प्राणायाम की सुगम क्रिया

February 1940

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(ले.-डा. गोविन्द प्रसाद कौशिक, राधा कुण्ड)

गत अंक में बता चुका हूँ कि प्राणायाम और स्वास्थ्य का कितना गहरा संबंध है। अखंड ज्योति के पाठकों से मुझे इतनी आशा तो करनी ही चाहिए कि वे इस मोटी बात को जरूर जानते और मानते होंगे जो बात शरीर को उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करने वाली होगी वह मन को लाभ अवश्य पहुंचायेगी। क्या प्राणायाम का लाभ केवल शरीर-रक्षा तक ही सीमित है? नहीं! उसके लाभ अगणित हैं और मन के ऊपर उसका विशेष प्रभाव पड़ता है। आन्तरिक शुद्धि के लिए योगी लोग प्राणायाम को अपूर्व अस्त्र मानते हैं। महर्षि पातंजलि ने योग दर्शन में कहा है-”किंच धारण सुच योग्यता मनस।” 2। 53 अर्थात् प्राणायाम से मन की एकाग्रता और सूक्ष्मता होती है। चंचल मन को वश में करने के लिए प्राणायाम का हथियार बहुत उपयुक्त सिद्ध होता है। वे और भी कहते हैं “ततः क्षीयतेप्रकाशावरणम्” 2। 52 अर्थात् प्राणायाम से अन्धकार का आवरण क्षीण होता है। हृदय में अज्ञान और कुविचारों के कारण एक प्रकार का अन्धकार हो जाता है। कर्तव्य-पथ सूझ नहीं पड़ता और प्रकाश के अभाव में सद्वृत्तियों का विकास नहीं होता। इस आवरण को हटाने की प्राणायाम के प्रकाश में सामर्थ्य है। मन का संयम होने और अन्धकार मिट जाने पर मनुष्य का अन्तःकरण निर्मल एवं संस्कृत हो जाता है और उसकी गति ऊर्ध्व धर्म की ओर प्रेरित होती है। भगवान मनु कहते हैं-दह्यन्ते ध्यायमानानाँ धातूनाँ हि यथा मलाः। तथेन्द्रियाणाँ दह्यन्ते दोषाः प्राणास्य निग्रहात्॥ (मनुस्मृति 6। 71) अर्थात् तपाने से जैसे धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं वैसे ही प्राणायाम से इन्द्रियों के दोष जल जाते हैं। दोष रहित निर्मल इन्द्रियाँ आत्मा की कितनी श्रेष्ठ मित्र हो सकती हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं। संयमी मन से आप अपने पेशे में आशातीत उन्नति कर सकते हैं सब प्रकार की साँसारिक और मानसिक सिद्धियाँ प्राप्त कर सकते हैं। निर्मल इन्द्रियों से स्वस्थ दीर्घ जीवन प्राप्त होता है कार्य क्षमता और उपार्जन शक्ति बढ़ती है। एक शब्द में यों कह सकते हैं कि आनन्द प्राप्त करने के यह दोनों सर्वश्रेष्ठ साधन प्राणायाम के द्वारा उपलब्ध हो जाते हैं।

प्राणायाम की उच्चकोटि की उपासना के अभ्यास से आश्चर्य जनक सिद्धियां मिलती हैं। ऊँची अवस्था में जाकर प्राणों का इतना संयम हो जाता है कि महात्मा लोग प्राणों की गति अपनी इच्छानुसार मृत्यु को वश में कर लेते हैं और वे जब तक चाहते हैं एक ही शरीर को धारण किये रहते हैं। वर्षों की समाधि लगा जाना प्राणों का संयम नहीं तो और क्या है?

इस स्थल पर प्राणायाम की उन कठिन और उच्चकोटि की साधनाओं का वर्णन करना उचित न होगा जिनको योगी लोग ही अपने कार्यक्रम में सम्मिलित कर सकते हैं। यहाँ कुछ ऐसी साधारण प्राणायाम क्रियाओं का बताना अधिक उपयोगी होगा जिन्हें साधारण काम काजी लोग अपने दैनिक कार्यक्रम में शामिल कर सकें और यदि कोई छोटी-मोटी भूल हो जाय तो किसी खतरे का सामना न करना पड़े।

प्राणायाम का अभ्यास करने के लिए प्रातः काल का समय बहुत अच्छा है। नित्यकर्म से निवृत्त होकर खुली और शुद्ध वायु में अभ्यास के लिये जाना चाहिए। चौकी पर बैठना ठीक है पर यदि जमीन पर बैठना पड़े तो आसन अवश्य बिछा लेना चाहिए। क्योंकि यद्यपि निर्बलों को पृथ्वी से कुछ बल मिलता है तथापि प्राण आकर्षण करने की क्रियाओं द्वारा शरीर में जो विशेष प्राण का संचय होता है वह पृथ्वी की आकर्षण शक्ति द्वारा खिंच जाता है और अभ्यासी वास्तविक लाभ से वंचित रह जाता है। एक ही आसन लगाकर बैठना चाहिए। पद्मासन अच्छा आसन है पर यदि उससे बैठने में कठिनाई होती है तो साधारण रीति से पाल्ती मार कर बैठ सकते हैं। रीढ़ की हड्डी बिलकुल सीधी रहे। झुके हुए कंधे फेफड़ों पर दबाव डालते हैं जिससे छाती में पूरी हवा नहीं भर पाती। हाथों को जहाँ तहाँ पटकने की अपेक्षा दोनों घुटनों पर रख लेना सुविधाजनक होता है।

उपरोक्त विधि से ठीक प्रकार बैठ कर पाँच मिनट चित्त को बिलकुल शान्त करना चाहिए मन में जो भी भले बुरे विचार हों उन सबको हटाकर चित्त को बिलकुल शान्त और शून्य करना चाहिए। अब प्राणायाम की क्रिया करने का ठीक समय है।

धीरे धीरे नासिका के मार्ग से साँस बाहर निकालिए जब पूरी तरह हवा बाहर निकल जाय तब उसे बाहर ही रोक दीजिए अर्थात् कुछ देर बिना हवा के बने रहिए फिर धीरे धीरे साँस भीतर खींचिये। यह प्राणायाम का आधा भाग हुआ। योग शास्त्र के शब्दों में हवा बाहर निकालने को ‘रेचक’ बाहर रोके रहने को ‘बाह्यकुँभक’ और भीतर खींचने को ‘पूरक’ कहते हैं। अभी आधा प्राणायाम आपको और करना है। पूरक द्वारा जब पूरी हवा भीतर खींच चुकें तो उसे भीतर रोक दीजिए इसे ‘अभ्यान्तर कुँभक’ कहा जाता है। अब फिर हवा को बाहर निकाल दीजिए यह पूरा प्राणायाम हो गया। कुछ देर बिना हवा के रहना फिर धीरे-धीरे खींचना, भीतर रोके रहना और अंत में उसे निकाल देना यह चार क्रियायें करने पर एक प्राणायाम होते हैं। ऐसे कई प्राणायाम एक बार में करने चाहिएं।

इन क्रियाओं को करते समय जल्दी करने की जरूरत नहीं है। धीरे धीरे अभ्यास करना अच्छा है। हवा को इतनी देर तक बाहर निकाले रहना या भीतर रोके रहना ठीक न होगा जिससे जी घबराने लगे। हर क्रिया के समय में वृद्धि होना अच्छा है पर जबरदस्ती का अभ्यास लाभप्रद न होगा। धीरे धीरे निरंतर के प्रयत्न से साँस को रोके रहने, बाहर छोड़े रहने, खींचने और निकालने के समय में अपने आप वृद्धि होती है। यही अभ्यास लाभ दायक है। आरंभ में दस बार प्राणायाम करना काफी है फिर एक एक प्रति दिन बढ़ाया जा सकता है।

हिन्दू धर्म के विभिन्न संप्रदायों की विभिन्न पुस्तकों में प्राणायाम के समय अलग अलग मंत्र जपने का विधान है। इन मंत्रों का उद्देश्य प्रायः एक ही है। उनके निर्माताओं की इच्छा है कि साधक ऐसी भावना करे कि प्राणायाम या उसके मंत्र द्वारा मुझमें विशेष शक्ति का समावेश हो रहा है। आप को यदि कोई मंत्र याद नहीं है तो कोई प्हर्ज नहीं, आप वायु खींचते समय भावना कीजिए कि मैं प्रकृति को पोषक तत्वों को सांस के साथ खींच रहा हूँ। भीतर रोके रहने के समय में चिन्तन कीजिए कि खींचे हुए तत्व मेरे अंग प्रत्यंग में व्याप्त हो रहे हैं। वायु निकालते समय कल्पना कीजिए कि अपने अंदर के तमाम शारीरिक और मानसिक कषायों को बाहर फेंक रहा हूँ। हवा को बाहर रोकते समय सोचिये मेरे सब विकार बाहर चले गये हैं और मैंने अपने अन्दर का दरवाजा बन्द करके उनका फिर से भीतर प्रवेश कर सकना असंभव कर दिया है। इस प्रकार की सुदृढ़ भावना किसी भी मन्त्र से कम उपयोगी साबित नहीं होती। मन्त्र या भावना का जप मन ही मन होना चाहिये। होट या जबान हिलाने की जरूरत नहीं। आप निर्भय होकर इस सरल प्राणायाम का अभ्यास आरम्भ कर सकते हैं। कुछ ही दिनों में आपको अद्भुत लाभ दिखाई पड़ने लगेगा।

*समाप्त*


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