अपनों से अपनी बात - आत्म शक्ति के संवर्धन प्रयास में योगदान अपेक्षित

December 1982

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सम्पदा, बुद्धिमत्ता, बलिष्ठता, प्रतिष्ठा, कला कुशलता जैसी भौतिक उपलब्धियों का शारीरिक सुविधा संवर्धन में कितना योगदान है इसे सभी जानते हैं। उस उपार्जन के लिए सभी अपनी सूझ−बूझ और सामर्थ्य के अनुरूप प्रयत्न भी करते हैं। इस संदर्भ में एक बात और भी जानने योग्य है कि आत्मिक प्रखरता का मूल्य इन सबसे अधिक है। चेतना का स्तर ऊँचा उठने पर जो प्राप्त किया जाता है उस विभूति वैभव को अद्भुत ही समझा जाना चाहिए। व्यक्तित्व की गरिमा को जिन्हें हस्तगत होती है वे आत्मबल के धनी वह सब कुछ प्राप्त करते हैं जो इस संसार से न इस जीवन में पाने योग्य है।

आत्मिक प्रगति की महत्ता तो कितने ही लोग जानते हैं, उनके साथ जुड़ी हुई ऋद्धि−सिद्धियों की विभूतियों के प्रमाण उदाहरण भी देखे सुने होते हैं किन्तु अपने समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य एक ही है कि इस दिशा में सुनिश्चित गति से बढ़ा सकने वाला मार्गदर्शन एवं सहयोग उपलब्ध होता नहीं। भ्रान्तियों में भटकाने वाली, सस्ते में बहुत लाभ का लाटरी जैसा प्रलोभन देने वाली तथाकथित अध्यात्म की दुकानें तो हर गली−कूचे में लगी रहती है, पर उनमें से कदाचित् ही कोई यह सिद्ध करती हो कि अध्यात्म के तीन लाभ—आत्म−सन्तोष, लोक−सम्मान और दैवी वरदान की कसौटियों पर भी खरा सिद्ध होने वाली महानता उनके द्वारा किनने कहाँ कब उपलब्ध की या कराई। भ्रान्तियों और विडम्बनाओं में उलझने वाले अन्ततः खिन्न, निराश होते और संजोई हुई आस्था तक गँवा बैठते हैं।

युग सन्धि के प्रभात पर्व पर आत्म शक्ति की ही सबसे बड़ी आवश्यकता पड़ेगी। इसी से वरिष्ठ प्रतिभाएँ उभरेंगी और उनके माध्यम से युग अवतरण का महान प्रयोजन पूरा होगा। यह क्षमता आत्म−शक्ति में ही है कि वे आत्म−कल्याण और लोक−कल्याण का दुहरा प्रयोजन पूरा करा सके। जागृत आत्माओं के लिए सबसे बड़ी सामयिक आवश्यकता एक ही है कि अपने में अपेक्षाकृत अधिक आत्मबल सम्पन्न करें। उस विभूति के सहारे स्वयं ऊँचे उठे, प्रखर बने और समूचे वातावरण का नव जीवन को युग चेतना से अनुप्राणित करें।

यह सब कैसे हो? इसका उत्तर अखण्ड−ज्योति के गत अक्टूबर−नवंबर अंक के पृष्ठों पर मिल सकता है। उसमें अध्यात्म विभूतियों के सम्पादन का राजमार्ग यों क्रमिक गति से आरम्भ से ही प्रस्तुत किया जाता रहा है पर अब उसकी आवश्यकता एक प्रकार से अनिवार्य हो गई है और अपना समाधान तत्काल माँगती है। अस्तु अखण्ड−ज्योति ने तद्नुरूप अपनी प्रशिक्षण व्यवस्था में अधिक प्रखरता का समावेश किया है। अध्यात्म विज्ञान के सारगर्भित पक्षों को इस प्रकार प्रस्तुत करना आरम्भ किया है जिसके सहारे उसे गले उतारना और व्यवहार में समाविष्ट कर सकना अपेक्षाकृत अधिक सुविधा और अधिक सरलतापूर्वक सम्भव हो सके। राजमार्ग पर चलते हुए देर लगती है, पर कभी−कभी ऐसी पगडण्डियाँ भी हाथ लग जाती हैं जो समय श्रम में असाधारण बचत करके अधिक ऊँचाई तक पहुँचाने का सुयोग प्रदान कर सके। इन दिनों ऐसे आधार उपलब्ध करना और अवलम्बन अपनाना आवश्यक हो गया है।

अध्यात्म विज्ञान प्रधानतया ‘श्रद्धा’ शक्ति पर आधारित है। इन दिनों बढ़ती तार्किकता एवं प्रत्यक्षवादिता ने श्रद्धा की जड़ें हिलायी हैं। दूसरे इस क्षेत्र में इन दिनों विडम्बना और प्रवंचना ने जिस बुरी तरह अड्डा जमाया है उसे देखते हुए सर्वत्र अविश्वास का वातावरण बना है। दोनों ही कारणों से प्रधानता श्रद्धा पर आधारित अध्यात्म एक प्रकार से अविश्वस्त एवं उपेक्षित स्थिति में जा गिरा है। एक ओर आत्मशक्ति की महती आवश्यकता दूसरी ओर उसे उपलब्ध कराने वाले मार्ग पर घनघोर तमिस्रा। इन कारणों से एक प्रकार का अवरोध ही अड़ गया है। न सामयिक आवश्यकता की उपेक्षा की जा सकती है और न भ्रान्तियों, विकृतियों से भरे पूरे प्रचलन का अन्धानुकरण करने की सलाह प्रेरणा ही किसी को दी जा सकती है। असमंजस इतना जटिल और वास्तविक है जिसका समाधान न सूझ पड़ता है और न उससे विमुख होने को मन करता है।

इन परिस्थितियों में अखण्ड−ज्योति ने अपना विशिष्ट उत्तरदायित्व नये सिरे से युग धर्म के अनुरूप अपनाया है और निश्चय किया है कि अध्यात्म तत्व ज्ञान और साधना विधान का इस प्रकार नये सिरे से प्रस्तुतीकरण किया जाय जो तर्क, तथ्य और प्रमाण, की कसौटी पर खरा सिद्ध हो सके। साथ ही व्यवहार में उतारने की दृष्टि से भी सर्व साधारण के उपयोग में आ सकने योग्य हो। कठिन और जटिल साधनाएँ कर सकने की क्षमता जब लोगों में रही नहीं। उत्कृष्टता की दिशा में अनवरत अग्रसर करने वाला साहस, संकल्प बल एवं पराक्रम भी घटते−घटते बहुत दयनीय स्थिति में जा पहुँचा है। ऐसी दशा में पुरातन काल में जिन साधनाओं तपश्चर्याओं को अपनाने वाले कौतुक जैसा सरल सुगम माना जाता था वही अब पर्वत जैसा भारी प्रतीत होता है। यह एक नया संकट है जिसके कारण इन दिनों पुरातन काल को कठिन निर्धारणों को अपनाने के लिए सर्व साधारण को उत्साहित सहमत करना कठिन हो चला है।

इन जटिलताओं के बीच युग धर्म का निर्वाह करते हुए सर्वसाधारण को विशेषतया जागृत आत्माओं को—आत्मबल से सुसम्पन्न बनाने वाला पथ प्रशस्त करना ही होगा। यह कैसे हो? इसका निर्धारण गहरे विचार मन्थन के उपरान्त अब एक प्रकार से निश्चित कर ही लिया गया है। उसे प्रज्ञा परिजनों के सम्मुख इन्हीं दिनों प्रस्तुत किया जाना है।

अखण्ड−ज्योति के अगले अंकों की एक प्रकार से उच्चस्तरीय अध्यात्म विज्ञान का व्यावहारिक शिक्षा पाठ्यक्रम समझा जाना चाहिए। उस आधार पर घर बैठे भी बहुत कुछ समझा सीखा किया और पाया जा सकता है। जो इस संदर्भ में शान्ति−कुँज हरिद्वार की कल्प साधना सत्र शृंखला में सम्मिलित हो सकें वे और भी अधिक लाभान्वित होंगे।

अखण्ड−ज्योति परिजनों में से प्रत्येक से निवेदन है वे इस आत्म−शक्ति संवर्धन प्रयासों को सफल बनाने में हाथ बढ़ाये और प्रत्यक्ष योगदान दें। यह योगदान अखण्ड−ज्योति के नये पाठक बढ़ाने के रूप में हो सकता है। जो अगले वर्ष के अंक पढेंगे वे एक प्रकार से पत्राचार विद्यालय के माध्यम से आत्मोत्कर्ष प्रयास में संलग्न होने वाले छात्रों जैसा लाभ घर बैठे प्राप्त कर सकेंगे।

अनेकों उच्चस्तरीय कारण, उद्देश्य और आधार ऐसे हैं जिन्हें उपलब्ध करने के लिए अगले वर्ष की अखण्ड−ज्योति सदस्यता हर किसी के लिए अतीव लाभदायक सिद्ध होगी। इसलिए वर्तमान पाठकों से आग्रहपूर्वक यह अनुरोध किया गया है कि वे अपने संपर्क क्षेत्र में जिन पर भी प्रभाव अधिकार समझें उनमें कम से कम तीन को पत्रिका के सदस्य बनाने का प्रयत्न करें। इसी प्रयोजन के लिए रसीद पत्रक इसी अंक में लगाये गये हैं। जिनसे चन्दा प्राप्त हो उन्हें विश्वास दिलाने के लिए यह रसीदें दी जा सकती है। चन्दा कार्यालय में पहुँचते ही सन् 83 की पत्रिकाएँ आरम्भ हो जायेंगी।


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