युग मनीषा ही नहीं युग साधना भी

December 1982

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पेड़ ऊपर से भी खुराक लेता है और नीचे से भी खींचता है। जड़ें जमीन में दूर−दूर तक फैलती है और वहाँ से खाद पानी समेट कर वृक्ष के अंग अवयवों तक पहुँचाती हैं पर बात पूरी इतने से ही नहीं हो जाती। ऊपर से सूरज की रोशनी, उपयुक्त हवा, मौसम की अनुकूलता आदि बहुमूल्य जीवन−तत्व बरसते हैं। दोनों ओर से अभीष्ट अनुदान प्राप्त करते रहने की सुविधा पाकर ही पेड़ पनपता और फलता−फूलता है। यदि इनमें से एक पक्ष भी कम पड़े तो फिर पेड़ का अस्तित्व ही संकट में पड़ेगा। प्रगति होने की बात तो दूर रही।

मनुष्य के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात कही जा सकती है। उसे अन्तराल, मनःसंस्थान एवं अंग अवयवों के साथ जुड़ी हुई जीवनी शक्ति, प्राण विद्युत, रासायनिक विलक्षणता जैसी अगणित विशेषताओं के माध्यम से समुन्नत बनने का अवसर मिलता है। स्थूल शरीर की संरचना से भी बढ़कर सूक्ष्म शरीर की विशिष्टता है। तीसरा कारण शरीर तो अदृश्य जगत के साथ जुड़ा रहने के कारण और भी अद्भुत है। उसे दिव्यलोकवासी कहा जाता है। षट्चक्र, उपत्यिकाएँ, ग्रन्थियाँ, अतीन्द्रिय क्षमता केन्द्र आदि की आन्तरिक संरचना एवं विभूति भण्डार को देखते हुए मनुष्य उससे कहीं अधिक महान प्रतीत होता है जैसा कि उसके बहिरंग को देखने पर—बड़प्पन का मूल्याँकन करने पर−दृष्टिगोचर होता है। यह ईश्वर प्रदत्त भाण्डागार सुनियोजित रूप से अन्तराल भरा पूरा तो है, पर है प्रसुप्त स्थिति में। प्रयत्न करने पर ही उसे जगाया जा सकता है। बीज के भीतर समूचे वृक्ष की समग्र सत्ता सन्निहित होती है। शुक्राणु में एक परिपूर्ण व्यक्तित्व की सत्ता विद्यमान रहती है, पर अनायास ही बिना प्रयत्न के बीज से वृक्ष फूट पड़ता है और न शुक्राणु को तोड़कर कोई मनुष्य चहलकदमी करता है। प्रगति प्रयत्न साध्य है। इसी विधि विधान के सहारे बीज और शुक्राणु अपनी प्रसुप्त सत्ता को प्रकट करते हैं। मानवी अन्तराल के सम्बन्ध में भी यही कहा जा सकता है। उसका प्रकटीकरण श्रमसाध्य है। इसी प्रयास को साधना कहते हैं। यह जड़ से उपलब्ध होने वाला अदृश्य जीवन रंग है। पेड़ की तरह मनुष्य भी प्रधानतः इसी के सहारे ऊपर उठता, अंकुरित होता और फलता −फूलता है।

दूसरा पक्ष भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। बाहर से जो बरसता, उपलब्ध, हस्तगत होता है, उसे नगण्य नहीं कहा जा सकता है। सभी जानते हैं शीत ऋतु में पौधे बढ़ना तो दूर उलटे पत्ते पीले पड़ने, झड़ने के कारण ठूँठ हो जाते हैं। गरम लू चलने पर भी वे झुलस जाते हैं। हरियाली बढ़ोत्तरी तभी होती है जब मौसम की अनुकूलता है। वर्षा होते ही उनकी शोभा सुषमा किस तरह उल्लसित होती है यह देखते ही बनता है। बसन्ती प्रवाह जिन दिनों बहता है उन दिनों तो ठूँठ हरियाते और फूलों से लदे हुए दूल्हा जैसे सज–धजकर बैठते हैं। इसके अतिरिक्त हवा वातावरण का भी योगदान होता है। प्रान्तों और क्षेत्रों की भिन्नता के कारण एक ही जाति के पेड़ पौधों—मनुष्य पशुओं में कितना अन्तर पाया जाता है यह सभी ने देखा है। बंगाली और पेशावरी की काया का अन्तर देखते ही बनता है। रायपुर और हरियाणा के बैलों में कितना अन्तर होता है इसे सभी जानते हैं। मैसूर का चन्दन महकता है वैसा राजस्थान में सम्भव नहीं, हिमालय के देवदारु आन्ध्र में उगाये जायें तो वे बढ़ेंगे नहीं, छोटे− छोटे ही बने रहेंगे। यह वातावरण का प्रभाव हुआ। मनुष्य भी इससे कम प्रभावित नहीं होता।

कहा जा चुका है कि शिक्षा, सान्निध्य, अभ्यास, परामर्श, अनुकरण आदि के माध्यम से बहुत कुछ सीखता है। सुसंस्कृत समुदाय और वनवासियों के स्तर में जो अन्तर पाया जाता है उसे वातावरणजन्य ही कहा जायगा। परिस्थितियाँ मनुष्य को कितनी बदलती बनाती है इसे सभी जानते हैं। सभ्यता और संस्कृति का सीधा सम्बन्ध निकटवर्ती परिस्थितियों से हैं। परिवार की पाठशाला में ही व्यक्तित्व की ढलाई का अधिकाँश काम पूरा हो जाता है। जो बाकी रहता है उसकी पूर्ति शिक्षा सान्निध्य, अनुभव, अभ्यास परामर्श आदि के माध्यम से होती है। वातावरण इसी को कहते हैं।

युग मनीषा को लोक मानस के परिष्कृत करने के लिए जिस गलाने ढालने वाली भट्टी को गरम करने के लिए कहा गया है उस विचारक्रान्ति का तात्पर्य इतना ही है कि मनुष्य को नये सिरे से सोचने के लिए समुचित विचार सामग्री प्रस्तुत की जाय। अभ्यास में से अवाँछनीयता को हटाने और स्वभाव में औचित्य की प्रतिष्ठापना करने के लिए क्या−क्या करना चाहिए, अक्टूबर अंक में इसी की चर्चा है। युग धर्म, ज्ञानयज्ञ, लोक शिक्षण आदि नामों से इसी का ऊहापोह हुआ है। प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत अब तक क्या हो चुका है और अगले दिनों क्या होने जा रहा है, इस संदर्भ में इस अंक के अन्तिम लेखों में विवरण एवं आभास दिया गया है। यह महत्वपूर्ण पक्ष है। इस संदर्भ में वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक क्षेत्रों में राज्य सत्ता की इच्छा आवश्यकता के अनुरूप ‘ब्रेन वाशिंग‘ अभिनव पद्धति का आविष्कार हुआ है। बन्दी शत्रु सैनिकों को किस प्रकार अपना पथ समर्थक सहयोगी बनाया जा सकता है इसकी एक सुविस्तृत प्रक्रिया है।

अपने देशवासियों की मान्यता, आकाँक्षा विचारणा में किस प्रकार मनचाहा हेर−फेर किया जा सकता है। इसका प्रयोग किस प्रकार किया गया इसकी जानकारी तानाशाह और साम्यवादी देशों में हुए इस सम्बन्ध के प्रयासों को आश्चर्यचकित करने वाले जाल−जंजाल को पड़कर समझी जा सकती है। मनुष्य मूलतः सोरे दापन, स्वच्छ दर्पण और गीली मिट्टी की तरह माना जाता है और कहा जाता है कि उसे दबाव देकर एक से दूसरे साँचे में बदला जा सकता है। समस्त समस्याओं के एकमात्र निमित्त कारण आस्था संकट से जूझने के लिए नव युग मनीषियों को क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए इसकी रूप−रेखा बताते हुए तथ्यतः एक ही निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि सभी सम्भव उपायों से मानवी दृष्टिकोण स्वभाव एवं अभ्यास में दूरदर्शी विवेकशीलता एवं संयम सिक्त समाज निष्ठा का सभी सम्भव उपायों में समावेश करने का प्राणपण से प्रयत्न किया जाय।

यह प्रक्रिया कितनी ही महत्वपूर्ण, समय को देखते हुए कितनी ही आवश्यक अनिवार्य क्यों न हो पर साथ ही एक दूसरी बात भी ध्यान में रखनी है कि वह एकाँगी है। मात्र एक ही पक्ष का समाधान करती है। दूसरा पक्ष भी अपने स्थान पर कायम है उसे झुठलाया नहीं जा सकता। कल न सही परसों उनका भी मर्म और महत्व समझना होगा और समग्र युग निर्माण के लिए−व्यक्ति निर्माण के लिए उसे भी कार्यान्वित करना होगा। यह पक्ष है अन्तराल की उच्चस्तरीय किन्तु प्रसुप्त क्षमताओं को जगाना। अतीन्द्रिय क्षमता के काम से इन दिनों परा−मनोविज्ञान के क्षेत्र में कौतूहलवर्धक चर्चाएँ चलती और योजनाएँ बनती रहती हैं। आकल्ट−मेटाफिजिक्स, आदि नामों से उसका कुछ स्वरूप निर्धारण भी हुआ हैं। पुरातन काल का साधता विज्ञान पूर्णतया इसी क्षेत्र का वैज्ञानिक प्रयोग है।

वस्तुतः मानवी व्यक्तित्व की मूलभूत सत्ता उसके गहन अन्तराल में निवास करती है। मनोविज्ञानी इसकी कुरेद बीन अचेतन, सुपर चेतन आदि में वर्गीकृत करते हैं और आशा करते हैं कि यदि इस मर्मस्थल की चाबी हाथ लग सके तो मानवी सत्ता को अब की अपेक्षा अगले दिनों सहस्रों गुनी अधिक समर्थ बनाया जा सकता है। अध्यात्मशास्त्री तो बहुत पहले से अनुभवजन्य सुनिश्चित घोषणा उच्चस्तर से करते रहे हैं कि—”मनुष्य से श्रेष्ठ समग्र इस संसार में और कुछ नहीं हैं।” यह प्रतिपादन काय कलेवर, बुद्धि चातुर्य या वैभव साधन को देखकर नहीं वरन् अन्त क्षेत्र की प्रसुप्त शक्तियों की विशिष्टता को लक्ष्य रख कर किया गया है।

बरगद जैसे विशालकाय दीर्घजीवी, वृक्षों की जड़ें—जमीन में प्रायः उतनी ही दूरी और गहराई में फैली होती हैं जितना कि उसका दृश्यमान कलेवर होता है। जिनकी जड़ें उथली होती हैं वे न तो बहुत ऊँचे उठने में ही समर्थ होते हैं और न अधिक समय तक जीवित ही रहते हैं। यह जड़ों की गहराई, मजबूती पर निर्भर है कि कोई पेड़ कितना बढ़ें, कितना फैले, फले−फूले और दीर्घजीवी रहे। वातावरण की अनुकूलता से उसकी प्रगति में सहायता तो मिलती है इतने पर भी जड़ों का महत्व कम नहीं आँका जा सकता है। जिस क्षेत्र में, जिस मौसम में गहरी जड़ों वाले पौधे प्रकृति अनुकूलता का लाभ लेकर समुन्नत परिपुष्ट देखे जाते हैं उसी से कमजोर छोटी जड़ों वाले किसी प्रकार दिन गुजारते और उकडू−झुकडू सिर झुकाए बैठे रहते हैं। यहाँ वातावरण की महत्ता, जड़ों की सुदृढ़ता से बढ़कर नहीं अपेक्षाकृत कम ही सिद्ध होती है।

विचार शक्ति का अपना महत्व है उसके सुसम्पन्न होने एवं सही मार्ग पर चलने के जितने भी लाभ गिनाये जाये कम हैं। इतने पर भी यह तथ्य यथावत् बना रहेगा कि व्यक्तित्व की अन्तर्निहित सत्ता का स्तर भी उच्चस्तरीय प्रेरणाओं को हजम और क्रियान्वित कर सकने में समर्थ होता है।

यहाँ मनुष्य के अन्तःक्षेत्र की चर्चा हो रही है और यह कहा जा रहा है कि मनुष्य का अन्तरंग प्रखर करना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि बहिरंग का कलात्मक सुनियोजन करना। अन्तरंग को प्रखर करने से तात्पर्य है प्रसुप्त को जगाना। प्रसुप्त से तात्पर्य है—”ईश्वर प्रदत्त उन क्षमताओं का भाण्डागार जो सृष्टा ने उत्तराधिकार में अजल मात्रा में दिया है, किन्तु उसके विकसित होने की सम्भावना व्यक्ति में निजी प्रयत्नों पर पूरी तरह छोड़ दी है” यह प्रसुप्त का जागरण ही उच्चस्तरीय पुरुषार्थ है। इस क्षेत्र की अद्भुत उपलब्धियों के सामने संसार भर में बिखरी सम्पन्नता भी हेठी पड़ती है।

सभ्यता व्यवहारगत शिष्टता से सम्बन्धित है। सुसंस्कारिता चिन्तन की उत्कृष्टता को कहा जाता है। इन दोनों से आगे चलकर—ऊँचा उठकर—अध्यात्म का विभूति क्षेत्र आता है। उसे खोदने, कुरेदने, बीनने बटोरने के लिए एक वरिष्ठ तन्त्र खड़ा करना पड़ता है जिसे एक शब्द में साधना कहा जा सकता है। साधना के अंतर्गत वे सभी प्रयास आते हैं जिनमें अन्तरंग के विशिष्ट शक्ति केन्द्रों को समझा, झकझोरा और सशक्त सक्रिय बनाया जाता है। इस दिशा में मिलने वाली सफलताएँ उच्चस्तरीय व्यक्तित्व की संरचना करती हैं। बुद्ध, गान्धी जैसे महामानव वस्तुतः व्यक्तित्व के धनी थे। प्रतिभा, और कुशलता की दृष्टि से उन्हीं अन्यान्यों की तरह सामान्य ही पाया गया है। जिस प्रकार भौतिक क्षेत्र में सुडौल, कुशल एवं सम्पन्न होना प्रशंसनीय माना जाता है उसी प्रकार अध्यात्म क्षेत्र की वरिष्ठता ओजस्वी, तेजस्वी और मनस्वी लोगों में उभरती उछलती पाई जाती है।

प्राचीन काल में अध्यात्म क्षेत्र की दो प्रतिभाएँ होती थीं एक को मुनि, दूसरी को ऋषि कहा जाता था। मुनि वे जो मनन चिन्तन को उभारते थे—स्वाध्याय सत्संग की योजना बनाते और जन−मानस के परिष्कार को ध्यान में रखते हुए लोक−शिक्षण में लगे रहते थे। ऋषि उन्हें कहा जाता था जो काय सत्ता को चेतना क्षेत्र की एक सर्व सम्पन्न प्रयोगशाला मानते थे और उसमें मूर्धन्य वैज्ञानिकों की तरह शोध अनुसन्धान—प्रयोग परीक्षण में लगे रहते थे। वे व्यक्तित्व की प्रसुप्त क्षमताओं को जगाने के क्षेत्र में गहरी डुबकी लगाते और बहुमूल्य मणि मुक्तक बीन कर लाते थे। जबकि मुनियों का प्रयास दूरदर्शी विवेकशीलता—सभ्य सुसंस्कारिता को लोक प्रचलन में समाविष्ट किये रहने के प्रयत्नों में निरत रहना होता था। लेखनी और वाणी की शक्ति वे इसी निमित्त करते थे। शासन संरचना, कथा सत्संग, धर्मानुष्ठान, गुरुकुल, आरण्यक, तीर्थ परिभ्रमण जैसे अनेकों कार्यक्रम इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए सम्पन्न होते थे। ऋषियों के उपक्रम में साधना प्रधान थी। वे योग और तप की परिधि में आने वाली अनेकानेक साधनाओं में निरत रहते और अपने सहचर अनुचरों को संलग्न रखते थे। सर्व साधारण को भी इसी प्रयोजन में लगाये रहते थे। मुनियों और ऋषियों के समन्वित प्रयास ही दो पहियों की भूमिका निभाते और प्रगति रथ को संयुक्त प्रयास से आगे बढ़ाते थे।

यही आज भी होना चाहिए। युग मनीषा को मुनि स्तर की भूमिका निभानी चाहिए युग साधना में−ऋषि प्रयोजन में निरत रहकर तपश्चर्या की शक्ति को सम्पन्नता की तुलना में वरिष्ठ सिद्ध करने के लिए अन्तःक्षेत्र के प्रचण्ड पुरुषार्थ अपनाने चाहिए। पेड़ का तना और कलेवर सुरम्य रहे इसके लिए वातावरण की उपयुक्तता जितनी आवश्यक मानी जाती है उसी प्रकार उसकी जड़े गहरी और सुदृढ़ समुन्नत हों इसकी साधन प्रक्रिया भी अग्रगामी रहनी चाहिए।

मोटी बुद्धि इस संसार को उतना ही मानती है जितना कि वह आँखों से दृष्टिगोचर होता है। किन्तु वस्तुतः वैसा है नहीं। आँखों से थोड़ी दूर का—निकटवर्ती सामने का ही दीखता है। पास ही जो पर्दे की आड़ में पैरों के नीचे−पीठ पीछे जो है उसे अति समीप एवं वस्तुतः विद्यमान होने पर भी देखा नहीं जा सकता। ऐसी दशा में सुविस्तृत संसार से इसलिए इन्कार करना कि वह आँख की पहुँच से बाहर है, उचित नहीं। अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी यही बात है वे और भी समीप का अनुभव करती हैं। कान, नाक तो कुछ दूरी से भी शब्द गन्ध का परिचय प्राप्त कर सकते हैं पर जिह्वा त्वचा तो छूने के उपराँत जानकारी प्राप्त करती हैं। ऐसी दशा में विश्व विस्तार के सम्बन्ध में इन्द्रिय शक्ति के सहारे जो प्रत्यक्ष है उसी को सब कुछ मान बैठना उचित नहीं। संसार जैसा भी कुछ है उसे समझने के लिए बुद्धि से काम लेना पड़ता है। तर्क, प्रमाण और अनुमान के सहारे ही अदृश्य को समझना पड़ता।

सच तो यह है कि दृश्य की तुलना में अदृश्य ने केवल व्यापक विस्तृत है वरन् महत्वपूर्ण एवं सशक्त भी है। हाथ−पैर दीखते है—हृदय मस्तिष्क नहीं जबकि अधिक सामर्थ्यवान एवं बहुमूल्य है। शरीर प्रत्यक्ष प्राण अप्रत्यक्ष पर मूल्य प्राण का ही अधिक है। पदार्थ मोटे रूप में ढेले जैसे लगते हैं, पर उनके परमाणुओं को पृथक किया जाय और उनके अन्तराल की ऊर्जा को जाँचा−परखा जाय तो प्रतीत होता है कि उनमें से प्रत्येक में अपरिमित सामर्थ्य भरी पड़ी है। अणु विस्फोट में परिमाण बताते है कि पदार्थ की यह सबसे छोटी इकाई विशालकाय सौर−मंडल का प्रतिनिधित्व करती है। न अणु दीखता है, न उसका मध्यवर्ती नाभिक। न दीखने का कारण उसकी क्षमता का महत्व घटता नहीं। प्यार और द्वेष का कोई स्वरूप नहीं। जब ठगी और वास्तविकता पहचानने में नहीं आती तो धर्मात्मा−दुरात्मा का भेद बाहरी कलेवर को उघाड़कर कैसे किया जाय?

सामान्य दृश्यमान के अन्तराल में विद्यमान अदृश्य विशिष्टता को ढूँढ़ निकालना और उसे क्षमता एवं सुविधा बढ़ाने के लिए प्रयुक्त करना यही है विज्ञान का कार्य क्षेत्र। इसी में अनादिकाल से अनुसंधान अन्वेषण होते और समय−समय पर बहुमूल्य सूत्र हाथ लगते रहे हैं। दो लकड़ियाँ रगड़कर जिस दिन आग की चिनगारी उत्पन्न की गई होगी और उसका विभिन्न प्रयोजनों के लिए उपयोग जाना गया होगा वह मानवी सौभाग्योदय का अत्यन्त शानदार दिन रहा होगा। आदिमकाल के नर−बानर और आज के सभ्य समुन्नत के बीच जो न भरने योग्य खाई दीखती है उसे पाटने में अग्नि आविष्कार का कितना बड़ा योगदान रहा होगा इसका अनुमान लगाने की इस जेब में माचिस भरे फिरने वाले माहौल में कौन आवश्यकता अनुभव करेगा। किन्तु तथ्य तो तथ्य ही है। अग्नि पर आधिपत्य होना प्रकृति विजय के प्रथम मोर्चे की सफलता थी। जिसने हौंसले बटाये और वदम वर्षा हुए वहाँ चले आये, जहाँ रेडियो, टेलीविजन, वायुयान अन्तरिक्षयान पनडुब्बी अणुशक्ति जैसी उपलब्धियाँ दैनिक प्रयोग में आने वाले चूल्हे चौके जैसी सामान्य लगती है।

प्रकृति का दृश्यमान बाह्य कलेवर तो अप्रकट रत्नराशि से भरा−पूरा सस्ते कपड़े से बना बटुआ है। अविकसित प्राणियों के निर्वाह हेतु जितना प्रकृति ने आवश्यक समझा है उतना ही सर्वसाधारण के लिए खुला रखा है। इसके आगे जो भी बहुमूल्य था वह सब तिजोरियों में छिपा दिया है। अनगढ़ों द्वारा किये जाने वाले दुरुपयोग के बचाव की दृष्टि से यह दुराव आवश्यक भी था। धरातल पर पड़ा−करवट, धूलि− मिट्टी, खर−पतवार पोखर−झरने, वन−पर्वत जैसे ऊबड़−खाबड़ पदार्थ ही दृष्टिगोचर होते हैं। बहुमूल्य तो नीचे हैं। खोदने पर बहुमूल्य खनिज पदार्थ हाथ लगते हैं। धातुएँ, तेल, कोयला जैसी सम्पदाएँ अदृश्य में प्रवेश करने पर मिलती हैं। मोती लहरों के ऊपर नहीं तैरते, उन्हें गहरी डुबकी लगाने वाले ही प्राप्त करते हैं।

यह सामान्य ज्ञान से सम्बन्धित दृश्य और अदृश्य का भेद विवरण है। इसके आगे रहस्य भरे दो क्षेत्र और हैं जिन्हें जितना कुरेदना बन पड़ता है उतना ही बुद्धि को हतप्रभ कर देने वाले तिलिस्म से पाला पड़ता है। आकाश नीली चादर का सुविस्तृत चन्दोला जैसा लगता है जिसमें कुछ झिलमिले और दो झाड़−फानूस टंगे हों। पर वस्तुतः वह उतना छोटा और सरल है नहीं। करोड़ों अरबों प्रकाश वर्ष की दूरी पर असंख्य निहारिकाओं सौर−मण्डलों, गैस, बादलों, ब्लैक होलों से भरा−पूरा यह ब्रह्माण्ड इतना लम्बा चौड़ा है। इतनी तीव्र गति से धावमान है कि उसकी समग्र कल्पना करने तक में बुद्धि थक कर बैठ जाती है। फिर उसमें जो भरा हुआ है, उसकी जटिलता और भयानकता का जैसे−जैसे परिचय मिलता है वैसे−वैसे दिल दहलने लगता है। इतने विनाशकारी ज्वाल माल के नीचे आखिर अपना भूलोक, उसका प्राणी समुदाय किस प्रकार जीवित ही नहीं बना रहा वरन् सुख−शान्ति की ओर भी बढ़ता रहा, यह देखकर आश्चर्य होता है। कोई मोटी−तगड़ी उल्का उससे टकरा कर इस पिण्ड की धज्जियाँ उड़ा सकती है। किसी ग्रह का औंधा− तिरछा विकिरण इस लोक के प्राणियों को देखते−देखते निष्प्राण कर सकता है। सौभाग्य ही कहना चाहिए कि अनेकानेक ग्रह पिण्डों की आये दिन जो दुर्गति होती रहती है वह इस अग्नि परिवार में दाँतों के बीच जीभ की तरह रहने वाले अपने इस समुदाय की नहीं हुई।

यह डरावना पक्ष हुआ। इस ब्रह्माण्ड में ऐसा भी कम नहीं भरा है जिसमें से कुछ चम्मच भर और मिल सके तो अब तक की उपलब्धियों की तुलना में मनुष्य देखते−देखते सहस्रों गुना अधिक सुखी समुन्नत, समृद्ध सशक्त बन सकता है। अब तक संचित वैभव प्रकृति की कुछेक परतें उघाड़ने पर ही उपलब्ध हुआ है। जो मिल सका वह नगण्य है। जो अनुपलब्ध है उस भाण्डागार का थोड़ा−सा विवरण भर प्राप्त होने पर मुँह में पानी भर ही आता है। मनुष्य डडडड नहीं है। उसकी जिज्ञासा, जीवट, और महत्वाकाँक्षा अभी भी घटी नहीं है आशा की जाती है कि यदि विज्ञान क्षेत्र को ऐसी ही उपलब्धियाँ मिलती रही तो वह दिन दूर नहीं जब पौराणिक स्वर्ग लोक वाली सभी सुखद कल्पनाएँ, सम्पदाएँ, अपनी उस धरती पर बिखरी−बिखरी फिरेंगी।

ब्रह्माण्ड का छोटा प्रतीक प्रतिनिधि है—अपना काय पिण्ड। देखने में यह काया मल−मूत्र की गठरी—हाड़माँस की पिटारी और निगलने−उगलने, सोने−जागने, रोने−हँसने की एक चलती−फिरती मशीन भर मालूम पड़ती है। ऋतु प्रभाव के तनिक से दबाव पड़ने पर चीं−चीं बोलती है। जोर फट का एक हथोड़ा कहीं जमकर जा लगे तो काँच के टूटे गिलास की तरह कूड़े−करकट के ढेर में जा गिरती है। इसमें पाये जाने वाले पदार्थ यदि खण्ड−खण्ड करके बाजार में बेचे जाँय तो उनका मूल्य दस रुपये से भी कम हाथ लगेगा। प्रतिनगण्य से काय−कलेवर की सूक्ष्म संरचना और उसके अन्तराल में विद्यमान विभूति सम्पदा का पर्यवेक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि इस तुच्छ के कण−कण में चकित कर देने वाले महान् का भांडागार कूट−कूटकर भरा है। किसी अद्भुत कलाकार ने उसकी संरचना में अपना सारा कौशल निचोड़ कर रख दिया है।

दर−दर की ठोकरें खाते, रोते−रुलाते, दीन दयनीय, असहाय असमर्थों की इस दुनिया में कमी नहीं। इसमें परिस्थितियाँ भी कारण हो सकती हैं किन्तु जब उन्हीं परिस्थितियों में जन्मे−पले—अपने बलबूते का आकाश चूमने जितनी ऊँचाई पर जा पहुँचे दीखते हैं तो उस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि देखने में अवरोध परिस्थितियों का ही प्रतीत होता है। परन्तु तथ्यों को कुरेदने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मनःस्थिति की खोट ही पतन और पराभव का प्रधान कारण है। मनःसंस्थान की संरचना प्रायः सभी की एक जैसी है—अन्तर एक ही है उसकी सामर्थ्य में प्रयोग की विधि−व्यवस्था से परिचित अभ्यस्त न होना। जिनने मनःसंस्थान का स्वरूप और सदुपयोग समझा व आत्मज्ञान के धनी कहलाये—सफल समर्थ बने और अपने क्षेत्र में सफल, सुयोग्य कहलाये। जिनकी गुण−गाथाएँ गाई जाती हैं, जिनका पराक्रम सराहा जाता है उनमें से अधिकाँश मुकद्दर के सिकन्दर नहीं, मनोबल सम्पन्न सुसंस्कारी व्यक्तित्व के ही धनी रहे हैं।

चेतन, अचेतन, सुपर चेतन−मन, बुद्धि, चित्त की चर्चा विवेचना, चेतना विज्ञान के मनीषी विस्तारपूर्वक करते रहते हैं और कहते हैं कि इस क्षेत्र में समाविष्ट तथ्यों को देखते हुए मनुष्य में दैत्य दानव स्तर की अनेकानेक क्षमता सम्भावनाओं का सुनिश्चित अस्तित्व आंका जा सकता है। वे इसके लिए भी प्रयत्नशील हैं कि किसी प्रकार इन सम्भावनाओं को साकार किया जा सके। अभी मस्तिष्कीय क्षमता भण्डार का मात्र सात प्रतिशत ही समझ और व्यवहार में आया है। शेष 93 प्रतिशत को भी यदि समझा, जगाया और कमा में लाया जा सके तो आज की तुलना में अगले दिनों मनुष्य की क्षमता और गरिमा सहस्रों गुनी अधिक बढ़ जायगी।

इसी संदर्भ में काय संरचना के स्थूल अवयवों की कार्य कुशलता की प्रशंसा से एक कदम और आगे बढ़कर जब उसकी सूक्ष्म रचना और उसके प्रत्येक घटक पर दृष्टि डालते हैं तो ब्रह्माण्ड में सर्वव्याप्त तिलम्भ की तरह उसी छोटी भानमती की पिटारी में भी एक से एक बड़े जादुई कौतूहल प्रकट होते हैं। हृदय, मस्तिष्क, यकृत, वृक्क आदि की संरचना को देखते हुए कहा जाता है कि ऐसा सृजन समस्त मानवों के समन्वित कला−कौशल का नियोजन करने पर भी बन नहीं पड़ेगा। इन दृश्यमान क्रम अवयवों में आगे बढ़कर जब रक्त कणों, हारमोनों, एन्जाइमों, कोशाणुओं, न्यूरोनों आदि की संरचना क्षमता और सुसंबद्धता की समन्वित प्रक्रिया पर विचार किया जाता है तो प्रतीत होता है कि उस औसतन साड़े पाँच फुट लम्बे और डेढ़ मन भारी शरीर में भूतनाथ का यक्ष गंधर्वों वाला कोई जादुई किला है। इनकी एक−एक लड़ी और कड़ी देखने योग्य है। खुली आँखों से न दीख पड़ने वाले यह बाल की नोक पर दर्जनों की संख्या में बैठ सकने वाली इकाइयां इतनी समर्थ और सक्रिय है कि उन्हें जड़ परमाणु की संरचना से कहीं अधिक उच्चस्तरीय सम्वेदनशील माना जायगा।

जो जाना गया है उससे अनजाना असंख्य गुना है। जो पाया गया उसकी तुलना में वह अत्यधिक है जिसकी अभी मान्यता तो स्थिर हो गई है, पर हस्तगत होने की कड़ी हाथ नहीं लगी है। यह पदार्थ जगत के सम्बन्ध में नहीं चेतना के अदृश्य जगत की ओर संकेत है। पदार्थ जगत की शोध का मोर्चा जमा हुआ है। सहस्रों प्रयोगशालाओं से सम्बद्ध लाखों मूर्धन्य वैज्ञानिक पदार्थ सत्ता के विभिन्न क्षेत्रों का अनुसंधान कर रहे हैं और प्रयत्नशील हैं कि जड़ जगत की क्षमता सम्पदा का जितना दोहन बन पड़े किया जाय। प्रश्न उस अदृश्य जगत का है जो चेतना के साथ सम्बद्ध है। उसे सूक्ष्म लोक कहा जाता है। यह तीन या सात वर्गों में विभाजित किये जाते हैं। इन्हें आयनोस्फियरों की तरह समीपवर्ती एवं सम्बद्ध ही कहा जा सकता है। काया के तीन शरीर सात आयाम माने गये हैं। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों की आध्यात्मिक संरचना और उनके द्वारा उपलब्ध हो सकने वाली विभूतियों का अनुमान लगाने से प्रतीत होता है कि ‘जल में मीन पियासी। मोहि लखि−लखि आवे हाँसी॥ वाली कबीर की व्यंगोक्ति प्रकारान्तर से अपने ऊपर ही लागू होती है। चेतना क्षेत्र का विस्तार अंतरंग में भी है और बहिरंग में भी। काया में समस्त देवताओं और लोकों का निवास माना गया है।

मरणोत्तर जीवन जिस स्वर्ग नरक में निवास करते हुए बीतता है वह जीवात्माओं का एक अदृश्य लोक है। उसमें ऐसे ही अदृश्य प्राणी निवास करते हैं जैसे कि इस दृश्य जगत में रहने वाला प्राणि समुदाय। प्रति विश्व, प्रति पदार्थ, प्रति कण की—ऐन्टीयुनिवर्स की— एन्टीमैटर की— एन्टीएटम की कभी चर्चा कल्पना थी। अब उनका अस्तित्व मान्यता प्राप्त करने की स्थिति में है। यह अदृश्य जगत का संकेत है। पदार्थ क्षेत्र में काम करने वाले विज्ञान की अब इस चेतनात्मक अदृश्य में प्रवेश करना होगा और इस लक्ष्य तक पहुँचना होगा जिससे मात्र सुविधा संवर्धन ही नहीं, आनन्द उल्लास और सुख−शान्ति का विभूति वैभव भी हस्तगत हो सके।


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