सामयिक समस्याओं का चिरस्थायी समाधान

December 1982

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पदार्थ दृश्यमान होने, शरीरगत सुविधाओं को बढ़ाने, तथा इन्द्रियों को गुदगुदाने की क्षमता से सम्पन्न होने के कारण इन दिनों सभी को प्रिय लगता है। इतना ही नहीं वह अभिरुचि का केन्द्र, आकाँक्षा का इष्ट, जीवन का आराध्य तक बन गया है। सभी उसी के पीछे पड़े हैं। उसी को अर्जित करने में सभी का प्रयत्न और कौशल नियोजित है। विज्ञान का तो विषय ही वह है जो प्रत्यक्ष है वही उपकरणों की पकड़ में आता है तथाकथित प्रगति की धुरी साधनों के इर्द−गिर्द ही परिभ्रमण करती रही है। फलतः शोध अनुसन्धान के नाम पर उसी क्षेत्र की खोजबीन होती रहा है। सुविधा सम्वर्धन में सफलता पाने के कारण उसे श्रेय भी मिलता है और पुरस्कृत भी किया गया है। प्रगतिशीलता और बुद्धिमत्ता इन दिनों प्रत्यक्षवादी सफलताओं की ही चेरी बनकर रह रही है।

पराक्रम हर क्षेत्र को चमत्कृत करता है और उपलब्धियाँ प्रस्तुत करने में समर्थ होने के कारण सराहा भी जाता है। इस दृष्टि से विज्ञान द्वारा पदार्थ क्षेत्र में किये गये पुरुषार्थ का भी अभिनन्दन होना स्वाभाविक है। इस प्रसन्नता की घड़ी में चिन्ता को बात एक ही रह गई है कि अंकुश के अभाव में समृद्धि के मनोन्मत्त हाथी को दिशा कौन देगा? लगाम न रहने पर यह घोड़ा मालिक को न जाने कहाँ ले पहुँचेगा? नकेल हाथ में न हो तो ऊँट क्या दिशा पकड़ बैठे इसका क्या भरोसा? बिना हाथ का बैल गाड़ी की चित्र विचित्र जानकारी द्वारा खेल कौतुक दिखाये जाने की बात तभी बनती है जब रिंग मास्टर हाथ में हण्टर लिये उन्हें धमकाता और संकेत देता रहे। वह न रहे तो फिर सरकस के दर्शकों की सुरक्षा ईश्वर के हाथ में ही रह जायगी।

पदार्थ दुधारी तलवार है। उसकी उपयोगिता तभी है जब उसके प्रयोग में औचित्य, और अनुशासन का समुचित समावेश रहे अन्यथा सम्पन्नता, विपन्नता से भी भारी और महंगी पड़ती है। अशिक्षित, अभावग्रस्त तथा पिछड़े समझे जाने वाले किसी के लिए विपत्ति का कारण नहीं बनते। पर बुद्धिमानों, धनवानों, सत्ताधारियों, कलाकारों ने अपनी समर्थता का दुरुपयोग करके धन साधारण को जो हानि पहुँचाई है उसका लेखा−जोखा सामने रखने पर आँखों के सामने अँधेरा छाता है। विज्ञान ने जिन प्रलयंकर आयुधों का निर्माण करके उद्धतों के हाथ में सौंप दिया है उसे देखते हुए मानवी अस्तित्व ही आतंकित, आशंकित हो रहा है। मासूम बच्चे तक यह कह सकते हैं कि भगवान इस प्रगति को धरती पर से उठालें। हम सब उस पिछड़ेपन के बीच ही गुजारा कर लेंगे जिसमें रोज कुआं खोदना और रोज पानी पीना पड़ता था। दुर्व्यसनों, अनाचारों, अपराधों का घटाटोप समर्थता और सम्पन्नता के सहारे दैत्य दानव की तरह बढ़ा है। कुचक्रों, षड़यंत्रों, को छल प्रपंचों की करतूतें दिनोंदिन गगनचुम्बी बनती चली जा रही है। यह बुद्धिमत्ता की ही देन है। यदि सम्पन्नता, बुद्धिमत्ता, समर्थता, कुशलता की भर्त्सना करने को जी न कहे तो फिर उस उच्छृंखलता को आड़े हाथों लेना पड़ेगा जिसने अमृत को विष बनाकर रख दिया। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि समर्थता तो बढ़े पर उस पर सदुपयोग का अंकुश भी रहे।

विचारणीय यह है कि मनुष्य को स्वतन्त्रता और समर्थता पर अंकुश कौन लगाये? कैसे लगाये? प्रत्यक्ष है कि बाहरी रोकथाम इस संदर्भ में असफल न सही दुर्बल और उपहासास्पद भर रही है। कानून, पुलिस, कचहरी जेल का अंकुश अपराधों की रोकथाम कर सकने में इतना दीन दुर्बल सिद्ध हुआ है कि इसके खर्चीले ढाँचे ढकोसले पर दया आती है। रिश्वत लेने और देने वाले के विरुद्ध कानून है। दहेज और छुआछूत को अपराधों में गिरा और दण्डनीय ठहराया गया है। व्यभिचार के विरुद्ध कड़े कानून है। कोई भी कुकृत्य ऐसा नहीं है जिसके विरुद्ध दण्ड विधान न हो। न्यायाधीशों की नियुक्ति इसी निमित्त होती है। पुलिस यही देखभाल तो करती है। बन्दीगृहों की इमारतें तो इसी रोकथाम के लिए तो खड़ी है। इस सरंजाम की आवश्यकता को उपयोगी मानते हुए भी, जब यह पर्यवेक्षण होता है कि अपराधों के विस्तार में इस प्रतिबन्ध से कितनी रोकथाम हुई तो निराशा भरी गहरी साँस लेते हुए सफलता को नगण्य और असफलता की बहुलता को स्वीकार करना पड़ता है। आज का मनुष्य इतना चतुर है कि वह किसी को भी चकमा दे सकता है। अपने आपको भी, ईश्वर को भी, समाज को भी। फिर शासन के नियन्त्रण तन्त्र की तो बिसात ही क्या है जो अपनी ढीली पकड़ से अनाचार को शिकँजे में कस सके। नीति मर्यादा के निर्वाह बिना—समाज का व्यवस्थाक्रम कैसे चले? अनाचार वे घुटन भरे वातावरण में कोई भला मानस भी कहाँ तक साँस रोके खड़ा रहे? तूफानी प्रवाह में किसी हलके−फुलके के पैर कब तक टिके रहें?

व्यक्ति के दृष्टिकोण में निकृष्टता−स्वभाव में भ्रष्टता और आचरण में दुष्टता का अनुपात बढ़ेगा तो फिर निजी जीवन तथा सामाजिक प्रचलन में शालीनता सुव्यवस्था का स्थिर रहना कठिन है। इस कठिनाई के रहते सर्वत्र सुन्द−उपसुन्द की तरह सहोदर भाई भी प्राणघातक आक्रमण करते दृष्टिगोचर होंगे। सगर पुत्रों की उद्दण्डता सर्वविदित है और उसका परिणाम भी किसी से छिपा नहीं है। कृष्ण के वंश गोत्र वाले परस्पर लड़−मरकर ही समाप्त हो गये थे। अब किसी देश, गाँव, वंश, वर्ग का सवाल नहीं रहा। ‘प्रगति’ की तूफानी गतिशीलता ने मनुष्य समाज में मत्स्य न्याय को —जंगल के कानून को—”जिसकी लाठी उसकी भैंस” को मानवी रीति−नीति का अंग बनाने का विधिवत् अभियान छेड़ा है। नीत्सेवाद, कामूवाद, स्वेच्छावाद, अवज्ञावाद उपयोगितावाद जैसे कितने ही दर्शन इस बात का खुला प्रतिपादन करते हैं कि नीति मर्यादाओं का धर्म सदाचार का जो झीना पुराना लबादा बच रहा है उसे भी उतार कर कचरे के ढेर में फेंक दिया जाय। आचरण के क्षेत्र में तो आस्तिक तक नास्तिकों की तुलना में बुरे सिद्ध हो रहे हैं, धर्मात्मा की तुलना में वे कहीं अच्छे सिद्ध हो रहे हैं जो अपने को धार्मिकता का पक्षधर तो नहीं कहते किन्तु भले मनुष्यों जैसा जीवन जीते हैं।

यों धरती पर खंभ तो लगे नहीं हैं। सदा न तो सब लोग भले ही होते हैं और न बुरे ही। दोनों का अस्तित्व किसी न किसी रूप में हर स्थान पर हर क्षेत्र में पाया जाता है। प्रश्न बहुलता का है। इन दिनों मनुष्य जहाँ साधनों की दृष्टि से सम्पन्न होता जा रहा है वहाँ उसका दृष्टिकोण, स्वभाव, चरित्र एवं लक्ष्य क्रमशः अधिकाधिक पतनोन्मुख ही बनता जा रहा है। इस प्रवाह की परिणति भी प्रत्यक्ष है। साधनों की बहुलता होते हुए भी व्यक्ति गत और सामूहिक जीवन में विपन्नता ही द्रुतगति से बढ़ती चली जा रही है। दुर्बलता, रुग्णता, चिन्ता, उद्विग्नता, तंगी, असुरक्षा आशंका से जितना आतंकित मनुष्य आज है, उतना कदाचित इससे पूर्व कभी भी न रहा होगा। बाहर का ढकोसला और भीतर का खोखला किस प्रकार अपना तालमेल बिठा सकते हैं यह विडम्बना देखते ही बनती है। बात बढ़ती जा रही है। आपाधापी, निष्ठुरता और आक्रामकता की बढ़ती हुई दुष्प्रवृत्तियाँ, लगता है कहीं मानवी अस्तित्व और विश्व सौंदर्य को ही न निगल बैठें।

एक ओर वैभव, दूसरी ओर विनाश। दोनों के मध्य सामान्य बुद्धि के द्वारा कोई कड़ी नहीं जुड़ती। यह पहेली उलटी सीधी सहज ही सुलझने वाली भी नहीं है। विसंगतियों के मध्यवर्ती सूत्रों को जोड़ने के लिए मानवी प्रकृति के मर्मस्थल तक पहुँचना होगा और समझना होगा कि व्यक्ति की मूलभूत सत्ता उसकी आस्थाओं पर अवलम्बित है। विशेषतः मानवी गरिमा जिसे प्रकारान्तर से दूरदर्शी विवेकशीलता, चरित्र निष्ठा, उदार सहकारिता आदि नामों से पुकारा जाता है, मानवी व्यक्तित्व ही धुरी है। उसी का स्तर गिरने या उठने से मनुष्य भला−बुरा सोचता और बनता है। इस मर्म स्थल तक पहुँचने की सामर्थ्य उन साधनों में भी नहीं है जिनके आधार पर सामान्य जानकारियों का आदान−प्रदान होता रहता है। नीति धर्म—सदाचार की शिक्षा देने वालों की कहीं कोई कमी नहीं। इस संदर्भ में भाषणों और पुस्तकों की भी कमी नहीं। उतने पर भी उन्हें ध्यान से पढ़ने और श्रद्धा पूर्वक अपनाने वाली पृष्ठभूमि ही नहीं है जो उन परामर्शों पर गौर करे और अपनाने के लिए संकल्प भरी श्रद्धा उभारे। इसमें दोष न प्रचार मन्त्र का है और न निरोधक विधि व्यवस्था का। दुर्बलता उस आस्था अन्तराल की है जो तत्व दर्शन और साधना प्रयोग का खाद पानी न मिलने के कारण अपनी उर्वरता गँवा बैठी और मरुस्थल जैसा अनगढ़ और श्मशान जैसा वीभत्स बनकर रह रही है।

आस्थाएँ क्षेत्र को सुधारने, सँभालने और संजोने की जिम्मेदारी एक मात्र जिस विधि व्यवस्था के ऊपर निर्भर है, उसी को अध्यात्म कहा गया है। यह आस्था प्रधान होने से उसी स्तर की है जो सहगामी को विकृतियाँ से उबार सके। दल−दल में फँसे हाथी को प्रशिक्षित हाथी ही जंजीर से जकड़ कर किनारे तक घसीट लाने में सफल होते हैं। काँटे से काँटा निकलता है। विष से विष मरता है। लाठी को रोकने के लिए लाठी और घूंसे को प्रत्युत्तर देने से ही बन पड़ता है। मानवी आस्था संस्थान को अवाँछनीयता से विरत करके और शालीनता का पक्षधर बनाने के लिए अध्यात्म विज्ञान में सन्निहित क्रिया प्रक्रिया का अवलम्बन ही एक मात्र उपाय है।

प्रवलित अध्यात्म का स्वरूप अलंकारिता ने कुछ का कुछ कर दिया है। प्रतीकों का अवलम्बन सीढ़ी के सहारे ऊपर तक चढ़ने जैसा होना था पर वे भ्रान्तिग्रस्त होकर साध्य बन गये हैं। इष्ट कहते हैं जीवन लक्ष्य को। अब उस स्थान पर सस्ते मनुहार को बाँटते असंगत मनोकामना पूरी करने वाले देवी देवता आ विराजे हैं। आत्म परिशोधन के स्थान पर देवता को फुसलाने और उससे उचित अनुचित मनोकामना पूरी करा लेने भर का बाल−विनोद आडम्बरों से लद कर बैठ गया है। यह विडम्बना कितनी ही बड़ी क्यों न हो, उसे अध्यात्म विज्ञान की मान्यता नहीं मिल सकती। तमिस्रा कितनी ही सघन या व्यापक क्यों न हो, ऊषा के मुस्काने भर से उसके पैर उखड़ जाते हैं और अरुणोदय होने पर तो उसका अता−पता भी नहीं मिलता। इन दिनों जादूगरी और ब्रह्म विद्या का एक ही अर्थ बनकर रह गया है। चमत्कार कौतूहल देखने दिखाने वाले धूर्तों और मूर्खों का उस खुली बारादरी में जमघट लगा रहता है पर यह कोई वास्तविकता थोड़ी है। इसे अधिक से अधिक प्रवंचना का प्रपंच भर कह सकते है। अध्यात्म विज्ञान इससे ऊँचा है। वह सुनिश्चित यथार्थता पर अवलम्बित होने के कारण प्रत्यक्ष भी है और तर्क, तथ्य, प्रमाणों पर पूर्णतया आधारित भी।

मनुष्य की दूरदर्शी विवेकशीलता को जगाया जाना आवश्यक है। उसे अपनी गौरव गरिमा का बोध होना चाहिए। साथ ही आस्था क्षेत्र के उस विभूति भण्डार का भी ज्ञान होना चाहिए, जहाँ से मनुष्य में देवत्व का उदय होता है और उतना बन पड़ने पर सर्वत्र ऐसा वातावरण उमड़ पड़ता है जिसे धरती पर स्वर्ग का अवतरण कहा और अनुभव किया जा सके।

न केवल नीति, धर्म सदाचार के संदर्भ में मनुष्य को अध्यात्म विज्ञान का अवलम्बन उच्चस्तरीय स्तर तक पहुँचा सकता है वरन् उसे विवेक दृष्टि तथा साहसिकता भी प्रदान कर सकता है जिसके सहारे व्यक्तित्व में सन्निहित अनेकानेक प्रतिभाओं को भी प्रखर परिष्कृत किया जा सके। जड़ पदार्थ को भौतिक विज्ञान ने अनगढ़ स्थिति से अविज्ञात के गर्त्त से उबारा और मानवी सुविधा सम्पादन की दृष्टि से असाधारण रूप से उपयोगी बनाया है। उसके प्रतिपक्षी या सहयोगी —अध्यात्म विज्ञान को भी प्राचीन काल की तरह इन दिनों अपनी वरिष्ठता सिद्ध करनी है और सिद्ध करना है कि व्यक्तित्व को प्रखर बनाने—स्तर की दृष्टि से असाधारण रूप से समुन्नत बनाने की क्षमता उसमें विद्यमान है।

अध्यात्म एक बड़ी शक्ति है। विज्ञान से भी बड़ी। विज्ञान मात्र सुविधा सम्वर्धन में समर्थ है जबकि अध्यात्म व्यक्ति के अन्तराल में ऐसे तत्वों की प्रतिष्ठापना कर सकने में समर्थ होता है जिसके सहारे विकृतियों के माहौल से लड़ सकना और उन्हें पूरी तरह निरस्त कर सकना सम्भव हो सके। सामयिक विकृतियों, समस्याओं, और विभीषिकाओं के समाधान में उसका अनुपम योगदान हो सकता है। साथ ही उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना का सबसे बड़ा आधार भी उसी के सहारे खड़ा हो सकता है। स्मरण रहे साधनों की बहुलता से नहीं व्यक्तित्वों की पवित्रता और प्रखरता से ही वह माहौल बनेगा जिससे सर्वतोमुखी प्रगति और समृद्धि का विस्तार स्वल्प साधनों के सहारे सम्भव हो सके।


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