वैभव (kavita)

February 1940

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(रचयिता- श्री कपिलेश्वर शरणजी)

चपला सा चंचल वैभव क्षण भर कुरता झिलमिल रे।
यह सुधा नहीं है विष है, कुछ सोच समझ का पी रे।

सपने हैं सोने के दिन, चांदी की मधुमय रातें।
क्षण- भर की जल बूँदों सी सब पल- भर की बातें।

है क्षणिक विश्व का वैभव, यह हास रास दो दिन का।
सागर का ओर नहीं है, जीवन है टूटा तिनका।

रंथी पर हाथ पसारे, कहता था वीर सिकन्दर-
खाली हाथों जाता हूँ इतना वैभव भी रखकर।

यह ताज खड़ा कहता है- सोती मिट्टी में रानी।
सब डूब यहीं जायेंगे, है अतल समय का पानी।

है कहाँ चमकता चमचम मुगलों का प्यारा वैभव?
किस परदे में सोया है, वैशाली का वह गौरव?

यह दुनियाँ सागर है रे, क्षण- क्षण पर दुख की लहरें।
वैभव कागज की डोंगी, फिर कैसे जल पर ठहरे?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: