मनुष्य जन्म पशु जीवन से इसलिए श्रेष्ठ और ऊँचा माना गया है कि उसमें पेट-प्रजनन से आगे बढ़कर-ऊँचा उठकर, कुछ सोचने और करने की ईश्वर प्रदत्त विशेषता विद्यमान है। दूसरे प्राणी यह सब नहीं कर पाते। उन्हें शरीर की आवश्यकताएँ पूरी करने भर में अपने सारे क्रिया-कलापों को सीमित रखना पड़ता है। बलपूर्वक उनसे कोई लाभ उठाने की बात दूसरी है पर पशु जानबूझ कर-स्वेच्छा भावना से किसी का उपकार करने की-दूसरों को दूसरों को सूखी बनाने की बात प्रातः कम ही सोचते हैं। सोचते हैं तो वह परिधि सन्तान एवं साथियों तक सीमित होकर रह जाती है। दूरदर्शिता का आश्रय लेकर सुविस्तृत विश्व में शान्ति सुविधा बढ़ाने की बात वे कहाँ सोच पाते हैं? और ऐसा कुछ कहाँ कर पाते हैं? इसी विवशता के कारण पिछड़े प्राणि वर्ग को हेय स्थिति में समझा जाता रहा है और मनुष्य की स्थिति उनसे अच्छी बताई जाती रही है।
मानवी महानता के प्रधान आधार यही हैं-कि वह अपने को आदर्श बनाये उत्कृष्ट चिन्तन प्रक्रिया को अपनाये और ऐसे कार्य करे जिनमें भले ही उसे त्याग करना पड़े अथवा कष्ट सहना पड़े किन्तु दूसरों की समाज और युग की सेवा के लिए बढ़−चढ़ कर अनुदान प्रस्तुत कर सके। इस स्तर के जीवन को ही मानव-जीवन की गौरव गरिमा के साथ अलंकृत और सम्मिलित किया जा सकता है।