाश में काली घटाएं छाई हुई थीं। हवा बड़े जोरों से चल रही थी। कृष्ण पक्ष की काली रात मेघों के कारण और भी काली हो रही थी। मैं दूध लेकर गाँव से बाहर हुआ ही था कि बूँदा बाँदी होने लगी। वायु की प्रचंडता भी बढ़ने लगी। घने अंधकार में हाथ मारा न सूझता था, रास्ता दिखाई न देता था। उस हवा के थपेड़े और भी गजब ढ़ा रहे थे। मैं पथ भ्रष्ट होकर एक स्थान पर ठहर गया परन्तु बूँदा बाँदी में ठहरना भी कुछ सुख दायक न था। मैं सोच रहा था कि क्या करूं? आगे चलूँ या पीछे लौट जाऊँ ? इतने में कुछ दूर पर मुझे आग की लपट दिख पड़ी। कुछ ही देर में उस आग की शिखाएं बढ़ कर वृक्ष के बराबर ऊँची हो गईं। वे वायु के भँवर के सदृश चक्राकार घूम रही थीं। मैं उस ज्योर्तिमय भंवर की ओर चला। उस समय मेरे मन में नाना प्रकार के विचार उठ रहे थे। बुद्धि भूत प्रेत के अस्तित्व को मानने के लिए तैयार न थी। परन्तु कब्रिस्तान समीप था, इसलिए बचपन के संस्कार जाग्रत् होकर ग्राम वासियों की बातों को सत्य मानने के लिए विवश कर दिये। यह भी सुन रखा था कि दूध लेकर बेतालों की भूमि में जाना अच्छा नहीं होता। मेरे पास इस समय दूध भी था। अंत को मैं गायत्री का कवच धारण कर बेधड़क हो, इस उद्देश्य से उस अद्भुत ज्योति की ओर बढ़ा कि आज भूतों और चुड़ैलों की सचाई की परीक्षा कर के छोड़ूंगा। भाग कर अब प्राण बचाना कठिन है। परन्तु ज्यों ही मैं उस ज्योति स्वरूप के निकट पहुँचा, वह घूमता-घूमता आगे चल दिया। मैंने भी उसका पीछा किया। अब की जब मैं उसमें प्रवेश करने ही को था कि वह बिलकुल गायब हो गया। कुछ देर तक मैं चकित स्तंभित खड़ा रहा। मुझे अब तक यह भी न मालूम होता था कि मैं इस समय कहाँ हूँ। सहसा कुछ दूर पर वही ज्योति फिर प्रकट हुई। मैं फिर उसके पास जाने का प्रयत्न करने लगा। मुझे ऐसा दिखाई पड़ा कि पृथ्वी में से धधक-धधक कर आग की शिखायें निकल रही हैं। पर ज्यों−ही मैं उनके पास पहुँचा, वह ज्योतिर्मय भंवर फिर आगे चल दिया। कुछ दूर तक मैंने उसका अनुगमन किया। परन्तु वह फिर अंतर्ध्यान हो गया। और दुबारा देख न पड़ा।

अब मैं अपने बाग में जाने का प्रयत्न करने लगा। मगर उस तमोराशि में कुछ भी न सूझता था। अंत को, बड़ी कठिनाई से एक बाग में एक दीपक टिमटिमाता दिखाई दिया मैं उसे ही लक्ष्य कर के चल पड़ा। वहाँ पहुँचने पर जान पड़ा कि मैं अपने बाग से बहुत दूर आगे निकल आया हूँ। माली की सहायता से लौट कर मैं अपने बाग में पहुँचा और कुटी में जाकर रोगी को दूध पिलाया।

वह ज्योति क्या थी, इसका मैं अभी तक कुछ भी निश्चय नहीं कर सका। इंग्लैंड में ‘बुकमेन’ नाम की एक मासिक पत्रिका निकलती है। सन् 1923 के क्रिसमस वाले विशेषाँक में बेतालों परियों और स्वप्नों के विषय में बहुत से विचारकों की सम्पत्तियों का संग्रह प्रकाशित हुआ है। विज्ञानाचार्य सर ऑल्विवर लॉज ने भूत बेतालों के विषय में जो सम्मति लिखी है, उसी को मैं यहाँ उद्धृत कर के लेख समाप्त करता हूँ। पाठकों को उनकी सम्मति पढ़ कर उपर्युक्त घटना का विवेचन करने में सुभीता होगा---

आचार्य लॉज लिखते हैं--

‘भूतों की कहानियों का गढ़ना परिकथा (द्धद्बष्ह्लद्बशठ्ठ) का एक अपेक्षा कृत सुकर रूप है। जब तक ऐसी बातों के लिए कोई आधार नहीं प्रतीत हुआ था, तब तक परिकथा का यह प्रकार निरुपद्रव और संभवतः कौतुकमय था। परन्तु अब हमें ऐसी अनेक अद्भुत घटनाओं के घटित होने का ज्ञान है, जिनका कोई समाधान नहीं हो सकता। उनके अन्वेषण और सचाई को छान कर भूल से अलग करने के लिए भारी प्रयत्न किया जा रहा है। इसलिए काल्पनिक क्षोभ कारी घटनाओं के गढ़ने की अब आवश्यकता नहीं है। इससे जो लोग साक्षी के विषय में शंका शील नहीं हैं उनके गड़बड़ में पड़ जाने का डर है। “

“जिस बात में वस्तुतः जनता की रुचि है, वह लोकोत्तर अनुभवों में अन्तर्निहित सत्य की मात्रा और उसमें लिपटे हुए अर्थ हैं। निर्दोष परिणामों पर पहुँचने के लिए प्रयत्न निरंतर पक्षपात रहित अध्ययन का प्रयोजन है, कल्पनात्मक वृत्तान्तों को गढ़ना इस काम के लिए निष्फल है। इसकी जनता को वास्तव में आवश्यकता नहीं।”

“सत्य घटनाओं के पूर्ण सूत्र निकालने के लिए समय अभी पूरी तरह से परिपक्व नहीं हुआ। परन्तु जब वह समय आवेगा, तो मुझे विश्वास है कि सचाई परिकथा से अधिक अद्भुत मालूम होगी, और कल्पना कदाचित, बाह्य रूप से ही नहीं बल्कि गंभीरता पूर्वक भी सत्यता से नीचे गिर पड़ेगी।

- माधुरी से


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