विराट का वैभव अपने अन्तस् में

December 1982

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विभु अचिंतन्य है। विस्तार की कल्पना एवं आराधना कठिन है। किन्तु अणु के भीतर विद्यमान उस महती शक्ति सत्ता का सरल साक्षात्कार हो सकता है। बूँद में सरोवर की समस्त विशेषताएँ विद्यमान हैं। चिनगारी में विश्व अग्नि तत्व की समस्त सम्भावनाएँ सन्निहित हैं। बीज में वृक्ष और शुक्राणु में समूचा मनुष्य विराजता है। परब्रह्म की समग्र सत्ता का विराट−दर्शन किन्हीं बिरलों को ही होता है किन्तु उसका अभीष्ट दर्शन अपने अन्तराल में भी भली प्रकार किया जा सकता है। न केवल दर्शन वरन् सघन संपर्क और महत्वपूर्ण आदान−प्रदान का उपक्रम भी इस क्षेत्र में अधिक सरलता और सफलतापूर्वक बन पड़ता है।

सोऽहम्, शिवोऽहम्, तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म जैसे तत्वदर्शी प्रतिपादनों में उसी एकात्म अद्वैत का प्रतिपादन है। जिसे अपनाकर कोई भी अपने को सृष्टा का युवराज होने की वरिष्ठता से अवगत हो सकता है। सौर−मण्डल की समग्र सत्ता परमाणु के छोटे परिकर में सन्निहित है मानवी अन्तराल में सत्यं शिवं सुन्दरम् झाँकता है और सत् चित् आनन्द की अनेकानेक विभूतियों का दर्शन होता है।

अच्छा हो हम दिशाओं को महकाने वाली कस्तूरी को अपनी ही नाभि में केन्द्रीभूत देखें। अपने को समझें, कुरेदें, जगायें, उभारें और इस योग्य बनायें कि उस एक में ही पारस कल्पवृक्ष और अमृत की उपस्थिति का अनुभव पग−पग पर होने लगे। मानवी पराक्रम, विवेक की सार्थकता इसी क्षेत्र की प्रगति से परखी जाती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles