भारतीय पुराणों में भीम और दुर्योधन, कुम्भकरण और कंस, रावण और बाली−हनुमान और मेघनाद के सुदृढ़ शरीर और वज्र की काया के अनेकों प्रसंग भरे पड़े हैं। किन्तु उन्हें पड़कर ऐसा लगता है कि ये मात्र अतिश्योक्ति और कोरी गप्प है। हाथियों द्वारा रौंदा जाना विष बुझे बाणों का असर न होना क्या रहस्य था। इसके विषय में कोई विज्ञान सम्मत तर्क नहीं मिलता किन्तु इसी शताब्दी के आरम्भ में अमेरिका के एक व्यक्ति रिचर्ड ने यह सिद्ध कर दिया है व वैज्ञानिकों को यह मानने को विवश कर दिया है कि पहले ऐसी सुदृढ़ देह वाले बलशाली योद्धा अवश्य रहे होंगे।
रिचर्ड नामक इस व्यक्ति ने अपनी काया की क्षमता को इतना विकसित कर लिया था कि बड़े से बड़े हथौड़े, भारी वजनी लकड़ी के लट्ठे, हाथी और तोप के गोले, उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते थे। न्यूयार्क टाइम्स के सुर्खी भरे समाचारों में रिचर्ड के प्रदर्शन का विवरण प्रकाशित हुआ था। उसमें बताया गया कि 64 वर्षीय रिचर्ड, जो अच्छा खासा लम्बा, चौड़ा मजबूत था, का पन्द्रह फुट लम्बी और 1 फीट मोटी लकड़ी पेट पर दे मारने पर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकी। सेन फ्रांसिस्को के 6 भारी भरकम पहलवान घूँसे मारते थक गये किन्तु रिचर्ड ऐसे बैठा रहा जैसे उसकी मालिश की जा रही हो अथवा सहलाया जा रहा हो। 1964 में 100 पौण्ड वजन तक के गोले को उठाने का उसे अभ्यास था। 1966 में उसने एक प्रदर्शन में तोप के मुंहाने के सामने खड़े होकर 150 पौण्ड वजन का गोला दगवाया। रिचर्ड अविचलित खड़ा रहा और टेबलटेनिस की गेंद की तरह गोला टकराया और छिटक कर अलग जा गिरा। इस प्रकार रिचर्ड को “इस्पात” का आदमी कहा जाने लगा। रिचर्ड को यह विद्या कहाँ से हाथ लगी। इसके उत्तर में उसने कहा कि वह बचपन में सन् 1924−25 में हरिद्वार, ऋषिकेश, प्रयाग, और वाराणसी गया जहाँ भारतीय योगियों ने उसे योग साधना बताई जिसके अभ्यास से यह चमत्कारी परिणाम में सब देख सके हैं।
पोर्टलैण्ड (ओरक्न) की 8 वर्षीय सड़क पर खेल रही थी, खेल में वह इतनी मस्त थी कि उसे पता भी न चला कि उधर से सड़क पीटने वाला इंजन दौड़ा आ रहा है। वह गिर पड़ी। 3 टन वजन का रोलर पहिया उसके पैरों से निकल गया। इंजन आगे बढ़कर रुक गया। ड्राइवर यह देखकर गया। ड्राइवर यह देखकर भौंचक्का रह गया कि वह लड़की उठकर खड़ी हो गई है और जिस लड़के के साथ खेल रही थी, उसे पकड़कर खिलखिलाकर हँस रही है, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
शून्य डिग्री से. ग्रे. तापमान पर कोई व्यक्ति 10 मिनट से अधिक नहीं ठहर सकता किन्तु मेजर डोनगैल्ड एक घण्टे तक नंगे बदन, बर्फ के शिला खण्डों पर लेटे रहे और बाद में कपड़े पहनकर चलते बने।
शरीर में इतना लचीलापन है कि वह किसी भी दबाव को सहन कर सकता है। किसी भी ढाँचे में ढल सकता है। किसी भी प्रतिकूलता के लिए अभ्यस्त बनाया जा सकता है। गर्भाशय मूलतः बहुत छोटा होता है, पर परिपक्व भ्रूण को धारण करते समय वह अपने मूल आकार की तुलना में पचास गुना बढ़ चुका होता है। पेट में उतना ही स्थान है जितने में कि स्थापित अवयव अपनी−अपनी गतिविधियाँ चला सके और सिकुड़ बटुरकर यथाक्रम बैठे रह सकें। किन्तु जब गर्भ बढ़ता है तो आँतें आमाशय आदि कम स्थान में गुजारा करते हैं और भ्रूण के लिए पर्याप्त जगह देकर भी अपनी गतिविधियों में कमी नहीं आने देते। समूचे शरीर के सम्बन्ध में यही बात लागू होती है। उसका कोई भी अवयव अभ्यास से अपनी सामान्य क्षमता से कई गुने पराक्रम का बिना किसी कठिनाई के देखा जा सकता है। सन् 1902 में बंगाल के एक साधु अगस्तिया ने हठयोग की एक प्रतिज्ञा की। प्रतिज्ञा यह थी कि वह लगातार 10 वर्ष तक अपना बाँया हाथ उठाये ही रहेगा कभी नीचे नहीं गिरायेगा। और सचमुच ही वह लगातार 10 वर्षों तक बिना हिलाये हाथ ऊँचा किये रहे। इस बीच एक चिड़िया ने समझा यह किसी पेड़ की टहनी है सो उसने बड़े मजे के साथ योगी के उठाये हुए हाथ की हथेली पर घोंसला बना लिया और उस पर अण्डे भी दे दिये।
मैसूर क्षेत्र के दक्षिण कनारा जिले का निवासी चालीस वर्षीय बेनारी वेंकट रामन कुछ समय पूर्व एक विचित्र प्रदर्शन के लिए प्रसिद्ध था। उसने अपनी दाढ़ी में मधुमक्खियों का छत्ता जमा रखा था। उसमें मक्खियाँ भली प्रकार जीवन निर्वाह करती थीं।
सरर्सोजम—अफ्रीका के हब्शियों में अपने ओठ बढ़ाने की प्रथा है इसके लिये वे लकड़ी की तश्तरियाँ बनाकर उनसे ओठों को बाँध देते हैं। ओठ जितना बढ़ते जाते हैं बड़ी तश्तरियाँ बाँध दी जाती हैं और इस प्रकार कई स्त्रियाँ तो अपने ओठ 14-15 इंच अर्थात् सवा फुट व्यास की ढक्कनदार तश्तरी की तरह बढ़ा लेती है।
इसका एक उदाहरण विन्ध्याचल के योगी गणेश गिरि ने प्रस्तुत किया। उन्होंने एक बार अपने होठों के आगे ठण्डे वाले समतल मैदानी हिस्से में थोड़ी गीली मिट्टी रख कर उसमें सरसों बो दिये जब तक सरसों उगकर बड़े नहीं हो गये और उनकी जड़ों ने खाल चीर कर अपना स्थान मजबूत नहीं कर लिया तब तक वे धूप में चित्त लेटे रहे।
“साहिब अल्लाह शाह” नामक लाहौर का एक मुसलमान फकीर 600 पौण्ड से भी अधिक वजन की मोटी लोहे की साँकलें पहने रहता था। वृद्ध हो जाने पर भी अपने अभ्यास के कारण इतना वजन भार नहीं बना। पंजाब में वह “साँकलवाला” और जिंगलिंग के नाम से आज भी याद किया जाता है। उसकी मृत्यु के बाद साँकलों की तौल की गई तो वह 670 पौण्ड निकलीं।
साधारणतया आग अपने संपर्क में आने वाले हर पदार्थ का गरम करती और जलाती है। किन्तु ऐसा भी हो सकता है कि शरीर बड़े तापमान में बिना जले अपनी स्थिति बनाये रह सके। इसी प्रकार जम जाने वाले शीत में भी उसका अस्तित्व लम्बे समय तक बना रहे ऐसी अवरोधक शक्ति का विकास हो सकता है।
दक्षिण जापान के कई बौद्ध मन्दिरों में ऐसे धर्मानुष्ठान होते हैं जिनमें छः फुट लम्बी दहकती हुई कोयलों से सजाई हुई वेदी पर नंगे पैरों चलकर उसे पार करना पड़ता है। पुरोहित आगे चलता है और अनुयायी पीछे। जो लोग इस रास्ते को हँसते हुए पार कर लेते हैं वे सच्चे जैन विश्वासी माने जाते हैं।
ऐसी अग्नि परीक्षा मलेशिया के कई क्षेत्रों में धर्मानुष्ठानों के रूप में प्रचलित है। होली के अवसर पर भारत के कई स्थानों में पुरोहित लोग जलती हुई ऊँची लपटों में होकर नंगे पाँवों और नंगे शरीर पार निकलने का प्रदर्शन करते हैं।
वाली द्वीप में एक धर्मानुष्ठान होता है— सघ यंग। इसमें पुरोहित धधकते अंगारों पर नंगे पैरों झूम–झूमकर नाचते हुए निकलते हैं। साथ में नंगे पैर उसी तरह नंगे पैर कुछ प्रशिक्षित बच्चों की मण्डली भी निकलती है।
24 फरवरी 1978 को उदयपुर (राजस्थान) भारतीय लोक कला मण्डल का समारोह था उसमें एक हठयोगी ने जलती आग में प्रवेश किया और घण्टों नृत्य करता रहा। पेट्रोल छिड़क−छिड़क कर कितनी ही बार आग भड़काई जाती रही योगी का नृत्य चलता ही रहा इस प्रदर्शन से पूर्व योगी के शरीर पर किसी विशेष रासायनिक पदार्थ आदि न होने की आशंका का भली प्रकार निराकरण कर लिया गया था।
कभी−कभी ऐसे प्रदर्शन भी देखे गये हैं जिससे मनुष्य को एक अच्छा−खासा दैत्य कहा जा सके। जादू के हाथ की सफाई—नजरबन्दी के खेलों की चर्चा को बाल विनोद कहा जा सकता है किन्तु असंख्य कुशल परीक्षकों को जाँच की चुनौती देते हुए खुले आम किये जाने वाले परीक्षण जहाँ हो चुकें और दृश्य को किसी प्रकार की जालसाजी न होने की बात जब घोषित की गई तो उन्हें शरीर की विस्मयकारी विलक्षणता ही कहा जायगा।
सन् 1968 में फूजी टेलीविजन कम्पनी जापान के डाइरेर्क्टस भारत आये दिल्ली में उन्हें पता चला कि भारत में एक ऐसा व्यक्ति है जो काँच, लोहा, ताँबा, पिन, कंकड़, पत्थर चाहे जो कुछ खा सकता है तो भी उसकी शारीरिक क्रियाओं में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने उस व्यक्ति को दिल्ली बुलवाया। स्वागत में जहाँ अतिथि स्वादयुक्त भोजन पाते हैं चाय, नाश्ता करते हैं वहाँ इस बेचारों को कीलें, पिनें, टूटे फ्लास्क और काँच के गिलास खाने को दिये गये। उसने वही बड़े प्रेम से खाये और जापानियों को दंग करके रख दिया। जापानी उन्हें साढ़े तीन माह के लिए जापान ले गये उन पर तरह−तरह के प्रयोग किये पर कोई रहस्य न जान सके आखिर इस मनुष्य दैत्य के पेट में क्या है जो वह मोटर ठेले खा जाने तक की क्षमता रखता है।
क्वीवलैण्ड (यू.एस.ए.) के वैज्ञानिक जार्ज कायल ने इस सम्बन्ध में अपना एक शोध प्रबन्ध सन् 1933 में मैन फिश के मूर्धन्य चिकित्सक परिषद् के सम्मुख प्रस्तुत किया था। उसमें उनने कहा था कि आवश्यक नहीं कि आहार मात्र मुँह से ही ग्रहण किया और गले से उतार कर पाचन तन्त्र में पचाया ही जाय। वह माँस द्वारा आकाश में फैली हुई वायुभूत खाद्य सामग्री से भी उपलब्ध किया जा सकता है। जीवन धारण के लिए जिस प्रोटोप्लाज्म की जरूरत है उसे उपलब्ध करने के लिए शरीर में अन्य भी ऐसे छिद्र या चुम्बक केन्द्र हैं जो आहार की पूर्ति प्रचलित चबाने और पचाने की प्रक्रिया की पूर्ति अन्य उपायों से कर सकें।
सन् 1972 में सम्वाददाता निकोलाई स्वितेको के अनुसार खार्कोव की श्रीमती ओल्गा ब्लिज नोवा की 9 वर्षीया पुत्री में विलक्षण सामर्थ्य पाई गई। ‘सोवियत विज्ञान एकादमी’ के समक्ष उसके परीक्षण के प्रयोग किए गए। आँखों पर पट्टी बँधी हुई अवस्था में उसने बिछी हुई शतरंज को काली एवं सफेद गोटों को अलग−अलग छाँटकर रख दिया। रंग–बिरंगे कागजों की कतरनों को रंगों के अनुसार बारी−बारी से छाँटकर अलग कर दिया। परिचित लोगों के फोटो भी पहचान लिए। साथ ही बच्चों की रंग−बिरंगी पुस्तकों को हाथ से छूकर पढ़कर भी सुनाया। इतना ही नहीं 5 सेंटीमीटर दूर रखी चीजों को उसने उँगली के पोरुवों की सहायता से पड़ लिया। कुछ चीजों का सही परिचय तो उसने पैर की उँगलियों से छूकर ही बता दिया।
रूस के वैज्ञानिकों का ध्यान तब से इस दिशा में अधिक गया है और उन्होंने उस सम्बन्ध में लगातार शोध कार्य किया है। मनोविज्ञान शाखा के वरिष्ठ शोधकर्ता प्रो.कोन्स्टाटिन प्लातोनोव ने कहा है—’मानवीय चेतना विद्युत की व्यापकता को देखते हुए इस प्रकार अनुभूति अप्रत्याशित नहीं है। नेत्रों में जो शक्ति काम कर रही है, वही अन्यत्र ज्ञान−तन्तुओं में विद्यमान है, उसे विकसित करने पर मस्तिष्क को वैसी ही जानकारी मिल सकती है जैसी आँखों से मिलती है।’ प्रो. एलेक्जोदर स्मिर्नोव ने कहा है—’यह कोई अलौकिक बात नहीं है, वरन् सामान्य विज्ञान सम्मत सिद्धान्तों का ही एक दिलचस्प प्रतिपादन है। एक अंग की चेतना दूसरे अंगों में भी काम कर सकती है।’
ऐसे पराक्रमी न केवल श्रम शक्ति के क्षेत्र में चमत्कार दिखाते हैं वरन् उतना पुरुषार्थ उपलब्ध करने के लिए आहार भी बड़ी मात्रा में खाते पचाते देखे गये हैं। इसमें उनकी बलिष्ठता का पता चलता है। बड़ी मात्रा में भोजन करना ही नहीं उसे पचा लेना भी उदरदरी की भीतरी समर्थता है। वही जब बाहरी कामों में आती है तो सिद्ध करती है कि न केवल खाने में वरन् करने में भी उसका उतना ही बढ़ा−चढ़ा चमत्कार है। अधिक खाने पचाने को भी यदि एक पुरुषार्थ माना जा सके तो ऐसे उदाहरण भी समय−समय पर दृष्टिगोचर होते रहे हैं। हो सकते हैं।
ग्रीस का क्रोटोना कामिलो नामक पेटू अधिक खा जाने और पचा जाने के लिये प्रसिद्ध था। वह 150 पौण्ड माँस एक दिन में खा जाता था। डेट्रायट निवासी एडिको नामक एक रेलवे मजदूर उसका भी ताऊ निकला। उसने 60 सुअरों के माँस से बनी हुई टिकिया एक दिन में खाकर पचाई। इसके बाद भी उसने कुछ जामुन की कचौड़ियाँ खाकर और दिखाई। उसकी सामान्य खुराक इतनी थी जितनी पाँच व्यक्ति यों के सामान्य परिवार के लिये एक हफ्ते के लिये पर्याप्त होती। उसने शादी इसलिए नहीं की कि जो कमाता था, वह अपने पेट के लिए ही कम पड़ता। घर वालों को क्या खिलाता। वेतन से एडिको का काम न चलता तो उसके मित्र सहायता करते थे ताकि वह भूखा न मरे।
दक्षिण अफ्रीका के केपेटाइन नगर में एक प्रीतिभोज था। भोजन सामग्री तैयारी थी। आगन्तुकों को कौतुक सूझा। प्रसिद्ध पेटू मेलायन लकड़हारे को बुलाया गया और तय हुआ कि पहले उसे भोजन कराया जाय बाद में जो बचे और मेहमान लोग बाँट खायें। मेलायन आया। उसे भरपेट खा लेने की छूट दी गई। सोलह आदमियों के लिए बनाई गई पूरी सामग्री उसने चट करली और तब उठा जब रसोई घर में कुछ शेष नहीं बचा। अतिथियों को दुबारा बनी चाय पीकर भूखे ही वापस लौटना पड़ा।
आहार प्रतिद्वन्दता में उन दिनों फैगोन ने बाजी, मारी। रोम के राजा आकेलियान ने इस सम्बन्ध में एक प्रतियोगिता नियोजित की देखें कौन अधिक खा और पचा सकता है। कितने ही प्रतिद्वन्दी सम्मिलित हुए पर बाजी फैगोन ने ही जीती। जो शास्त्र का ही एक बड़ा अधिकारी था। उसने भरे दरबार में एक पूरा सुअर—एक भेड़ 100 डबल रोटियाँ तथा एक पीपा शराब गले उतार ली। देखभाल रखें जाने पर पाया कि उसने उतना खाया ही नहीं वरन् पचा भी लिया।
शरीर का प्रचलित क्रम एक चिर अभ्यस्त ढर्रे के अनुसार चलता है। आदिम काल से लेकर उसमें अनेक प्रकार के हेर−फेर हुए हैं। फलतः मनुष्य की प्रकृति और जीवन चर्या पद्धति में भारी परिवर्तन होते रहे हैं। कभी कच्चे माँस पर एवं सूखे बीजों पर गुजारा करने वाला मनुष्य अब इस परिपाटी का अभ्यस्त नहीं रहा अब उसका पेट पकाये आहार का अभ्यस्त है। भविष्य में यदि प्रवाह बदले तो सह अभ्यास किसी ऐसी पद्धति को भी अपना सकता है जो इन दिनों असम्भव जैसी प्रतीत होती है।
शरीर की सभी प्रत्यक्ष गतिविधियाँ मन के इशारे पर चलती है। रक्ताभिषरण, श्वास, प्रश्वास, आकुँचन−प्रकुँचन, निमेष, उन्मेष आदि स्वसंचालित समझी जाने वाली गतिविधियाँ भी अचेतन मन की प्रेरणा पर निर्भर हैं। मन और शरीर का वर्तमान तालमेल एक परम्परा के अनुरूप चल रहा है। वह बदली भी जा सकती है। मन का अंकुश यदि अवयवों, जीवकोशों को दूसरे ढाँचे में ढलने के लिए वासित करे तो वे उस निर्देश को पालने से इनकार नहीं कर सकते। शरीरगत परमाणुओं के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों का कहना है कि निर्जीव पदार्थों में पाये जाने वाले अणु परमाणुओं की तरह हठीले नहीं है, वरन् मन के निर्देशन पर चलने वाले—लचीले स्वभाव के हैं। यदि कोई अपने शरीर की वर्तमान प्रचलन से भिन्न प्रकार की प्रक्रिया ढालने के लिए दबाव डाले तो वह उस अनुशासन से सर्वथा इनकार न करेगा। थोड़ी−सी अनुभव के बाद भी उसे स्वीकार कर लेगा।
जीव विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान रिची काल्डर ने इस तथ्य का प्रतिपादन इस तरह किया है—इलेक्ट्रान हमारा दास है, क्योंकि वे मानवीय प्रतिक्रियाओं में अधिक तेजी से चलते हैं, ये मानवीय नेत्र से भी अधिक देख सकते हैं, मानवीय स्पर्श से अधिक हर्ष अनुभव कर सकते हैं। मानवीय कान से अधिक तेज सुन सकते हैं, मस्तिष्क की अपेक्षा शीघ्र और ठीक गिनती कर सकते हैं। हमारे सामने दूर आस्वादन (टेलीगेस्टेशन), दूर श्रवण (टेलीआडीशन) दूर प्राण ग्रहण (टेलीआल्फेक्शन) सुगन्धि पदार्थ जैसी सामर्थ्य भी हैं। वह इन्हीं दास इलेक्ट्रोनों की लीला है। नियन्त्रण मोटरों (सर्वोमोटर) के द्वारा इलेक्ट्रान किसी रोलिंग मिल के हजारों टन इस्पात को पाव भर वजन की तरह उठा देता है, जबकि वह पदार्थगत मन है। इसके सहारे यदि मानव के जीवकोशों में अवस्थित मन (चेतना कणों) की शक्ति का अनुमान लगाए तो वहाँ तक सम्भवतः हमारी बुद्धि न पहुँचे। इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि ऐसी कोई विद्या हो सकती है जिसके द्वारा कोई व्यक्ति अपनी विशेष शक्ति का उपयोग कर अपने आपे को अप्रचलित ढाँचे में ढाल सके और अपने प्रभाव क्षेत्र में भारी उथल−पुथल उत्पन्न कर सके।