त्रिपदा गायत्री की त्रिविधि भाव साधना

December 1982

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गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। त्रिपदा अर्थात् तीन पद—तीन चरण वाली। जीव, ब्रह्म, प्रकृति,। सत्रज−तम। सत्−चित्−आनन्द। स्थूल, सूक्ष्म, कारण। ज्ञान, कर्म, भक्ति आदि कितने ही त्रिकों का अध्यात्म शास्त्रों में उल्लेख मिलता है। देखा जाय तो यह सब गायत्री के ही तीन चरणों का विस्तार विवेचन हैं। गायत्री महाशक्ति अपने ब्रह्म उद्गम हिमालय से निकल कर दो भागों में विभक्त होती है। इनमें से एक ज्ञान धारा है, दूसरी शक्तिधारा। प्रयागराज के संगम में एक और सूक्ष्म सरिता सरस्वती भी मिलती है और वह त्रिवेणी संगम कहा जाता है।

गायत्री की सामान्य उपासना में फर्ममाण्ड परक पर्ट्पग, आत्मशोधन, जप, देवपूजन आदि उपचार सम्पन्न करने पड़ते हैं। इससे डडडड की उच्चस्तरीय गायत्री साधना में भावपद का प्राधान्य है। इसके भी तीन चरण हैं। उच्चस्तरीय गायत्री साधना के भावपक्ष को (1) भजन (2) मनन और (3) चिन्तन कहा जा सकता है। इन्हें त्रिपदा गायत्री के भावपक्ष के तीनचरण कहा जा सकता है।

उच्चस्तरीय अध्यात्म साधना के भाव पक्ष के तीन चरण हैँ। (1)भजन, (2)मनन, (3)चिन्तन। इन तीनों को मिला देने से ही एक समग्र साधन प्रक्रिया का निर्माण होता है। अन्न, जल और वायु के तीनों अंग मिलकर पूर्ण आहार बनता है। इनमें से एक भी कम पड़ जाय तो जीवन यात्रा न चल सकेगी। इसी प्रकार जीवन के लिए भजन, मनन और चिन्तन का सूक्ष्म आहार, प्रस्तुत करना पड़ता है। अन्तःकरण की स्वस्थता, प्रखरता, परिपुष्टता एवं प्रगति इन तीन आधारों पर ही निर्भर है। गायत्री महामन्त्र के तीन चरणों की सूक्ष्म प्रेरणा भी इसी त्रिवेणी को कहा जा सकता है।

उच्चस्तरीय ‘भजन’ के लिए शरीर को शिथिल और मन को उदासीन करना पड़ता है। ताकि न शरीर की माँसपेशियों पर कोई तनाव रहे और न मस्तिष्क में कोई आकर्षण उत्तेजना पैदा करे। यह स्थिति कुछ ही दिन के अभ्यास से उपलब्ध हो जाती है। किसी आराम कुर्सी, कोमल बिस्तर या दीवार, पेड़ आदि का सहारा लेकर शरीर को निद्रित एवं मृतक स्थिति जैसा शिथिल कर देना चाहिए। इसे शवासन एवं शिथिलीकरण मुद्रा कहते हैं। शारीरिक दृष्टि से यह पूर्ण विश्राम है। उत्तेजित तनी हुई नाड़ियाँ एवं माँस पेशियाँ होने पर कभी किसी का ध्यान लग ही नहीं सकता। इसलिए पद्मासन, बद्ध पद्मासन जैसे तनाव उत्पन्न करने वाले आसन और किसी प्रयोजन के लिये उपयोगी भले ही हों−ध्यान के लिए उलटे बाधक होते हैं।

यह बात मन के सम्बन्ध में भी है। समस्त संसार में शून्यता संव्याप्त है। प्रलय काल की तरह नीचे अथाह नील जल राशि और ऊपर नील आकाश है। सर्वत्र परम शान्तिदायिनी नीलिमा एवं नीरवता संव्याप्त है। कहीं कोई व्यक्ति या पदार्थ नहीं। मन को आकर्षित करने वाली कहीं कोई स्थिति परिस्थिति शेष नहीं। उस परम शून्यता में बालक की तरह अपनी निर्मल चेतना कमल पत्र पर लेटी हुई तैर रही है। अपने पैर का अँगूठा अपने मुँह में लगा हुआ है और आत्मा स्वरस का पान कर रही है। प्रलयकाल का ऐसा चित्र बाजार में बिकता भी है। मनःस्थिति को उसी स्तर का बनाने का प्रयत्न किया जाय तो शून्यता की मानसिक स्थिति बनती और चली जाती है। शारीरिक शिथिलता और मानसिक रिक्तता की—उपरोक्त स्थिति भजन साधना की उपयुक्त पूर्व भूमिका समझी जानी चाहिए।

शिथिल शरीर एवं मनःस्थिति में ही भजन ठीक प्रकार से हो सकता है। आपरेशन करते समय इन्जेक्शन लगाते समय हिलने−डुलने पर प्रतिबन्ध रहता है। एक का रक्त दूसरे के शरीर में प्रवेश कराते समय दोनों व्यक्ति यों को हिलाया डुलाया नहीं जाता। भाव परक ध्यान योग के समग्र—भजन के समय भी मानसिक संस्थान को इसी प्रकार शान्त रहना चाहिए यह भजन का पूर्वार्ध है।

भजन का उत्तरार्ध यह है कि उस सर्वशक्तिमान्−सर्ववैभववान्—सर्वउत्कृष्टताओं से सम्पन्न—सर्वाधिक प्रेमी परमेश्वर को अपनी सत्ता में प्रविष्ट होते हुए—घुलते हुए अनुभव किया जाय। ब्रह्माण्ड व्यापी दिव्य प्रकाश के सागर में अपने आपको मछली की तरह निमग्न अनुभव किया जाय। जिस प्रकार से मिट्टी के ऊपर जल गिरने से दोनों के मिश्रण का एक नया रूप ‘कीचड़’ बनता है वैसे ही भावना की जानी चाहिए कि परम प्रकाश अपने रोम−रोम में संव्याप्त हो रहा है। (1) शरीर के अंग प्रत्यंग में वह संयम एवं बलिष्ठता का रूप धारण कर रहा है। (2) मस्तिष्क में विवेक और प्रखर प्रतिभा परक तेजस् बनकर बिखर रखा है। अन्तरात्मा के हृदय संस्थान में वह देवत्व और आनन्द रूप बना बैठा है। इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीन शरीरों में परमात्मा की परम ज्योति को ज्वलन्त अग्नि की तरह समाविष्ट देखना अपने को उस आलोक से आलोकित अनुभव करना भजन साधना की प्रधान ध्यान विद्या है।

कहा जा चुका है कि भावनात्मक साधनाओं के लिए संध्या वन्दन की तरह ब्रह्ममुहूर्त का बन्धन नहीं है। उसे सुविधानुसार नित्य उपासना के साथ या आगे पीछे किया जा सकता है। यही बात साधना पर लागू होती है। उसे भजन के साथ या आगे पीछे किया जा सकता है। वातावरण शान्त और स्थान एकान्त होना चाहिए। आँखें बन्द करके आराम कुर्सी पर पड़े हुए यह सोचना चाहिए कि—”शरीर मृत अवस्था में पड़ा है और प्राण उसमें से निकल कर किसी ऊँचे स्थान पर हंस पक्षी की तरह जा बैठा। अब पड़ी हुई लाश के अंग−प्रत्यंगों को पोस्टमार्टम के समय उधाड़े गये अवयवों की तरह उलटना−पलटना चाहिए और समझना चाहिए कि कपड़ों से भरी हुई पेटी की तरह ही यह काया अपने सामयिक उपयोग के लिए मिली थी। इसी प्रकार मस्तिष्क को एक छोटे डिब्बे की तरह खोलकर देखना चाहिए कि उसमें मन, बुद्धि, अहंकार के चार आभूषण, उपकरण औजार सुसज्जित रखे थे।

इस ध्यान को जितनी गहराई से जितनी देर किया जा सकना सम्भव हो, करना चाहिए और इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि प्राण−हंस की आत्म सत्ता सर्वथा स्वतन्त्र है। शरीर की वस्त्र पेटी और मस्तिष्क की उपकरण पिटारी, जीवन रथ के दो अश्व वाहनों की तरह थी। काय−कलेवर लक्ष्य पूर्ति के लिए लिए सहायक के रूप में मिला था। उस की शोभा सुसज्जा के लिए आत्म−कल्याण के लक्ष्य को तिलांजलि नहीं दी जानी चाहिए।

मनन का दूसरा अर्थ है−आत्मबोध। अपना वास्तविक स्वरूप, जीवन का उद्देश्य, शरीर और आत्मा का सम्बन्ध, श्रेय और प्रेय में से एक का चुनाव—अपनी गतिविधियाँ और रीति−नीतियों का सुनियोजित निर्धारण जैसे अनेक महत्वपूर्ण निर्णय इसी केन्द्र पर टिके हुए हैं कि आत्मबोध हुआ या नहीं। यह चेतना जब तक जगेगी नहीं तब तक लोभ और मोह की लिप्सा प्रचण्ड ही बनी रहेगी, तृष्णा और वासना की प्रबलता उभरी ही रहेगी, माया पाश के भव−बन्धनों से छुटकारा मिलेगा ही नहीं, फलतः व्यथा वेदनाओं में झुलसते रहने की दुर्गति से छुटकारा भी नहीं मिलेगा। यदि आत्मबोध का लाभ न मिल सका तो समझना चाहिए कि मानव जीवन का उद्देश्य और आनन्द हाथ से चला गया।

भजन अर्थात् ईश्वरीय सत्ता के साथ आत्मसत्ता का समीकरण—परस्पर विलय समन्वय की अनुभूति। भजन अर्थात् आत्मबोध, शरीर और आत्म के स्वार्थों और सम्बन्धों का पृथक्करण, जीवन लक्ष्य के प्रति आस्था और सरल रीति−नीति का साहसपूर्वक निर्धारण दोनों की साधना विधियाँ सरल है। एक ही समय में या अलग−अलग समय में सुविधा समय और शान्त−एकान्त स्थान में, सुसन्तुलित चित्त से यह दोनों ध्यान किये जा सकते हैं। भावनाओं की जितनी गहराई इनमें लगेगी उतनी ही अन्तर्ज्योति प्रखर होती चली जायगी और आत्मा के साथ परमात्मा का प्रणय परिणाम होने पर दिव्य सम्पदाओं की उपलब्धि होनी चाहिए, वे सहज ही करतलगत होती चली जायेगी।

भाव साधना का तीसरा चरण है—चिन्तन। चिन्तन अर्थात् शारीरिक गतिविधियों का, आदर्शवादिता का और मानसिक हलचलों का उत्कृष्टता के आधार पर सुसन्तुलित निर्धारण। इसके लिए प्रातःकाल उठते ही “हर दिन नया जन्म−हर रात नई मौत” का तथ्य सामने रखकर आज की−समय परक और भाव परक दिनचर्या निर्धारित करनी चाहिए। एक ही दिन के लिए यह जन्म है। आज ही रात की मृत्यु, निद्रा की गोदी में जाना है इसलिए ईश्वर दत्त समय सम्पदा और भाव वैभव का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने के लिए—जीवन लाभ लेने के लिये साहसपूर्वक तत्पर होना चाहिए। किसी भी व्यवधान को इस निर्धारण में बाधक नहीं होने देना चाहिए।

प्रातःकाल से लेकर सोने के समय तक की समयचर्या निर्धारित करनी चाहिए। नित्य कर्म, विश्राम, उपार्जन से लेकर परमार्थ प्रयोजनों तक के लिए उचित रीति व समय विभाजन किया जाय। उपार्जन के और परिवार पोषण के उत्तरदायित्व अभी जिनके कन्धों पर है उन्हें भी आठ घण्टा कमाने के लिए, छः घण्टा सोने के लिए चार घण्टा नित्य नैमित्तिक कर्मों के लिए लगाकर साँसारिक प्रयोजनों के लिए अधिकतम 20 घण्टे ही खर्च करने चाहिए। शेष 4 जीवनोद्देश्य की पूर्ति में लगाने चाहिए।

हर क्रिया के साथ एक विचारणा अनिवार्य रूप से जुड़ी रहती है। क्या कार्य, किस लाभ या प्रयोजन के लिए किया जा रहा है, उसमें रुचि या उत्साह किस लिए है, इसका कुछ न कुछ आकर्षण होना ही चाहिए। मनोगत आकाँक्षा और शरीरगत क्रिया दोनों के सम्मिश्रण से समग्र कर्म बनता है, उसी के आधार पर संस्कार बनते हैं, पाप पुण्य का निर्धारण होता है और कर्मफल की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। भाव रहित क्रिया तो मात्र उछल कूद भर होती है। हमें अपने पर क्रिया−कलाप के साथ उच्च आदर्शों से भरी−पूरी भावना नियोजित रखनी चाहिए। पत्नी को अपने संरक्षण में रखी गई ईश्वर की पुत्री समझा जाना चाहिए और वह पिता के घर से जिस स्थिति में आई थी उसकी अपेक्षा अधिक स्वस्थ, सुयोग्य सुविकसित, प्रसन्न, प्रफुल्लित बनाने का प्रयास निरन्तर करते रहने की बात सोचनी चाहिए।

बालकों को ईश्वर के उद्यान में उगे हुए सुरभित पुष्प माना जाय और उन्हें माली की तरह सींचा, सम्भाला जाय। अपनी सम्पदा, बुढ़ापे की लकड़ी, वंश चलाने वाले उत्तराधिकारी, मात्र प्रियपात्र उन्हें माना समझा जायगा तो वे ही बालक बन्धन रूप सिद्ध होंगे और लोक−परलोक में विविध विधि दुर्गति का कारण बनेंगे। दृष्टिकोण का अन्तर रहने के कारण एक व्यक्ति के लिए शिशु पोषण, परिवार पालन अपार उद्वेग उत्पन्न करेगा। जब कि परिष्कृत चिन्तन शैली से की गई परिवार सेवा−गृहस्थयोग साधना बन जाती है। माता−पिता, भाई−बहन आदि का भरा−पूरा कुटुम्ब किसी भावनाशील व्यक्ति के लिए अपने सद्गुणों के विकास के लिए विनिर्मित प्रयोगशाला ही सिद्ध होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए परिवार के लिये उपार्जन एवं सुविधा व्यवस्था में लगन वाला अधिकाँश समय तथा मनोयोग नियोजित किया जाय तो घर ही तपोवन बन सकता है। ऐसे लोगों को तपोवन में घर बनाने की आवश्यकता नहीं है।

तात्पर्य यह है कि दिन भर की समस्त कार्य पद्धति के साथ उच्चकोटि की भावनाएँ नियोजित रखी जायें। हर दिन कागज पर पूरी दिनचर्या नोट करली जाय जिसमें दिनभर का समय विभाजन और हर कार्य के साथ जुड़ी रखी जाने वाली भावनाओं का विवरण लिखा रहे। यह कागज मेज पर या जेब में रखा रहे। निर्धारित कार्य पद्धति और विचार प्रक्रिया में कितनी सफलता मिल रही है कितनी असफलता, इसका निर्णय हर घण्टे करते रहा जाय। इस प्रकार चलता हुआ क्रम रात को सोते समय यह बतायेगा कि सब मिलाकर कुल कितने प्रतिशत सफलता मिल रही है कितनी असफलता, इसका निर्णय हर घण्टे करते रहा जाय। इस प्रकार चलता हुआ क्रम रात को सोते समय यह बतायेगा कि सब मिलाकर कुल कितने प्रतिशत सफलता मिली कितनी असफलता। सफलता के लिये प्रसन्न हुआ जाय और जो भूलें हुई हों उन्हें दूसरे जन्म में—दूसरे दिन सुधारने के लिए अधिक सतर्कता जागृत की जाय।

रात्रि को सोने के लिये जब बिस्तर पर जाया जाय तब संन्यास जैसी भावनाओं को हृदयंगम किया जाय। जो कुछ कर्त्तव्य थे वे ईश्वर के सौंपे हुए थे, ईमानदारी से पूरे किये गये। जो शेष हैं उन्हें ईश्वर पूरा करेगा। कुटुम्ब, परिवार, धन, वैभव आदि सब भगवान का था उसकी धरोहर उसे सौंपकर निश्चिन्तता पूर्वक निर्लिप्त मन से अनासक्त कर्मयोगी की तरह निद्रा मृत्यु की गोद में शयन किया जा रहा है। अन्तिम मृत्यु के लिये यह श्रेष्ठतम साधना है। इस मनःस्थिति में यदि महाप्रयाण किया जाय तो परलोक में निश्चित रूप से परम शान्ति और सद्गति ही मिलेगी।

चिन्तन का स्वरूप शारीरिक और मानसिक गतिविधियों को आदर्शवादिता और उत्कृष्टता के खाँचे में इस तरह कस देना है कि असावधानी के कारण पनपने वाली दुष्प्रवृत्तियों के पनपने की कोई गुंजाइश न रहे। ढीली–पोली जीवनचर्या पर ही विकृतियां सवार होती है यदि जागरूकता और सतर्कता बनी रहे तो दुष्ट दुर्भावों को सेंध लगाने का अवसर नहीं मिले। यदि वे कदाचित् आक्रमण करें भी तो चिन्तनशील उसके लिये विरोधी विचारों की सेना सदा लड़ने और अड़ने के लिये तैयार रखता है। कभी कामुकता के विचार मन में उठें तो उसे निरस्त करने के लिये व्यभिचार से उत्पन्न होने वाले असंख्य अनर्थों का, संयम ब्रह्मचर्य से उपलब्ध होने वाले सत्परिणामों की लम्बी सूची तैयार रखता है और जैसे ही उस स्तर के दुष्ट विचार उठे कि प्रतिरोधी सदाचार परायण विचार शृंखला पर गम्भीरतापूर्वक ऊहापोह आरम्भ कर देता है। जहाँ यह प्रक्रिया आरम्भ हुई वहाँ कुविचारों के निराकरण में तनिक भी देर नहीं लगती।

यह गायत्री की उच्चस्तरीय भाव साधना है। इसके लिए भजन, मनन और चिन्तन की त्रिवेणी प्रवाहित की जानी चाहिए तथा उपासनात्मक कर्मकाण्ड के साथ−साथ इस भाव साधना को भी चलाना चाहिए। गायत्री महामन्त्र के उपासनात्मक कर्मकाण्ड की प्राण प्रतिष्ठा इस भाव समन्वय से ही सम्भव होती है और इसी के परिणाम स्वरूप वह सब कुछ उपलब्ध होता है जिसका महात्म्युत वर्णन विभिन्न अध्यात्म प्रसंगों में किया गया है।


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