युग साधना का अभिनव निर्धारण

December 1982

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पंच तत्वों से शरीर बना है और पंच प्राणों से चेतन। तत्व जड़ है और प्राण चेतन। तत्व प्रत्यक्ष है और प्राण परोक्ष। प्रत्यक्षवादी मान्यताएँ पंच तत्वों के दृश्यमान स्वरूप तक उलझकर रह जाती हैं। उनकी रुचि उन्हीं तक सीमित रहती है। जिन्हें सुविधा भर चाहिए उनका पदार्थ के साथ ही तादात्म्य होना स्वाभाविक है। इन दिनों अपनाये गये उथले दृष्टिकोण ने शोध अनुसंधान का, उपार्जन उपयोग का क्षेत्र पदार्थ तक ही सीमाबद्ध कर लिया है। इस एकाँगी प्रगति का लाभ वैभव की वृद्धि में तो हुआ है, पर उन उपलब्धियों का सदुपयोग निर्देशन कर सकने वाली दूरदर्शी विवेकशीलता के अभाव में अपव्यय ही होता रहा। फलतः प्रगति से अधिक अवगति पल्ले बँधी। इस भूल की जब चौंकाने वाली परिणति सामने आई तब पता चला कि एक टाँग की दौड़ कितनी थकान भरी निराशात्मक और कष्टकारक होती है।

पुरातन काल में तत्वदर्शी महामनीषियों ने चेतना की वरिष्ठता मानी थी और उसके साथ जुड़े हुए पाँच प्राणों को पाँच प्रमुख देवताओं की संज्ञा देकर उनकी साधना में अपना ध्यान और पुरुषार्थ केन्द्रित किया था। निर्वाह की साधन सामग्री की अपेक्षा तो उनने भी नहीं की थी, पर इतना अवश्य ध्यान रखा था कि उचित—आवश्यकता पूर्ति के लिए जितना आवश्यक है उतना ही कमाया, जुटाया जाय। अनावश्यक संचय और उद्धत उपयोग में वैभव सुखद नहीं रहता वरन् बिना पके भोजन की तरह उलटा सिर दर्द बनता है। अकारण भार लादने में उपेक्षा दिखाने पर ही यह बन पड़ा कि अपना ध्यान और पुरुषार्थ अन्तःक्षेत्र की विभूतियाँ अर्जित करने में लगा सके व्यक्तित्व के धनी कभी अभावग्रस्त नहीं रहते, कारण वश कुछ कठिनाइयों का सामना भी करना पड़े तो वे उसका साहसपूर्वक प्रतिकार करते हैं अथवा विवशता होने पर उसे धैर्यपूर्वक हँसते−हँसते सह भी लेते हैं। यही मनोभूमि और दिशाधारा रही है अपने महान पूर्वजों की। फलतः उनने पाया बहुत और गँवाया कम। जब कि आज सब कुछ गँवाया ही गँवाया जा रहा है। पाने के नाम पर तो बाल विनोद के लिए विनिर्मित चमकीले गुब्बारों जैसा ही अधूरा उथला हाथ लग रहा है।

यों अनुसंधान हर क्षेत्र का अपेक्षित हैं, पर भौतिक और आत्मिक क्षेत्रों की कनिष्ठता, वरिष्ठता का पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होता है कि सम्पदाओं की तुलना में विभूतियों का महत्व अत्यधिक है। अन्तःप्रतिभा के आधार पर श्रेय और प्रेय दोनों ही हस्तगत किये जा सकते हैं जबकि पदार्थ सम्पदा विवेक रहित होने पर उलटे विनाश का कारण बनती है। वैसा न हो तो भी वह मन का धन किसी बड़े काम नहीं आता। पेट भरने तन ढकने की तनिक−सी आवश्यकता भर उससे पूरी होती है शेष तो दुर्व्यसनों और कुपात्रों की भेंट चढ़ता है। अविवेकी के पास कुबेर जैसा वैभव हो तो भी वह उसे सत्प्रयोजनों में प्रयुक्त करने का उदारता दिखा नहीं सकेगा। ऐसी दशा में सच्चे अर्थों में बुद्धिमान उन्हीं को कहा जायगा जो गुण, कर्म, स्वभाव की, आत्मिक गौरव गरिमा की, विभूति सम्पदा की उपलब्धि में प्रयत्नरत रहते और कहने योग्य सफलताएँ प्राप्त करते हैं।

चेतना का अपना क्षेत्र है। उसे प्रकृति पक्ष से कम विस्तृत समर्थ, सुखद नहीं कहा जा सकता। अपरिचित के लिए तो हीरा का ढेर भी काँच के टुकड़ों जैसा है पर पारखी जानते हैं कि बहुमूल्य रत्न राशि का हाथ लगना कितना बड़ा सौभाग्य होता है। चेतना उसकी परिधि, एवं विभूति सम्पदा का कोई वारापार नहीं। जिन दिनों चेतना की विशिष्टताएँ खोजने और उन्हें हस्तगत करने के प्रयत्न चलते थे, उन दिनों इस देश के नागरिक हर्षोल्लास भरा जीवन जीते थे। उद्योग और उपार्जन के उतने साधन न होने पर भी सम्पदा से भरे−पूरे थे। यह वैभव संसार भर में विख्यात था। लालच भरी दृष्टि लेकर कोलम्बस इसी का पता लगाने निकला था। कि रास्ता भूल कर अमेरिका जा पहुँचा और बहुत दिन तक उसी को इण्डिया—वहाँ के निवासियों को “रेड इण्डियन” कहता रहा। सामान्य जीवन में इस देश के महामानव अपने को हर दृष्टि से प्रसन्न और सन्तुष्ट कहते थे। शिक्षा, उद्योग, चिकित्सा, व्यवस्था आदि में वे इतने प्रवीण पारंगत थे कि उन विभूतियों को उन्हें अन्यत्र पहुँचाने की आवश्यकता पड़ी और विश्व के कोने−कोने में उनका वितरित करने के लिए परिभ्रमण करते रहे। इन्हीं विशेषताओं के कारण उन्हें जगद्गुरु, चक्रवर्ती, स्वर्ग सम्पदाओं के स्वामी एवं देव मानव कहा जाता था।

मानवेत्तर, उच्चस्तरीय शक्तियाँ भी उनने कम अर्जित नहीं की थी। ऋद्धि−सिद्धियों के भण्डार उनके कोश में भरे पड़े थे। पौराणिक इतिहास का पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होता है कि उन्हें इन्द्रियातीत क्षमताएं प्राप्त थीं। दिव्य अस्त्रों का, वे प्रयोग करते थे। लोक−लोकान्तरों की यात्रा उनके लिए सरल थी। शाप वरदान की शब्द शक्ति का आश्चर्यजनक प्रयोग करना उन्हें आता था और भी बहुत कुछ ऐसा था, जिसे आज तो अत्युक्ति भी समझा जा सकता है। यह उपार्जन उन्होंने अन्तराल की अदृश्य, अविज्ञात प्रसुप्त शक्तियों की जागृत करके उपलब्ध किया था। अध्यात्म, चेतना का विज्ञान है। उस क्षेत्र की विभूतियों को, भौतिक सम्पदा की तुलना में असंख्यों गुना समर्थ एवं महत्वपूर्ण कहा जायगा।

आज का विज्ञान भी शरीर तन्त्र और मनःसंस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में आश्चर्यजनक शक्तियों को खोजता और उन्हें अद्भुत बताता हुआ आगे बढ़ रहा है। एन्जाइम, हारमोन, जीन्स, सैल्स अपने भीतर न जाने क्या−क्या अद्भुत छिपाये बैठे हैं। उनकी क्षमता का एक छोटा अंश ही शरीर मात्रा में प्रयुक्त होता है। जिसका इच्छित प्रयोग अभी नहीं हो पाया वह इतना विशाल एवं विराट् है कि उनके सहारे सामान्य शरीरधारी दैत्य जैसा असामान्य हो सकता है। मनुष्य शरीर एक अच्छा खासा बिजली घर है। उसके अगणित ज्ञान तन्तु उसी के सहारे समस्त शरीर को गतिशील बनाते—स्फूर्ति एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं। यह मानवी विद्युत भण्डार का नगण्य−सा उपयोग है। जो प्रसुप्त पड़ा है उसको यदि सक्षम किया जा सके तो सिद्ध होगा कि कोई विशालकाय अणु ऊर्जा संस्थान अपने ही भीतर विद्यमान है। अणु विस्फोटों से उत्पन्न ऊर्जा विकिरण की ऊर्जा सभी पड़ते रहते हैं। यदि चेतन जीवाणु के मचल पड़ने का अनुमान लगाया जा सके तो प्रतीत होगा कि जड़ की तुलना में चेतन जितना समर्थ है उसी अनुदान से परमाणु और जीवाणु की तुलना करते हुए वरिष्ठता−कनिष्ठता का मूल्याँकन किया जा सकता है।

विश्व ब्रह्माण्ड को सूक्ष्म वैभव को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है। इनका प्रतिनिधित्व मानवी सत्ता में अन्तर्हित स्थूल, सूक्ष्म, और कारण शरीर करते हैं। इस प्रकार इस विराट् को सात आयामों में विभक्त किया गया है। यही सात लोक हैं। लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई के तीन आयाम सर्वविदित हैं। आइन्स्टीन के अनुसार टाइम, स्पेस और काँजेशन भी तीन आयाम हैं। सातवाँ वह है जिसमें दृश्यमान लोक और अदृश्य लोक परस्पर आदान−प्रदान के लिए खुल जाते हैं। स्थूल, सूक्ष्म में प्रवेश कर सकता है और सूक्ष्म को स्थूल में परिणत कर सकना शक्य होता है। यह आज के सात आयाम पुरातन के सात लोक हैं। इनके साथ सम्बन्ध सूत्र जोड़ लेने वाले को टाइम, स्पेस और कन्जेक्शन सम्बन्धी व्यवधानों का सामना नहीं करना पड़ता। वह वर्तमान की ही तरह भूतकाल को भी प्रत्यक्ष देख सकता है। इसी प्रकार भावी सम्भावनाओं का पूर्व आभास प्राप्त कर लेने में भी उसे कठिनाई नहीं रहती। स्पेस के आयाम में प्रवेश करने वालों के लिए दूरी नाम की कोई कठिनाई नहीं रहती। वह प्रकाश की गति से भी आत्म सत्ता को यहाँ से वहाँ जा पहुँचने के लिए प्रशिक्षित कर लेता है।

उपेक्षा और अवज्ञा से कोई भी वस्तु हाथ से चली जाती है। अध्यात्म विज्ञान की पुरातन विधाएँ अब उपलब्ध नहीं रहीं। प्रयोग अभ्यास के अभाव में उनका प्रयोग ही नहीं, दर्शन भी लुप्त हो गया। अब हमें गिनती भूल जाने पर नये सिरे से गिनने जैसी पुनरावृत्ति करनी होगी। लुप्त का तो कुछ लँगड़ा, लूला अतापता भी अध्यात्म ग्रन्थों में संकेत रूप से मिल जाता है। उस आधार पर उस मूली कड़ी को जोड़ते समय एक नई कठिनाई और बन गई है कि अध्यात्म विज्ञान वाले सतयुग के आज के कलियुग के बीच इतना लम्बा समय गुजर गया, इतनी तेजी से परिवर्तन हुआ कि शरीर बहिरंग ही उस समय वालों की आकृति से मिलता−जुलता है। संरचना में प्रयुक्त हुई रसायन सम्पदा तथा ऊर्जा का स्तर ही कुछ से कुछ हो गया। सभी जानते हैं कि आणविक विकिरण की चपेट में आने वालों की रासायनिक स्थिति में भारी परिवर्तन होता है और मनुष्य बाहर से सही दीखने पर भी भीतर से विषाक्तता का पिटारा बन जाता है। विषैली, नशीली वस्तुएँ खाते रहने पर भी शरीर विषकन्याओं जैसा बन जाता है जिनके संपर्क में आने भर से उपभोक्त काल की गति में चला जाता था। कितनी ही औषधियों के हानिकारक तत्व पीढ़ियों को अपंग, विकृत बना देते देखे गये हैं। कुछ ऐसा ही माहौल पिछले दिनों बना है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, कोलाहल कीटनाशक, रासायनिक खाद, आदि कारणों से समूचा धरातल, वनस्पति जगत, जल भण्डार बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इन्हीं के सहारे मनुष्य जीता है। यदि वे विषाक्त विकृत होने लगे तो अनायास ही मानवी काया पर उसका अवाँछनीय प्रभाव पड़ेगा। ऐसी दशा में वे प्रयोग उस रूप में फलप्रद नहीं हो सकते जिस प्रकार कि प्राचीन काल के निर्मल और प्राण पुँज वातावरण में सफल होते थे। यह बात औषधियों के सम्बन्ध में भी जितनी सही बैठती है उतनी ही अध्यात्म प्रयोग उपचारों और साधना उपक्रमों के सम्बन्ध में भी लागू होता है। अब दोनों ही क्षेत्र नई खोज की अपेक्षा करते हैं।

जिन जड़ी−बूटियों के जो गुण शास्त्रों में मिले हैं वे अब उस रूप में नहीं मिलते। च्यवन प्राशायलेह से वृद्ध च्यवन ऋषि का युवा होना, या तो मिथ्या कथानक है अथवा फिर उन बूटियों में वे गुण नहीं रहे। दूसरी बात ही सही है। भूमि की उर्वरता, बादलों की वर्षा, वायु के प्राण तत्व में कुछ ऐसी गिरावट आदि और उलट−पुलट हुई है कि नाम और आकृति में वनस्पति वर्ग का कलेवर पूर्ववत् रहते हुए भी भीतर ही भीतर सब कुछ खोखला हो गया है। फिर उनका उपयोग भी वैसा परिणाम कहाँ उत्पन्न कर सकेगा जैसा कि कभी किया करता था। आज द्रव्य गुण विधान की नये सिरे से शोध करने की आवश्यकता है।

तथ्यों को देखते हुए आयुर्वेद की वहीं से शोध आरम्भ होनी चाहिए जहाँ से महर्षि चरक, सुश्रुत, बाण भट्ट आदि ने की थी। जब काया की सूक्ष्म संरचना में भारी उलट−पुलट हो गई। अब वनस्पतियाँ अपने पुरातन गुण धर्म गँवाकर कुछ से कुछ हो गई तो फिर उनके उपयोग एवं प्रभाव के सम्बन्ध में क्या उस समय जैसी आशा की जा सकती है। आज उस क्षेत्र में नये सिरे से अनुसंधान अपेक्षित है। यज्ञ चिकित्सा के परिप्रेक्ष्य में यही नीति अपनाई गई है और हवन द्रव्यों में प्रयुक्त होने वाली सामग्री तथा समिधाओं के सम्बन्ध में नये सिरे से अनुसंधान निर्धारण किये जा रहे हैं।

ऊपर चिकित्सा क्षेत्र के एक व्यवधान एवं समाधान का उदाहरण इसलिए दिया गया है कि अध्यात्म साधनाओं के पुरातन स्वरूप का नये परिप्रेक्ष्य में वैसा प्रभाव उत्पन्न करने की कठिनाई का रहस्य समझा जा सके। एक तो यही बाधा कम नहीं थी कि अध्यात्म विज्ञान के दर्शन और प्रयोग का सही एवं सुविस्तृत रूप उपलब्ध नहीं होता। जो मिलता है उससे समग्रता नहीं बनती। कुछ अनुमान आभास जैसा ही हस्तगत होता है। समग्र प्रक्रिया किसी भी प्रयोग की सन्तोषजनक बाल बोझ रूप में नहीं मिलती। संकेतों के सहारे इतने गहरे और खतरे से भरे क्षेत्र में कैसे प्रवेश किया जाय। यह असमंजस तब और भी दूना हो जाता है। जब वातावरण और काम संस्थान में अप्रत्याशित उथल−पुथल का तथ्य भी सामने है।

गिनती−गिनना भूलने पर नये सिरे से मिलना होता है। वनस्पति औषधियों के सम्बन्ध में ही नहीं अध्यात्म विज्ञान के आधे−अधूरे प्रयोग प्रतिपादनों का भी नये सिरे से अनुसंधान निर्धारण करना होगा। युग के अनुरूप—परिस्थिति से सम्बद्ध साधना ही अभीष्ट फलदायक सिद्ध हो सकती है। इस प्रक्रिया को ‘युग साधना’ नाम देना अधिक उपयुक्त होगा।


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