अहिंसा

February 1940

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ले. महात्मा गाँधी

सत्य का, अहिंसा का मार्ग सीधा है, संकड़ा भी है। तलवार की धार पर चलने के समान है। नट लोग जिस रस्सी पर एक निगाह रख कर चल सकते हैं, सत्य और अहिंसा की रस्सी उससे भी पतली है। जरा भी असावधानी हुई कि नीचे गिरे। प्रति पल साधना करने से ही उसके दर्शन हो सकते हैं।लेकिन सत्य के संपूर्ण दर्शन तो देह द्वारा हो नहीं सकते असम्भव हैं। उसकी तो केवल कल्पना ही की जा सकती है, क्षण भंगुर देह द्वारा शाश्वत धर्म का साक्षात्कार होना संभव नहीं। इसलिए आखिर श्रद्धा का उपयोग तो करना ही होता है।

इसी से जिज्ञासु को अहिंसा मिली। मेरे रास्ते में जो मुसीबतें आवें, उन्हें मैं सहूँ या उनके लिए जिनका नाश करना पड़े उनका नाश करता जाऊँ और अपना रास्ता तय करू? जिज्ञासु के सामने यह सवाल खड़ा हुआ। उसने देखा कि अगर नाश करता चलता है तो वह बाहर नहीं पर अन्तर में हैं, इसलिए जैसे- जैसे नाश करता जाता है वैसे- वैसे पिछड़ता जाता है। सत्य से दूर हटता जाता है।

चोर हमें सताये हैं। उनसे बचने के लिए हम उन्हें मारते हैं। उस वक्त भाग गये पर दूसरी जगह जाकर छापा मारा। यह दूसरी जगह भी हमारी है, यों हम एक अंधेरी गली से जाकर टकराये। चोरों का उपद्रव बढ़ता गया। क्योंकि उन्होंने तो चोरी को कर्तव्य माना है। हम देख चुके है कि इससे अच्छा यह है कि चोर का उपद्रव सह लिया जाय। ऐसा करने से चोर में समझ आवेगी। इतना सहन करने से हम देखेंगे कि चोर हमसे जुदा नहीं है, हमारे मन तो सब हमारे सगे हैं, रिश्तेदार हैं, मित्र हैं। उन्हें सजा नहीं की जा सकती। लेकिन अकेला उपद्रव सहते जाना भी बस नहीं होगा, इससे कायरता पैदा हो सकती है। इससे हमने अपना एक दूसरा विशेष धर्म समझा। चोर यदि हमारे भाई बन्द हैं तो हमें उनमें वैसी भावना पैदा करनी चाहिए। अर्थात उन्हें अपनाने के लिए उपाय सोचने की तकलीफ उठानी चाहिए। यह अहिंसा का मार्ग है। इससे उत्तरोत्तर दुख ही उठाना पड़ता है। अखण्ड धैर्य धारण करना सीखना पड़ता है। और यदि ऐसा हुआ तो आखिर चोर साहूकार बनता है, हमें सत्य के अधिक स्पष्ट दर्शन होते हैं। इस तरह हम जगत को मित्र बनाना सीखते हैं। ईश्वर की, सत्य की महिमा अधिकाधिक जान पड़ती है। संकट सहते हुए भी शान्ति और सुख की वृद्धि होती है। हमारा साहस हिम्मत बढ़ती है। हम शाश्वत अशाश्वत के भेद को अधिक समझने लगते हैं। कर्तव्य अकर्तव्य का विचार करना सीखते हैं। अभिमान दूर होता है। नम्रता बढ़ती है। अपरिग्रह सहज ही कम होता है और देह के अन्दर भरा हुआ मैल रोज कम होता जाता है।

आज हम जिस स्थूल वस्तु को देखते हैं वही यह अहिंसा नही है। किसी को कभी न मारना तो है ही, कुविचार मात्र हिंसा है। उतावलापन, जल्दीपन हिंसा है। किसी का बुरा चाहना हिंसा है। जिसकी दुनियाँ को जरूरत है उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है। लेकिन यों तो हम जो खाते हैं उसकी भी दुनियाँ को जरूरत है। जहाँ खड़े हैं वहाँ सैकड़ों सूक्ष्म जीव पड़े होते हैं, वे घबराते हैं। वह जगह उनकी है। तो क्या आत्म हत्या कर लें? यह भी ठीक नहीं। विचार में देह की सब तरह की लाग- लपट को छोड़ने से आखिर देह हमें छोड़ देगी। यह अमूर्छित स्वरूप ही सत्य नारायण है, इस प्रकार के दर्शन अधीर अधीर होने से नहीं हो सकते। देह हमाराी नहीं है, यों समझ कर हमें मिली हुई थाती धरोहर के रूप में हम उसका उपयोग कर सकें सो करके अपना रास्ता तय करते जाय।

मुझे लिखना तो था सरल पर लिख गया कठिन। तो भी जिसने अहिंसा का थोड़ा भी विचार किया होगा उसे यह समझने में मुश्किल न आनी चाहिए।

इतना सब समझ ले कि अहिंसा के बिना सत्य की खोज असम्भव है। अहिंसा और सत्य इतने ही ओत- प्रोत हैं, जितनी सिक्के के दोनों बाजू या चिकनी चकरी के दोनों पहलु, उनमें कौन उलटा है और कौन सीधा है। तो भी अहिंसा को हम साधन मानें, सत्य को साध्य। साधन हमारे हाथ की बात है इसी से अहिंसा परम धर्म कही गई और सत्य परमेश्वर हुआ। साधना की फिक्र करते रहेंगे तो साध्य के दर्शन किसी न किसी दिन तो कर ही लेंगे। इतना निश्चय किया कि बेड़ा पार हुआ। हमारे मार्ग में चाहे जो संकट आवें, बाह्य दृष्टि से देखने में हमारी चाहे जितनी हार होती दिखाई पड़े तथापि विश्वास को न डिगाते हुए हम एक ही मन्त्र जपे, जो सत्य है वही परमेश्वर है, इसके साक्षात्कार का एक ही मार्ग, एक ही साधन, अहिंसा है, उसे कभी न छोड़ूँगा। जिस सत्य रूप परमेश्वर के नाम यह प्रतिज्ञा की है, उसका पालन करने का वह बल दे।

सप्त महाव्रत से


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