काया पर इच्छा शक्ति का समग्र नियन्त्रण कितना उपयोगी एवं कितना महत्वपूर्ण है इसका अनुभव तब होता है जब इस आधार पर उपार्जित की गई क्षमता को अतिरिक्त क्षमता सम्पादन के रूप में हस्तगत किया जाता है। सर्वविदित है कि सामर्थ्य के बदले ही सुविधा साधन खरीदे जाते हैं। सामर्थ्य के नाम पर मनुष्य में समर्पित शरीर बल और बुद्धिबल ही अनुभव में आता और प्रयुक्त होता है। इन दोनों क्षेत्रों की व्यापकता असीम है। उस पर जितना नियन्त्रण हस्तगत होता है उतनी ही विशिष्ट क्षमता का वैभव मनुष्य को ऐश्वर्यवान बनाता जाता है। इस आधार पर वह चाहे तो ऐसे काम कर सकता है जैसे कि सामान्य लोगों के लिए अशक्य ही समझे जाते हैं।
इस स्तर की सफलताएँ न कठिन है न दुस्तर। अनवरत प्रयत्न करने पर कोई भी धैर्यवान साहसी उन्हें उपलब्ध कर सकता है। ऐसा होते देखा भी गया है। कई व्यक्ति यों में इस स्तर की दिव्य क्षमताएँ पूर्व संचित भी होती हैं। वे अनायास भी जग जाती हैं अथवा थोड़े से प्रयत्न से इतनी बड़ी सफलता सामने ला खड़ी करती हैं कि देखने वाले आश्चर्यचकित रह जाते हैं।
एजली इटली के मोची का लड़का था किन्तु घर से भागकर वह किसी जहाज कम्पनी में नौकर हो गया। जहाँ वह तैरना सीख गया। इसी एजली के कारनामे ऐसे रहे कि कोई भी अमेरिका का ऐसा अखबार अछूता न रहा, जिसने उसके करतब न छापे हों। एजली तैराकी में इतना सिद्ध हो गया कि उसे ‘मैन ऑफ कार्क’ के नाम से पुकारा जाने लगा। घन्टों पानी में रहना, पर बिना हाथ पैर हिलाए, तैरते रहना, हाथ पैर कुर्सी से बाँधकर समुद्र में फेंका जाने पर भी कुछ न होना—अपने आप में विलक्षण है। मनोपत्थर लोहा बाँधकर उसे पानी में फेंका गया किन्तु एजली मजे में तैरता रहा, डुबा नहीं। पन्द्रह−पन्द्रह घण्टे तैरते रहकर एजली ने बता दिया कि वह कोई विलक्षण मनुष्य है सामान्य नहीं।
क्यूबा में रहने वाला सेनर एवेलिनो पेरेज नामक व्यक्ति की यह विशेषता थी कि वह अपनी इच्छानुसार अपनी एक आँख या एक साथ दोनों आँखों की पुतलियों को कोटर से दो इंच बाहर निकालकर आपस यथास्थान बैठा लेता था और देखने की शक्ति में किसी तरह का दबाव भी नहीं पड़ता था।
केन्या के सम्बरु नामक व्यक्ति 28 वर्ष का था, तब उसने यह प्रतिज्ञा की थी कि खाना−पीना, टट्टी−पेशाब सब खड़े ही खड़े किया जाय। अब तक उसे 30 वर्ष हो गये और सचमुच में वह जिन्दगी भर कभी बैठा नहीं। लेटने या खड़े रहने की प्रतिज्ञा मृत्यु पर्यन्त निबाहने की अब उसकी सामान्य आदत बन गई है। जबकि सामान्य व्यक्ति यों के लिये उसकी चर्चा भी कम विस्मयकारक नहीं होगी।
फ्रांस के सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेता पितरी मिसी में जहाँ अभिनय सम्बन्धी अनेक विशेषतायें थीं वहाँ उसमें कई अभूतपूर्व चमत्कारिक विशेषतायें भी थीं। वह अपनी इच्छानुसार ही शरीर के किसी भी हिस्से का कोई भी बाल हिला सकता था। बाल की नोक को खड़ा कर सकता था उन्हें पानी और आँधी के कारण गिरी हुई फसल की तरह लिटा सकता था, इतना ही नहीं कोमल सपाट बालों को को वह जब चाहे अपनी इच्छा शक्ति द्वारा ही घुँघराले बना सकता था।
साम्राज्ञी मेरी लुईस अपनी इच्छानुसार अपने कानों को बिना हाथ से छुये किसी भी दिशा में मोड़ सकती थी और आगे पीछे हिला सकती थी।
एक फ्राँसीसी अभिनेता अपनी इच्छानुसार अपने बालों को घुमा सकता था। बालों को गिराने उठाने और घुँघराले बनाने की क्रिया इच्छानुसार कर सकने की उस अद्भुत क्षमता का प्रदर्शन करके वह धन भी कमाता था। एक बाल को घुँघराला और ठीक उसी की बगल में उगे हुए दूसरे बाल को चपटा कर देना इसका अति आश्चर्यजनक करतब था। डॉक्टरों ने उसका परीक्षण किया और प्रो.आगस्ट कैवेनीज ने बताया कि उसने शिर त्वचा की माँस पेशियों तथा तन्तुओं को अपनी इच्छा शक्ति के आधार पर असाधारण रूप से विकसित और सम्वेदनशील कर लिया है।
घटना सन् 1908 की है। सर कार्नरोंश को हाउस ऑफ कमेन्स में विरोधी दल के विरुद्ध मतदान में भाग लेने जाना आवश्यक था किन्तु अस्पताल के डॉक्टरों ने बीमारी की गम्भीरता को देखते हुए उन्हें जाने की अनुमति नहीं दी अतः हार्दिक आकाँक्षा रहते हुए भी कार्नराँश को नहीं जाने दिया। किन्तु हाउस ऑफ लार्ड्स के सदन में कितने ही सहयोगी सदस्यों ने देखा कि अपनी सीट पर बैठे कार्नराँश मतदान कर रहे हैं उनका मत गिना भी गया। दूसरी ओर एक डॉक्टर का ही नहीं पूरी टीम का कहना है कि कार्नराँश बिस्तर से हिलने लायक ही नहीं थे। उठना, जाना तो बहुत दूर की बात है।
स्वामी विवेकानन्द ने बिना अन्न, जल के मुद्दतों से जीवित “पौहारी बाबा” का विवरण प्रकाशित किया था। आज भी कई हठयोगी समाधि लेकर गुफा में बन्द हो जाते हैं और लम्बी अवधि तक बिना अन्न, जल एवं हवा के जीवित रहते हैं। जिस स्थिति में बैठे थे उसी में बने रहते हैं। मल−मूत्र विसर्जन करने एवं सोने उठने की उन्हें कुछ भी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। कितने ही हठयोगी रक्त संचार एवं हृदय की धड़कन बन्द करके भी जीवित रहने के प्रमाण विशेषज्ञों के परीक्षण के साथ दे चुके हैं। सामान्य मनुष्य जीवन में कई गुनी अधिक आयु वाले तथा असह्य शीत में निर्द्वन्द्व निवास करने वाले योगी अभी भी विद्यमान हैं।
काशी के प्रसिद्ध सिद्धयोगी स्वामी विशुद्धानन्द ने एक बार अपनी इच्छा−शक्ति का प्रदर्शन यों किया—”अपने शिष्यों को अपनी−अपनी मुट्ठी में इच्छित वस्तु के आ जाने की इच्छा करने को कहा। शिष्यों ने वैसा किया परन्तु कोई वस्तु नहीं आई। तब उन्होंने कहा अभी केवल तुम्हारी इच्छा ही थी अब में शक्ति का संचार करता हूँ। इस बार सभी शिष्यों की छुट्टियों में उनकी इच्छित वस्तु आ गई थी। स्वामीजी ने बताया कि वह मात्र संकल्प शक्ति की सिद्धि है जो हर व्यक्ति सामान्य क्रम में अर्जित कर सकता है। उसमें गुह्य या रहस्य जैसी कोई बात नहीं।”
स्वामी विशुद्धानन्द जी के बारे में कहा जाता है कि वे हाथ रगड़ कर मन चाहे पुष्पों की सुगन्ध उत्पन्न कर देते थे। अनेक शिष्यों द्वारा अनेक प्रकार की सुगंधियों की फरमाइश करना और तत्काल वैसी ही उत्पन्न हो जाना कम आश्चर्यजनक नहीं था। एक वस्तु को दूसरे रूप में परिवर्तित करने की विद्या को वे सूर्य विद्या बताते थे उन्होंने उसे प्रामाणित भी किया था। उनने एक फूल उठाया और उसकी प्रत्येक पंखुड़ी से एक−एक अलग फूल उत्पन्न कर दिया। रुई के टुकड़े को सफेद से लाल रंग का और फिर पत्थर जैसा कठोर बना दिया। खजूर के हरे भरे पत्ते को उन्होंने पत्थर जैसा बना दिया। स्वामी जी का कहना था कि कोई जादू नहीं विशुद्ध विज्ञान है। सूर्य की सूक्ष्म शक्ति के साथ यदि साधना द्वारा संपर्क बना लिया जाय तो उसके सहारे प्रकृति के पदार्थों में हेर−फेर करने की विद्या करतलगत हो सकती है।
पाओसा से सेण्ट फ्रांसिस रात्रि में प्रार्थना के समय आकाश में उठ जाते थे। नेप्ल्स के राजा ने एक बार उन्हें अपने यहाँ आमन्त्रित किया। रात्रि को राजा ने दरवाजे के छेद से देखा तो आश्चर्यचकित रह गये। सेण्ट फ्रांसिस प्रार्थना कर रहे थे और एक प्रकाश पुँज उन्हें घेरे हुए था एवं शरीर मेज से कई फुट ऊँचा आकाश में अवस्थित था।
दाराशिकोह ने “औलियों के जीवन− वृतान्त” में मियाँ मीर की अलौकिक सिद्धियों के बारे में उल्लेख करते हुए लिखा है कि वे कभी−कभी लाहौर से आकाश मार्ग द्वारा ‘हजाद’ जाते थे। रात्रि व्यतीत करके पुनः सूर्योदय से पूर्व ही लाहौर वापस लौट आते थे। शेख अब्दुल कादिर एक बार व्याख्यान करते समय अचानक शून्य में ऊपर उठ गए। व्याख्यान में उपस्थित हजारों लोगों ने इस घटना को देखा। ऊपर कुछ देर ठहरने के बाद पुनः अपने स्थान पर आ विराजे। इस आकस्मिक घटना का स्पष्टीकरण उन्होंने स्वयं देते हुए कहा—”मुझे अचानक सन्त ‘खिदिर’ जाते दिखाई दिये। आकाश मार्ग में जाकर उन्हें अभिवादन करके व्याख्यान सुनने के लिए आमन्त्रित किया।”
फ्राँस में प्रथम विश्व युद्ध के बाद जूल्स रोमैन ने सैकड़ों अन्धे व्यक्ति यों पर दृष्टि सम्बन्धी, प्रयोग−परीक्षण किये तो पाया कि उनमें से कुछ अन्धकार और प्रकाश की उपस्थिति का अत्यन्त दक्षतापूर्वक बता सकने में समर्थ थे।
इटली में एक ऐसी अन्धी लड़की थी जो अपने नासाग्र एवं बाह्य कर्ण (पिन्ना) से देख सकती थी। जब अचानक कोई तेज रोशनी उसकी नाक अथवा कान पर डाली जाती तो वह चौंक उठती थी।
1956 में स्काटलैंड में एक इसी प्रकार के अन्धे स्कूली छात्र का पता चला जो विभिन्न प्रकार के रंगीन प्रकाशों में विभेद कर सकने में निष्णात था। साथ ही कुछ फुट की दूरी पर स्थित अनेक वस्तुओं में से सबसे चमकीली वस्तु के बारे में बताने की क्षमता थी।
सन् 1960 में वर्जीनिया की लड़की पर, जो कि अतीन्द्रिय दृष्टि से सम्पन्न समझी जाती थी, वहाँ के एक विशेष मेडिकल बोर्ड ने सच्चाई जानने के लिए अनेक प्रयोग किये। उसकी आँखों में मोटी पट्टी बाँध दी गई, किन्तु फिर भी वह देखने में सक्षम समर्थ रही और किताबों को पढ़ भी सकी।
लुईविले (फ्राँस) की एक 12 वर्षीय लड़की थी एन्नेट फ्रेलाम। इस अद्भुत लड़की ने भारतीय योगियों जैसी अद्भुत पराशक्ति प्राप्त की थी। उसने अधिकाँश मौन रहने का नियम बनाया था, कभी बोलती भी तो अत्यन्त सारगर्भित संक्षिप्त और आवश्यकता से अधिक नहीं। वह कहा करती थी कि मनुष्य के बोलने का जितना प्रभाव होता है उससे अधिक प्रभाव उसके गहरे विचारों का होता है। वह इस तथ्य को प्रत्यक्ष प्रामाणित भी करती थी। कभी कोई व्यक्ति प्रश्न पूछता तो वह एकाग्र चित्त को हो जाती फिर जो पूछा जाता उसका उत्तर उभरे लाल बड़े−बड़े अक्षरों में उसकी बाँहों में, पैरों में तथा कन्धों में लिख जाता। इच्छा शक्ति से उत्पन्न यह लेखन कुछ देर दृष्टव्य रहते। धीरे−धीरे बिना कोई छाप छोड़े ही गायब हो जाते।
13 वर्षीय ‘लू विन्ग‘ ने केन्द्रीय चीन के ‘वुहन’ में सिद्ध करके दिखाया कि वह लिखावट को कान से पढ़ सकती है। एक कागज जिस पर वह बिना देखे बैठा था जो लिखा था उसे उसने कान के पढ़ दिया। चीनी पत्रकारों ने ऐसे ही बीस विचित्र स्थितियों का अध्ययन किया है। शिंशून प्रान्त में पहली घटना पायी गयी। जहाँ के बच्चे कान, नाक, हाथ, पैर, पेट अथवा आँख द्वारा पढ़ लेते थे।
कुछ समय पूर्व न्यू बिन्द्रा ने अपनी बहन में यह गुण देखा जब वह प्राथमिकशाला में पढ़ रही थी। लू बिन्ग को “इन्ग“ लिखावट को समझने में 10 मिनट का समय लगा। किया यह गया था कि यह एक कागज नी लिखकर और उसे मोड़कर लू बिन्ग की कान के पास लाया गया था।
फ्राँसीसी परामनोविज्ञान वेत्ता डॉ. पाल गोल्डीन का कहना था—”हमारे पाँच ज्ञानेन्द्रियों की सुनने, बोलने, देखने, सूँघने तथा स्पर्शानुभूति क्षमता से सभी परिचित हैं, पर इनसे भी महत्वपूर्ण एक और शक्ति है−परा चेतना शक्ति, जिसे छठी इन्द्रिय भी कहा जा सकता है। लोगों का इस अद्भुत किन्तु बलवती सामर्थ्य के बारे में स्वल्प ज्ञान है। किन्हीं−किन्हीं में यह संयोगवश प्रकट होता है परन्तु यह आकस्मिक नहीं है। प्रयत्नपूर्वक उसे अभिवर्द्धित किया जा सकता है एवं उससे लाभ उठाया जा सकता हैं।”
अन्तराल की इन सामर्थ्यों की यदा−कदा झाँकी देखने को मिलती है। सामान्य से व्यक्ति भी असामान्य सामर्थ्यों से भरे−पूरे देखे गये। इसका एक ही अर्थ है कि ये सभी सम्भावनाएँ मानवी अन्तराल में हैं। उन्हें जगाने का प्रयास पुरुषार्थ हर किसी के लिए सम्भव है। कुछ में ये अनायास जग जाती हैं, कालान्तर में समाप्त भी हो जाती हैं। इनसे अचम्भित होने की बजाय, इससे दिशा लेकर यदि अपना आपा और भी अद्भुत आत्मिक विभूतियों से भरा−पूरा बनाया जा सके तो स्वयं को धन्य बनाया जा सकता है।