प्राण ऊर्जा बनाम अतीन्द्रिय क्षमता

December 1982

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घर में हीटर, कूलर, पंखा, बल्ब, रेडियो, टेलीविजन आदि कितने ही उपयोगी यन्त्र लगे हैं, पर उनकी सार्थकता तभी है जब उनमें विद्युत धारा का समुचित स्तर प्रवाहित हो रहा है। करेन्ट ही न हो, अथवा नगण्य जितनी मात्रा में हो तो फिर वे उपकरण किसी काम आयेंगे। व्यर्थ ही जगह घेरे पड़े रहेंगे। मनुष्य शरीर में एक से एक महत्वपूर्ण एवं चमत्कारी उपकरण सृष्टा ने फिट करके रखे हैं। उनके लिए समुचित मात्रा में बिजली जुटाना उनका काम है जो उसकी उपयोगिता जानते हैं तथा प्रयुक्त होने पर जो सत्परिणाम उत्पन्न होते हैं उनसे परिचित है।

सूक्ष्म शरीर की संरचना प्राण ऊर्जा से हुई है। उसके अवयव ही उसी स्तर के प्राण गुच्छकों से बने हैं। चक्र उपत्यिका इसी प्रकार के भँवरों का नाम है। उन्हें साधना द्वारा उत्तेजित किया जाता है तो ये चक्रवातों की तरह उछलने लगते हैं। बुद्धिमत्ता इसमें है कि उन्हें उभारने और सही प्रयोजन में लगाने की कला का ज्ञान अनुभव उपलब्ध हो।

कभी अदृश्य होने और इन्द्रिय यन्त्रों की पकड़ में न आने के कारण उस क्षेत्र पर विश्वास करना और प्रयोग के लिए कदम बढ़ाना कठिन प्रतीत होता था, पर अब वैसी बात नहीं रही। विज्ञान ने स्थूल तक सीमित न रहकर सूक्ष्म में प्रवेश करने का संकल्प किया है। फलतः उसे इन्द्रियातीत क्षेत्र की न केवल जानकारी मिली है, वरन् उपयोगिता समझ में आने पर श्रद्धा भी बढ़ी है।

न्यूयार्क विश्व विद्यालय के डॉ. रॉबर्ट बेकर इस निष्क र्ष पर पहुँचे हैं, कि ब्रह्माण्डव्यापी विद्युत चुम्बकीय शक्ति विश्व के प्रत्येक पदार्थ को—जड़ चेतन को−अपने साथ जकड़े हुए हैं। विश्व की प्रत्येक इकाई उसी समष्टि की घटक है। अस्तु पृथक्ता के बीच सघन एकता विद्यमान है और उस एकता के कारण ही पदार्थों और प्राणियों में दृश्य−अदृश्य आदान−प्रदान होता है। दो क्रम आयेदिन अनुभव में आता रहता है, वह सामान्य और जो यदा−कदा दीख पड़ता है, वह असामान्य अतीन्द्रिय या चमत्कारी कहा जाता है।

कुछ ही वर्षों पूर्व की बात है कि प्रकाश विज्ञानी ‘एर्नेस्ट एटो’ और उनके सहयोगी वैज्ञानिक डी. गैवर ने होलोग्राफ के एक नहीं सिद्धांत का आविष्कार किया, जिसके आधार पर त्रिआयामीय स्तर का छाया चित्रण आँखों से देखे जा सकने की परिकल्पना साकार हुई। भूतकालीन दृश्यों को इन्हीं आँखों से इस प्रकार देखा जा सकने की भी कल्पना की जाने लगी मानों वह घटनाक्रम अभी−अभी ही बिल्कुल सामने घटित हो रहा हो।

विज्ञानी ट्रेवर जेम्स का कहना है—”हमारी आँखें वर्णक्रम की अल्प मात्रा देख पाने में ही समर्थ है। हमारी आँख वर्णक्रम के सिर्फ सात रंगों को ही पकड़ पाती है, किन्तु इसमें लाल से लेकर बैंगनी तक केवल सात ही रंग नहीं होते वरन् ऐसे लगभग दस अरब अदृश्य रंग होते हैं जो आँखों को दिखाई नहीं पड़ते। इनकी ‘बेज लेंग्थ’ (आवृत्ति) हमारी आँखों की पकड़ से बाहर होती है।”

“सूक्ष्म जीवाणु हम नंगी आँखों से नहीं देख सकते, किन्तु माइक्रोस्कोप के सहारे उन्हें देखा जा सकता है। उसी प्रकार इन्फ्रारेड और अल्ट्रावायलेट फोटोग्राफी की सहायता से एक ऐसे अदृश्य−चेतनात्मक जगत में पहुँचा जा सकता है जो देश और काल की सीमा से बाहर है।”

आज वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक एवं परावैज्ञानिक इस तथ्य को स्वीकारने लगे हैं कि ‘प्रेत’ एक कल्पना ही नहीं मानव के अभौतिक जीवन के दीर्घकरण की ही अभिव्यक्ति है, और अल्ट्रावायलेट तकनीक द्वारा ली गई प्रेतों का तस्वीर, अदृश्यता की वैज्ञानिक सम्भावना की ओर इंगित करती है।

विज्ञान इस सम्बन्ध में अपनी दलील देते हुए कहता है कि धूप की अदृश्य तरंगें हमारा शरीर, हमारे जीवन एवं नियति तक को प्रभावित करती है। हमारे शरीर के विद्युत क्षेत्र से उनका संपर्क अपवर्तनाँक को जन्म दे सकता है। सम्भवतः यही अदृश्यता का कारण है।

“प्रापगेशन ऑफ शार्ट रेडियो वेव्ज’ नामक अपने शोध प्रबन्ध में हर्बर्ट गोल्डस्टीन ने कहा है—”वायुमण्डल में संव्याप्त इस विद्युतमय जगत की तह के पीछे जो कुछ भी है वह अदृश्य प्राणियों की दुनिया है, जिन्हें आँखों अथवा अत्याधुनिक इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शियों के सहारे भी नहीं देखा जा सकता।”

सुप्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक एच. जी. वेल्स ने अपनी एक पुस्तक ‘द इनविजिवल मैन’ में उन सम्भावनाओं पर प्रकाश डाला है, जिनके अनुसार कोई दृश्य पदार्थ या प्राणी अदृश्य हो सकता है और अदृश्य वस्तुएँ दृष्टिगोचर होने लगती है। इस विज्ञान को उन्होंने ‘अपवर्तनाँक’ परफ्लेक्टिव इन्डिसेम नाम देकर उसके स्वरूप एवं क्षेत्र का विस्तृत वर्णन किया है। निश्चित ही एक ऐसे सूक्ष्म जगत का अस्तित्व भी है जो अपने इस ज्ञात जगत की तुलना में न केवल अधिक विस्तृत वरन् अधिक शक्तिशाली भी हैं।

पहली घटना के तथ्य मनीला की यू.पी.आई. नामक प्रामाणिक समाचार एजेन्सी ने जुटाए थे। इस एजेन्सी ने पूरी खोजबीन के पश्चात् एक समाचार प्रकाशित कराया था कि कार्नेलियों क्लोजा नामक एक बारह वर्षीय छात्र जब तब अनायास ही अदृश्य हो जाता है। स्कूल के क्लास से गायब हो जाता और दो−दो तीन−तीन घण्टे बाद वापस लौटना आरम्भ में लड़के की चकमेबाजी समझा गया किन्तु पीछे उसके दिये गए विवरण पर ध्यान देना पड़ा। वह कहता था कि कोई समवयस्क परी जैसी लकड़ी उसे अपने पास बुलाती है और वह रुई की तरह हलका होकर उसके साथ खेलने व उड़ने लगता है। पुलिस ने बहुत खोज की। उस लड़के पर विशेष पहरा भी बिठाया गया। यहाँ तक कि उसे एक कमरे में बन्द भी कर दिया गया परन्तु उसका गायब होना नहीं रुका। पीछे तान्त्रिकों द्वारा मन्त्रोपचार किये जाने से उसका गायब होना बन्द हुआ।

दूसरी घटना का उल्लेख फ्राँसीसी वैज्ञानिक सेलारियर द्वारा किया गया है। उनकी प्रामाणिकता पर या विश्वसनीयता पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता। घटना पैरिस की एक प्राचीन प्रतिमा से सम्बन्धित है। वैज्ञानिकों का एक दल जब इस प्रतिमा की परीक्षा कर रहा था, तब देखते ही देखते प्रतिमा गायब हो गई और उसके स्थान पर एक−दूसरी विशालकाय मूर्ति आ विराजी जो पहले की तुलना में बड़ी थी।

सन् 1920 में लन्दन के युवा साँसद पिक्टर ग्रेसर एक दुकान से बाहर निकलते ही सहसा विलुप्त हो गए। इसी प्रकार पोलैण्ड निवासी पादरी बोनिस्की 13 जुलाई 1950 को एक मित्र के पास जाने के लिए अपने घर से निकले। लगभग 80 मीटर दूर जाकर वे भी हवा में विलीन हो गए। खोज−ढूँढ़ के बहुतेरे प्रयास किए गए किन्तु सब निष्फल रहे।

इन घटनाओं से प्रतीत होता है कि दृश्य जगत के अति निकट कोई अदृश्य लोक है। इन दोनों के बीच आदान−प्रदान चलता रहता है कोई दृश्यमान वस्तु या काया अदृश्य लोक में प्रवेश पाकर अदृश्य हो सकती है। साथ ही यह भी सम्भव है कि अदृश्य लोक के पदार्थ या प्राणी यकायक प्रकट होकर अपना आकस्मिक प्रकटीकरण करते हुए दर्शकों को चमत्कृत कर सकें।

23 सितम्बर 1908 को टेनेसी (अमेरिका) निवासी एक किसान ‘डेविड लाग‘ अपने दो मित्रों के साथ शाम को हवाखोरी करने निकले और मित्रों के देखते ही देखते हवा में गायब हो गए। मित्रों ने उस स्थान की काफी छान−बीन की। परन्तु वहाँ झाड़−झंखाड़ और गढ्ढे तो क्या कोई छोटी-सी सूराख भी नहीं नजर आई। साथ घूम रहे मित्रों में से एक प्रतिष्ठित न्यायाधीश थे। उनने लाग को खोजने के लिए भरपूर सरकारी प्रयास किए किन्तु सफलता नहीं मिली। आखिरकार हार कर उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा—”यह एक अविश्वसनीय सत्य घटना है जिसका समाधान खोजने पर भी नहीं मिलता।”

अचानक गायब होने की ऐसी घटनाएँ एक−एक व्यक्ति पर ही नहीं घटी अपितु ऐसी घटनाएँ भी हैं जिनमें एक साथ सैकड़ों लोग अचानक अदृश्य हो गए और उनका कोई पता न चल सका।

श्री एलन और श्रीमती क्रिस्टीन 1975 की गर्मी की छुट्टियाँ मनाने उत्तरी ध्रुव की यात्रा पर निकले थे। लैपलैण्ड के एक गिरजाघर के पास से गुजरते हुए श्रीमती क्रिस्टीन चलते हुए श्री एलन से दो−तीन कदम आगे निकल गई। फिर ज्यों ही उनने पीछे मुड़कर देखा उनके पति लापता दिखाई दिये। न केवल उनने स्वयं खोजबीन की अपितु स्थानीय लोगों ने उनकी सहायता के लिए अपने कुत्तों का प्रयोग भी किया परन्तु कुत्ते उस स्थान पर पहुँचकर रुक जाते और भौंकने लगते थे जहाँ से श्री एलन अदृश्य हुए थे। पास ही सेना का कैम्प था। उन लोगों ने भी श्रीमती क्रिस्टीन के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए उनके पति की शोध में विशेषज्ञों की मदद ली। पर सारे प्रयास विफल रहे। वे चार साल तक अपने पति की प्रतीक्षा करती रही। अन्ततः 1979 में उनके अपने पति के यकायक हवा में गायब हो जाने की घटना का हवाला देते हुए लन्दन की अदालत में तलाक का मुकदमा दायर किया। अदालत में तथ्यों का अवलोकन करते हुई श्री एलन को मृत घोषित करके उनकी पत्नी के विवाह−सम्बन्ध विच्छेद की याचिका को स्वीकृति दे दी।

इन दिनों कितने ही विश्वविद्यालयों में परा मनोविज्ञान सम्बन्धी शोध कार्य बड़े उत्साहपूर्वक चल रहे हैं। कैलीफोर्निया की स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी, नीदरलैण्ड की योनिंगन यूनिवर्सिटी, हारवर्ड यूनिवर्सिटी, शिकागो यूनिवर्सिटी, ड्यूक यूनिवर्सिटी आदि में चल रहे शोध प्रयत्नों ने इस विज्ञान के नये अध्याय आरम्भ किये हैं और ऐसे प्रमाण एकत्रित किये हैं जिनसे प्रतीत होता है कि मनुष्य से काम चलाऊ व्यवहार बुद्धि के अतिरिक्त और ऐसा भी बहुत कुछ है जिसे असामान्य एवं अद्भुत कहा जा सके। ऐसा क्यों होता है? अचेतन और उपचेतन मन की विलक्षण क्षमताओं का स्वरूप और कारण समझने में इन शोध प्रयत्नों से बहुत सहायता मिली है और भविष्य में अधिक जान सकने की सम्भावना का पथ−प्रशस्त हुआ है।

अदृश्य जगत की चर्चा कई रूपों में होती है। भूत, और देवी देवता तो अपने अस्तित्व का प्रमाण और प्रभाव का परिचय तो देते हैं किन्तु शरीरधारी प्राणियों की तरह दृष्टिगोचर नहीं होते। इसके अतिरिक्त उनका अस्तित्व काया के अनेक केन्द्रों में शक्ति गुच्छकों की तरह पाया जाता है। वे शरीर से ऋषियों की और मनःसंस्थान से सिद्धियों की दिव्य−विभूतियों का परिचय देते हैं। अतीन्द्रिय क्षमताएँ यही है। इनकी अलौकिकता के प्रमाण मिलते तो पहले भी थे पर तब उन्हें भूत की करतूत कह कर जादुई रहस्यवाद की गर्त में धकेल दिया जाता था। पर अब वैसी बात नहीं रही। मनुष्य में पाई जाने वाली अतीन्द्रिय क्षमता अब इतनी स्पष्ट है उसे विज्ञान क्षेत्र ने अपने अनुसंधानों में मूर्धन्य मानना आरम्भ कर दिया है क्योंकि पदार्थ की तुलना में व्यक्ति की सत्ता निश्चित रूप से वरिष्ठ है।

मनुष्य की विभिन्न शरीर क्रिया विज्ञान परक एवं मनोवैज्ञानिक अवस्थाओं की जाँच की गई तो देखा गया कि सुषुम्ना नाड़ी का केन्द्र, अनेक स्नायविक कोशिकाओं के गुच्छों के साथ जुड़ा एक जैवप्लाज्मीय सक्रियता का केन्द्र है। बायोप्लाज्मिक−सक्रियमा “मूड” पर निर्भर देखी गई। उदाहरणार्थ कलाकार किसी कलाकृति के बारे में सोचते समय उच्चस्तरीय चेतना की स्थिति में थे तब उनका “कोरोना” अत्यन्त प्रकाशवान था, जबकि कुण्ठित और तनाव की अवस्था में बहुत क्षीण तथा मन्द उसमें काले धब्बे भी थे।

एक अन्य प्रख्यात वैज्ञानिक जर्मनी के प्रो. बिलहोम राइख भी ‘प्राण शरीर’ के अस्तित्व में भारतीय सिद्धान्त का, मानवीय देह की एक प्रतिकृति के अस्तित्व के रूप में समर्थन करते हैं। वे इसे ‘आर्गोन’ कहते हैं यानी “एक जैव विद्युतीय शक्ति −जो नीले रंग की है।”

अब सभी जानते हैं कि प्राण विद्युत पर अनुसंधानरत रूस के विज्ञानवेत्ता ऐमयोन किर्लियान ने एक ऐसी फोटोग्राफी का आविष्कार कर लिया है जो मानव के इर्द−गिर्द होने वाली विद्युतीय हलचलों का भी छायाँकन करती है। इससे प्रतीत होता है कि स्थूल शरीर के साथ−साथ सूक्ष्म शरीर की भी सत्ता विद्यमान है और वह ऐसे पदार्थों से बनी है जो इलेक्ट्रोनों से बने ठोस पदार्थ की अपेक्षा भिन्न स्तर की है और अधिक गतिशील भी। प्रो. एलीशाग्रे ने अपनी पुस्तक ‘मिरेकल्स ऑफ मेचर’ में लिखा है−प्रकाश की तुलना में विचार विद्युत प्रवाह गति कहीं अधिक हैं। अभी यन्त्रों के द्वारा उसे नापा और देखा नहीं जा सका तो भी वह एक तथ्य है कि विचार मात्र कल्पनाओं का उभार न होकर एक शक्तिशाली पदार्थ है। उसकी गति तथा क्षमता ज्ञात भौतिक शक्तियों में सबसे अधिक है।

पदार्थ वैज्ञानिकों का कथन है कि पृथ्वी अपनी चुम्बकीय शक्ति के सहारे समस्त विश्व−ब्रह्माण्ड में संव्याप्त अनेकानेक विशेषताओं को आकर्षित करती रहती है। उसकी अपनी सम्पदा तो नगण्य ही है। मनुष्य की अतीन्द्रिय क्षमता में वह चुम्बकत्व है जिसके द्वारा वह दुस्साध्य एवं असम्भव दीखने वाले कार्यों को भी कर सकता है। वह दूरस्थ घटनाओं का सचित्र आँखों देखा जैसा वर्णन कर सकता है। ‘दूर की श्रवणातीत ध्वनियों को भी समीप की ही भाँति स्पष्ट सुन सकता है। ध्रुवों के क्षेत्र में चुम्बकीय तूफान उठते रहते हैं, जिनका प्रकाश ‘अरोरा बोरीएलिस’ तेजोवलय (ध्रुव प्रभा) के रूप में छाया करता है। इसे पृथ्वी के साथ अन्य ग्रहों की सूक्ष्म हलचलों के मिलन−स्पन्दन की प्रतिक्रिया कह सकते हैं। ठीक इसी प्रकार शरीरगत जीवाणु भी ईथर एवं वायुमंडल में भरे विद्युत प्रवाह से टकराते रहते हैं और विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। जीव कोशों में उन धातुओं तथा रसायनों की समुचित मात्रा रहती है जो आघातों से उत्तेजित होकर विद्युत प्रवाह उत्पन्न कर सकें।

मानवी−चुम्बक अन्तरिक्ष से बरसने वाले अनेक भले−बुरे अनुदानों को अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुरूप स्वीकार−अस्वीकार करता रहता है। वह अपने चुम्बकत्व के आधार पर इस विश्व−ब्रह्माण्ड में से अपनी जैसी सूक्ष्मधारा को एकत्रित कर उपयोग करता रहता है।

प्राण चुम्बकत्व पदार्थ में से अपने उपयोगी भाग को खींचता है—उसे अपने ढाँचे में ढालता है और इस योग्य बनाता है कि चेतना के स्वर में अपना भी ताल बजा सके। किस प्राणी के डिम्ब से किए आकृति−प्रकृति का जीव उत्पन्न हो, इसका निर्धारण मात्र रासायनिक संरचना के आधार पर नहीं हो जाता, वरन् वह निर्धारण रज, शुक्र कीटों के अन्दर भरी हुई चेतना के द्वारा होता है। इसी चुम्बकत्व से भ्रूण में विशिष्ट स्तर के प्राणियों की आकृति एवं प्रकृति ढलनी शुरू हो जाती है। यदि ऐसा न होता तो संसार में पाये जाने वाले समस्त प्राणी प्रायः एक ही जैसी आकृति−प्रकृति के उत्पन्न होते क्योंकि अणुओं का स्तर प्रायः एक ही प्रकार का है।

शरीर की सामान्य क्षमता तनिक-सी प्रतीत होती है किन्तु यदि उनको दृढ़ता, और जीवट को देखा जाय तो प्रतीत होगा कि उसका प्रत्येक छोटा बड़ा अवयव असाधारण रूप से सामर्थ्यवान है। इसे प्राण शक्ति का चमत्कार जानना चाहिए।

एक व्यक्ति 70 वर्ष का होते−होते 100 टन भोजन खा लेता है। अपने वजन की तुलना में यह 1.250 गुना अधिक है। कहा जाता है कि अधिकतर लोगों को तीन दिनों के उपवास की आवश्यकता है। इंसान बगैर भोजन किये बहुत दिनों तक जिन्दा रह सकता है। रूसी शोधकर्ताओं का कहना है कि एक आदमी के बारे में कहा गया कि उसने 52 दिनों तक उपवास किया।

70 वर्ष के समय तक में एक औसत आदमी 13 वर्ष सोता है, 6 वर्ष खाता है, और इतना चलता है जो चाँद तक पहुँचने और इस दुनिया को 9 बार चक्कर लगाने तक है। साफ त्वचा रोगाणुओं को नष्ट करती है मानवीय त्वचा है 3 करोड़ रोगाणु पाये जाते हैं। इनमें से 7,20,000 एक घन्टे तक और 7000 दो घन्टों तक जीवित रहते हैं।

शरीर की ही भाँति मनःसंस्थान भी विशिष्ट सामर्थ्यों से भरा−पूरा है। प्रश्न केवल जागृति और सुषुप्ति का है। जो अपने मनःसंस्थान के अन्धेरे की गर्त्त में पड़े केन्द्रों को जगा लेता है, वह अविज्ञात विलक्षण क्षमताओं से सम्पन्न बनता है। बहिरंग की दृष्टि में ये सभी असम्भव−अद्भुत जान पड़े, परन्तु है यह सब प्रकृतिगत नियमों पर आधारित गूढ़ विज्ञान जिसे ऋषियों ने जाना व्यवहार में उतारा तथा योगाभ्यास प्रक्रिया द्वारा क्रियान्वित कर स्वयं को प्राण ऊर्जा से सम्पन्न अतीन्द्रिय सामर्थ्यों से भरापूरा बनाया था। यह राजमार्ग सबके लिये खुला पड़ा है।


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