भगवत् (kavita)

February 1940

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ले॰ श्री भगवत्स्वरुप जैन (भगवत्)

दौर्बल्य निशा अब दूर हटो,
जागा है मन में बल विहान।
होने अब लगा दृष्टि गत है,
जगमग भविष्य का भासमान।।१।।

आओ, निशंक होकर खेलो,
अभिमन्युवीर के रण कौशल।
बतला मैं सकूँ विश्व भर को,
किस को कहते हैं पौरुष बल।।
है मातृभूमि पर आत्म त्याग,
कर देगा कितना सुलभ कठिन?
यह शुभार्दश, जो हो न सके,
दुनियाँ की आँखों से ओझल।।२।।

घुल मिल जाओ तुम प्राणों में,
ऐ धर्मराज के अटल सत्य।
कर सकूँ सफल नर काया का,
पालन कर आवश्यक सुकृत्य।।
विश्वोपकार में लगे हृदय,
हो लघुता का मन से विनाश-
स्थापित जो हो सके भव्य,
निष्कपट प्रेम का आधिपत्य।।३।।


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