चंचल मन और उसका संयम

February 1940

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(ले. ठा. रामसिंह जी चौहान, आँवलखेड़ा)

भगवान शंकराचार्य कहते हैं- जितं जगत् केन, मनोहि येन। अर्थात् मन को किसने जीता? उत्तर- जिसने मन को जीता। मन को जीतने का इतना महत्त्व इसलिये दिया गया हैकि बिना इसके हमारे दैनिक जीवन के छोटे मोटे काम भी पूरे नहीं हो सकते। फिर अध्यात्म पथ पर चलना तो हो ही कैसे सकता है। शास्त्रों ने एक स्वर से कहा है- असंयतात्मना योगो दुष्प्राप्यइति मे मतिः। मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः। येागश्चित्त वृत्ति निरोधः ।। सबका तात्पर्य एक ही है- मन का संयम किये बिना, चित्त वृत्तियाँ रोके बिना, विचारों को एक स्थान पर केन्द्रित किये बिना, कुछ नहीं हो सकता। मन की आज्ञानुसार शरीर काम करता है। यदि मन क्षण में यहाँ, क्षण में वहाँ भटकता फिरे और तरह तरह की इच्छाऐं करता रहे तो शारीरिक शक्तियों को भी क्षण- क्षण में अपना व्यापार बदलना पड़ेगा। जो घोड़ा पचास कदम पूर्व को और साठ कदम पश्चिम को चले, बीस छलाँग दक्खिन को मारे और पन्द्रह कदम उत्तर को लौट पड़े, वह दिन भर में कितनी दूर चल लेगा? निश्चय ही वह बेकार अपनी शक्ति को गवाँता रहेगा और किसी उत्तम स्थान पर पहुँचना तो दूर, सम्भव है पहली जगह में भी न पहुँचे। यही बात निरुद्देश्य और अस्थिर मन की है। मन की उपमा उन विषों से दी जा सकती है जो अशुद्ध और मलीन हो तो प्राणघात कर सकते हैं किन्तु शास्त्रीय विधि से शोधन कर देने पर रसायन बन कर अमृत तुल्य गुणकारी सिद्ध होते हैं।

गीता में कहा है आत्मैव आत्मनों मित्रः आत्मच रिपुरात्मनः। आत्मा ही आत्मा मित्र और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है। बाहरी शत्रु हजार प्रयत्न करने पर भी इतनी हानि नहीं पहुँचा सकते, जितना छुट्टल मन बात की बात में पहुँचाता है। पेट में भूख नहीं है पर मन महाशय ललचाये कि चलों मिठाई या चाट उड़ावें। दुकान पर पहुँचे और अनाप शनाप पेट में ठूँसा, थोड़ी ही देर में पेट में दर्द होने लगा, बीमार पड़ गये, दस्त चलने लगे। चिकित्सा में काफी धन खर्च करना पड़ा, जितने दिन चारपाई पर पड़े रहे उतने दिन की आमदनी मारी गई, स्वयं कष्ट उठाया, घरवाले परेशान हुए और इस भागदौड़ में एक दो बने बनाये काम बिगड़ गये। हिसाब लगाने पर मालूम पड़ेगा कि मन ने जरा सा फुसला कर कितनी हानि पहुँचाई। इतनी हानि बाहरी शत्रु आसानी से नहीं पहुँचा सकते थे। मन ललचाता है और हम व्यभिचार, चोरी, जुआ की ओर झुक जाते हैं। पैसा पास नहीं हैं, पर चमकीला ठाट- बाट बनाने, सिनेमा सरकस देखते, चुरट पीने की मन में इच्छायें उठती हैं, शरीर इन्द्रियाँ और बुद्धि उसके साधन जुटाने के लिए पिल पड़ती हैं, पैसा प्राप्त किया जाता है। वह किस प्रकार प्राप्त किया? इस कहानी के पीछे बड़ी- बड़ी वीभत्स कथायें छिपी होती हैं। आये दिन हम अखबारों में पढ़ते हैं अमुक स्थान पर एक छोटे बालक का जेवर के लिए गला घोंट कर किसी ने कुए में पटक दिया, अमुक स्थान पर डाकुओं ने छिपा हुआ धन पाने कि लिए स्त्री बच्चों की भी हत्या कर डाली, अमुक रास्तागीर कत्ल किया हुआ पाया गया उसका माल आसबाब गायब था, अमुक व्यक्ति का धन हड़पने के लिए उसके भाई ने विष खिला दिया यह निर्मम घटनायें हैं। चोरी आदि छोटे- छोटे ऐसे वाकयात हर जगह प्रतिदिन होते हैं जिस में एक गरीब अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे गवाँ कर पेट पकड़कर बैठ रहा है और बदमाश जरा सी देर में उसका सब कुछ उड़ा ले गये। अब तो सभ्यता और विद्या का मुलम्मा चढ़ी हुई ठगी सरेआम बाजार में उपस्थित होती है और सोना बता कर बिजनेस के नाम पर बेची जाती है। यह पैसे के लोभ की बात हुई। अब दूसरी तरफ आइए, काम वासना के लिए मन महाशय की इच्छा हुई। यदि विवाहित हैं तो मर्यादा को तोड़ा और अविवाहित है तो अप्राकृतिक मैथुन, एवं व्यभिचार की ओर चल पड़े। स्त्री क्रय- विक्रय, वेश्या वृत्ति, अपहरण, बलात्कार, भ्रूणहत्या, कत्ल, आत्महत्या आदि के जो दर्दनाक समाचार प्रतिदिन सामने आते हैं वे बताते हैं कि मन की अनुुचित कामेच्छा जन समाज में एक मौन करुण क्रन्दन उत्पन्न किये हुये है। किसी औषधालय में जा बैठिये और गिनते रहिये कि किस रोग के कितने रोगी आते हैं। आपको पता चलेगा कि उनमें आधी से अधिक संख्या प्रमेह, स्वप्रदोष, नपुंसकता, सुजाक, आतिशक, प्रदर आदि रोगियों की है। हमारे अशिक्षित देश में साहस और ज्ञान की कमी के कारण जो असंख्य लोग अपने इस प्रकार के रोगों को छिपाए पड़े रहते हैं उनकी ओर भी यदि दृष्टिपात किया जाय तो देश का खोखला स्वास्थ्य, मरघट की सी भयंकरता लेकर सामने आ खड़ा होता है।

इन पंक्तियों में काम वासना, रस और लोभ जन्य अहित पर कुछ प्रकाश डाला गया है। दस इन्द्रियों और अनेक वासनाओं में भटक कर मन हमारी जो जो दुर्गतियाँ करता हैं उन पर कुछ क्षण गंभीरता पूर्वक विचार करते ही यह निश्चय हो जाता है कि असंयत मन हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है। वह शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, पारलौकिक सब प्रकार की हानियाँ पहुँचाता है और मनुष्य को पशु बना देता है। दीर्घ जीवन छीन कर अल्पायु, स्वास्थ्य और सौन्दर्य को छीन कर रोग, आनन्द छीन कर दुख एवं इंसानियत छीनकर हैवानियत वह हमें दे देता है। जेल खाने, पागलखाने, कोढ़ीखाने, सफाखाने में जाकर वहाँ बँधे हुए मनुष्यों, ईश्वर के अमर पुत्रों को देखिये, उनके पिछले जीवनों, इतिहासों और वहाँ तक पहुँचने के कारणों का अध्ययन कीजिए आपकी आँखों में से आँसू छलक पड़ेंगे। ईश्वर के अंश, सच्चिदानन्द स्वरूप मनुष्य को इस नरक में जलाने के लिए किसने झोंक दिया है? प्रतिध्वनि कहेगी- असंयमी मन ने।

यदि मन असंयमी न हो, बहुत उछल कूद न करे किन्तु संयमी भी न हो अर्थात बीच की दशा में हो तो वह अधिक हानि तो नहीं करता पर बेकार सी चीज, भार स्वरूप हो जाता है। यह अमूल्य खजाना एक प्रकार से निराशा से घिरे हूए, अनुत्साही समाज के लिये अनुपयोगी और बोझा ही सिद्ध हो सकते हैं। ऐसे मन को लेकर कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। विद्योपार्जन, धन संचय, धर्म संग्रह, आत्मिक विकाश, महत्वपूर्ण कोई काम उससे नहीं बन पड़ता। ऐसा मन उस फटे पुराने ढोल की तरह होता है जो बहुत पीटने पर कुछ बजता है और छोड़ते ही शान्त हो जाता है। इसके विपरीत संयमी मन उस झाड़ी की भाँति है जो एक बार चाबी देने पर बहुत समय तक ठीक गति से चलती रहती है। आलसी मन वाले की सब प्रकार की उन्नति रूक जाती है। दुनियाँ के साधन अपने आप किसी के पास नहीं आते वरन् वे तलाश करने पड़ते हैं। कुएँ में से निकल कर पानी की धार हमारे मुँह में नहीं घुस जाती वरन् हमें उसे परिश्रम पूर्वक निकालना पड़ता है और हाथ तथा मुँह को कष्ट देकर पीना पड़ता है। संसार में सब प्रकार की सफलता, आनन्द और ऐश्वर्य के पहाड़ खड़े हुये हैं यदि उन तक जाने का कष्ट गवारा नहीं करना चाहते तो विश्वास रखिये वे भी आपकी खिदमत में दौड़कर हाजिर नहीं होंगे। जिन खोजा तिन पाइयों आपका मन उत्साही, परिश्रमी और संयमी नहीं है तो दीप मलूका के अजगर और पक्षी की तरह बैठे रहेंगे। दाता राम कुछ भी भीख डाल दे तो पेट भर लीजिए अन्यथा भाग्य को कोसते रहिए।

संयमी मन मनुष्य की अमूल्य शक्ति है। वह कुबेर का खजाना, पारस पत्थर और कल्पवृक्ष है। जो चाहिए इसके द्वारा आपको मिल जायेगा। पिछले अंक में यह बता चुका हूँ कि मनुष्य अनन्त शक्तियों का भण्डार है। उन शक्तियों का यदि एकीकरण न किया जाय तो वे बिखरी पड़ी रहेंगी और किसी का कुछ हित न हो सकेगा। एकाग्रता से ही वह दिव्यशक्ति उत्पन्न होती है जिससे आदमी कुछ का कुछ हो जाता है। पेट भरने लायक भोजन भी जिन्हें बचपन में नहीं मिलता था, आधी उम्र तक अपनी जरूरतें पूरी करने की सामग्री तक जो नहीं जुटा सके, उन हिटलर और मुसोलिनी को देखिये, ईशा, मुहम्मद, गांधी पर दृष्टिपात कीजिए। जितने महान कार्य आज आपको दीख पड़ते हैं उनको पूरा करने वालों के जीवन पर नजर डालिए। सर्वत्र एक ही आधार मिलेगा। मन का संयम, चित्त की एकाग्रता। दत्त चित्त होकर जिसने जो काम किया उसने उसमें सफलता पाई। बीता इसीलिए चिल्लाती है कि सच्चा मित्र संयमी मन है। उसी की मदद से सब काम हो सकते हैं। शंकराचार्य इसीलिए संसार जीतने की अपेक्षा मन को जीतने का अधिक महत्त्व बताते हैं। पातञ्जलि चित्त वृत्तियों के निरोध को ही योग बताते हैं। यही वह वरदान है जिससे आदमी धन्य हो जाता है।

लेख बढ़ गया है। इसलिए इन पंक्तियों को यही समाप्त करता हूँ। आगामी अंक में मन का संयम करने के सरल और अनुभूत प्रयोग पाठकों के सामने रखूँगा।


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