बालकों पर नजर का असर

February 1940

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(ले. श्री. गंगा दत्त शास्त्री, जामनगर)

बच्चों को नजर लगने के बारे में जितना अधिक और गहरा अन्वेषण किया जाता है, उतना ही सत्य अधिक स्पष्ट होता जाता है। हम नहीं चाहते है कि हँसते खेलते बच्चों को नजर लगने के भय से घरों में छिपा कर रखा जाय और उन्हें लोगों के सामने अपनी अमृतमयी तोतली वाणी बोलने से रोका जाय। बच्चे जीते जागते बहुमूल्य खिलौने हैं जिनके साथ खेलने की सब कोई इच्छा करते हैं। फिर इस स्वर्गीय सम्मेलन में यह खाई उपस्थित करना किसी प्रकार उचित न होगा। यदि इस भय से मनुष्य के सात्विक आनन्द को रोका जाय तो यह परमात्मा की पवित्र सृष्टि में अंगारे बोना होगा। परन्तु अपने मनोरंजन के लिए बच्चों की हत्या कर डालना भी न्याय संगत न ठहराया जायेगा।

इसमें चौकने की, बड़बड़ाने की या हमें भ्रम प्रचारक कहने की जरूरत नहीं है। कड़ुई सच्चाई की ओर से आँख बन्द कर लेना ठीक नहीं। फूल में कांटे हर जगह हैं। सुगंधि के लालच में फूलों के कांटे और विषैले जन्तुओं से बेखबर न रहना चाहिये। भोजन कितना आनन्द दायक है, पर हानि कारक चीजें खतरा भी उपस्थित करती हैं, मैथुन, धन संचय, ऐश आराम, इन्द्रियों के भाग विलास कितने मधुर होते हैं उनकी उपलब्धि में ही हम लोग प्रायः सारा जीवन लगा देते हैं परन्तु क्या उनके खते कम हैं। हर सावधानी के साथ किसी आनन्द में लिप्त हुए तो तक्षक फन मारे बिना नहीं रह सकता।

खतरा इस कड़ुई सच्चाई को प्रकट करने में नहीं वरन छिपाये रहने में है। यदि वास्तविक बात सर्व साधारण पर प्रकट हो जाय और उससे होने वाले हानि लाभ को लोग समझ जाय तो खतरा बहुत कम हो सकता है। इस सम्बन्ध में यह एक गुप्त बात ध्यान रखने की हैै कि साधारण रीति से बच्चों के साथ हँसते खेलते रहिये कुछ हर्ज न होगा। नजर उन्हें तभी लगेगी जब आप हसरत भरी निगाह से देखेंगे। इस प्रकार की दृष्टि के अन्तर्गत ऐसी भावनाऐं होती है कि ‘‘काश यह बच्चा हमें मिला होता। मैं इसे पाकर कितना प्रसन्न होऊँगा। इसकी सुन्दरता कितनी मनो मुग्धकारी है। भगवान ने ऐसा बच्चा मुझे नहीं दिया। ऐसा बच्चा किसी प्रकार मुझे मिल जाय।’’ यह बातें आदमी जबान से नहीं कहता और जान बूझकर या सोचता भी नहीं, पर उसके मन में भीतर ही भीतर ऐसी गुप्त इच्छा उठती है। कभी कभी तो यह इच्छा इतनी सूक्ष्म होती है कि सोचने वाला यह समझ भी नहीं सकता कि मैंने ऐसी भावना की थी। इस ललचाई नजर में एक ऐसा आकर्षण होता है कि बच्चे की बिजली खिंच जाती है और वह इस धक्के को बर्दास्त न कर सका तो बीमार हो जाता है। अजगर अपनी दृष्टि में ऐसा ही आकर्षण करके पक्षियों को अपनी ओर खींच लेता है और उन्हें खा जाता है। भेड़िये की दृष्टि से भेड़, और बिल्ली की दृष्टि से कबूतर इतने अशक्त हो जाते हैं कि वे भाग तक नहीं सकते। यह आकर्षण शक्ति उनकी अधिक तीव्र होती है जिनके मन में वर्षों से बच्चे प्राप्त करने की लालसा लगी होती है। चिरकालीन लालसा धीरे धीरे अपना पोषण करती रहती है और कुछ दिनों बाद बहुत बलवान हो जाती है। ऐसे लोगों का झटका बच्चों को लात लगने से भी गहरा लगता है। साधु सन्यासी या जिन्हें बच्चों को कोई चाह नहीं होती उनकी नजर नहीं लगती। बहुत से लोग अपने कई- कई बच्चे होने पर भी सन्तुष्ट नहीं होते और दूसरों के सुन्दर बच्चों को देखकर मन में ललचाते रहते हैं उनकी भी नजर लग सकती है।

बच्चों का अनिष्ट न चाहने वालों को उन्हें खिलाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनके साथ सात्विक रीति से हँसा खेला जाय। विशेष ममता न जोड़ी जाय। खिलाते समय तो खस तौर से यह ध्यान रखना चाहिए कि उनमें ममता के आकर्षक विचार न रखे जाय। ईश्वर का निर्विकार पुत्र, प्रकृति का सुन्दर पुष्प, कर्तव्य का स्मरण दिलाने वाला सुनहरा चित्र एवं जीवित खिलौना ही उन्हें समझना चाहिए। उन्हें बार बार छाती से लगाने की, चूमने की, मेरा मुन्ना, मेरा प्राण, मेरा जीवन सहारा आदि कहने की हरकतें न करनी चाहिए। यह खतरनाक आदतें है।

बच्चों को साफ सुथरा तो रखा जाय पर ऐसे तड़क भड़क के कपड़े और जेवर न पहिनाये जाय जिससे रास्ता चलते लोगों का ध्यान उनकी ओर खिंचे। जब बच्चे बढ़ने लगते हैं तो बड़ों के कामों की और बातों की नकल करना सीखते हैं। बच्चों की यह नकल बहुत प्यारी लगती है और संरक्षक उन बातों को बाहर के लोगों के सामने कहते हैं, यह भी कोई लाभप्रद बात नहीं है। बच्चे ने कोई गीत याद कर लिया है या थोड़ा नाचना सीख लिया है किन्तु वह दूसरे के सामने उसे दिखाने में झिझकता है तो उससे यह जिद न करनी चाहिये कि वह दूसरे लोगों को दिखावे ही। इससे बच्चे के मन पर एक बोझ पड़ता है और उसके स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है।

सुरक्षा के कुछ अन्य नियम भी है। आकाश की बिजली जब जोरों से कड़कती है तो शरीर की बिजली का भी ह्रास होता है। उस समय मातायें बालकों को घरों में ले जाती है। मेलों में जहाँ भारी भीड़ रहती है मुँडन संस्कार से पूर्व नहीं ले जाती। एक दो महीने का आयु का होने तक बालकों को सब लोगों के सामने नहीं लाया जाता। हाथ- पांव में चाँदी आदि धातुओं के कड़े पहिनाये जाते हैं। यह बाह्य विद्युत से रक्षा करने के उपाय हैं। गर्भ काल के नौ मास पूरे होने से पूर्व ही जिन बच्चों का जन्म हो जाता है उनकी और भी अधिक सुरक्षा करनी पड़ती है, क्योंकि गर्भ के सातवें, आठवें मास में बच्चे के अंग तो पूरे बन जाते है पर उसमें विद्युत का उचित मात्रा में समावेश नहीं हो पाता। सातवे मास में इतनी कम बिजली होती है कि उस पर कोई अधिक आघात नहीं पहुँचता इसलिए सातवें मास में पैंदा हुए बच्चे अक्सर जीते हैं। ऐसे बच्चे माता की बिजली से अपना काम चलाते हैं किन्तु आठ मास के बच्चे में बहुत कुछ अपनी बिजली होती है। इसलिए बाहरी विद्युत के धक्के उसे झंझोड़ डालते हैं और वह बेचारा अक्सर इस दुनियाँ से कूँच कर जाता है। माताऐं इन अधूरे बच्चों को बाहर के लोगों की दृष्टि से बचाती हैं। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि माता पिता की नजर नहीं लगती। क्योंकि उन्हीं की शक्ति से तो वह उत्पन्न हुआ है वह एक प्रकार से माता पिता के रक्त माँस का ही तो टुकड़ा है। जिस प्रकार अपनी बढ़ी हुई शक्ति अपने शरीर को हानि नहीं वरन् लाभ पहुँचाती है उसी प्रकार माता पिता की बिजली भी बच्चों को हानि नहीं पहुँचा सकती। हर हालत में एक बात ध्यान रखना चाहिये कि जब तक बच्चा एक वर्ष का न हो जाय तब तक बाहर के आदमियों के हाथ में उसे न देना चाहिए और किसी को उसे चूमने न देना चाहिए।


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