अपनों से अपनी बात

July 1973

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मानवी उत्कृष्टता उसके शरीर, बल, धन, पद, शिक्षा, वैभव आदि पर टिकी हुई नहीं है, वरन् उसकी अन्तःस्थिति पर अवलम्बित है। महामानव साधन संपन्न लोगों को नहीं कहते, वरन् उन्हें माना जाता है जिनके गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता की समुचित मात्रा विद्यमान है। आत्मबल ही सबसे बड़ा बल है। जहाँ वह होगा वहाँ अन्य बलों का अभाव अखरेगा नहीं। आन्तरिक विभूतियों को ही सबसे बड़ी सम्पदा माना गया है, उन्हीं के सहारे मनुष्य स्वयं ऊँचा उठता है और दूसरों को आगे बढ़ाता है।

किसी देश की असली सम्पदा वहाँ के नर-रत्नों-महामानवों की गणना एवं स्थिति के आधार पर ही आंकी-नापी जाती है। कोई देश या समाज अन्य किसी कारण से गिरता उठता नहीं- उसके उत्थान पतन का प्रावधान कारण वहाँ के नागरिकों का चारित्रिक एवं भावनात्मक स्तर ही होता है। विश्व का भविष्य इन दिनों अन्धकारमय दीख रहा है तो इसका एकमात्र कारण अपने युग के मनुष्यों का भावनात्मक स्तर निकृष्ट कोटि का बन जाता ही है। उसमें परिवर्तन लाया जा सके तो प्रकृति प्रदत्त अनुदानों का मिलजुल कर बाटा खाया जा सकता है। और स्नेह-सहयोग की नीति अपनाकर सुख शान्तिपूर्वक कहा जा सकता है। दुष्टता और दुर्बुद्धि ही हे जिसके कारण विकास के लिए काम आ सकने वाले साधनों को विनाश के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है। और जानबूझ कर विपत्ति को आमन्त्रित किया जा रहा है।

उत्कर्ष की बात सोचने पर उसके प्रधान साधन पर भी ध्यान देना होगा। परमार्थ परायण प्रक्रियाओं के उत्पादन और अभिवर्धन को प्रधानता देनी होगा। सुख-साधनों के उत्पादन में निरत संस्थान एक छोटी सीमा तक ही सुख-शान्ति का अभिवर्धन कर सकेंगे। चेतन मानव-प्राणी का यथार्थ सुख-सम्वर्धन तो भावनात्मक सम्पदा ही कर सकती है। स्वतन्त्रता संग्राम की विजय का श्रेय उस काल के थोड़े से महामानवों को ही दिया जा सकता है जिन्होंने अपने महान व्यक्तित्व की छाप जनता के अन्तःकरण पर छोड़ी ओर अपने आह्वान पर त्याग-बलिदान की अग्रिम पंक्ति में आ खड़े होने की लाखों मनुष्यों में प्रेरणा भर दी। यह कार्य वाचाल या उथले लोग नहीं कर सकते हैं लम्बी चौड़ी कागजी योजनाएँ भी स्वराज्य नहीं दिया सकती थी। स्पष्ट है कि हर महत्वपूर्ण कार्य प्रखर प्रतिभाओं के आधार पर ही सम्पन्न होता है। विशेषतया युग-परिवर्तन जैसे-नवनिर्माण जैसे महान प्रयोजनों के लिए इस आवश्यकता की पूर्ति एक प्रकार से अनिवार्य ही हो जाती है।

देश की-विश्व को सुख-शान्ति के पथ पर आगे बढ़ाने के लिए सच्चे और सुयोग्य आदर्शवादी एवं लोक सेवी प्रतिभाओं की ही आगे आना पड़ा है। आज वे है नहीं तो गाड़ी आगे कैसे बढ़े। दूसरों पर अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने और यश-लिप्सा की पूर्ति के लिए जब-तब बरसाती मेंढक सेवा के स्वरों में टर्राते सुने जाते हैं पर जैसे ही उन्हें अभीष्ट लाभ में कमी दिखाई देती है वैसे ही चुप ही नहीं हो जाते वरन् उसी कार्य की जड़ तक काटते देखे जाते हैं। जिसकी कि कल तक जोर-शोर से आवश्यकता बता रहे थे। ऐसे लोगों की सेवा विडम्बना, कौतुक कौतूहल भर की होती है। ठोस काम तो उन्हीं से बनता है जिन्होंने अपने व्यक्तित्व में आदर्शवादिता को कूट-कूट कर भरा हो ओर सेवा धर्म को आत्मा एवं ईश्वर की समुन्नतता का पवित्रतम और उच्चतम आधार अंगीकार किया हो।

युग-निर्माण योजना का लक्ष्य यही रहा है। शतसूत्री कार्यक्रमों को आगे रखकर भावनाशील लोगों को सेवाधर्म अपनाने और अपनी क्षमता, योग्यता एवं परिस्थिति के अनुरूप लोकमंगल के लिए अधिक से अधिक करने के लिए आग्रह, अनुरोध किया गया है । प्रसन्नता की बात है कि वह आह्वान, अनुष्ठान नहीं किया गया और उत्साहवर्धक संख्या में कर्मठ कार्यकर्ता सृजन सेना में भरती होकर भावनात्मक पुनर्निर्माण के विविध मोर्चों पर अड़ने और लड़ने को कटिबद्ध होकर आये। धर्मतंत्र का अध्यात्म आधार का सहारा इसीलिए लिया गया कि इस प्रयोजन के लिए कदम बढ़ाने वाले चरित्रनिष्ठा, आदर्शवादिता और परमार्थ परायणता, आडम्बर न ओढ़े और इन महान आस्थाओं को अन्तःकरण के गहन स्तर तक उतारकर तब आगे आये। स्पष्टतः मानवी आस्था के मर्मस्तर का स्तर धर्म और अध्यात्म के आधार पर ही किया जा सकता है।

युग निर्माण अभियान में संलग्न सृजन सेना के सैनिकों में अब तक प्रधानतया वे ही लोग है जिन्हें परिवार निर्वाह के लिए आजीविका उस उपार्जन में निरत रहते हुए निर्वाह परक कठोर श्रम करना पड़ता है। स्वभावतः उनके पास थोड़ा ही समय बचता है इसी बचत की पूँजी पर अब तक मिशन के क्रिया-कलापों को अग्रगामी बनाया जा सकता है। प्रारम्भ इतने से भी बुरा नहीं था पर अब कार्य क्षेत्र द्रुतगति से बढ़ता जा रहा है। अभियान में प्रखरता आ रही है और जन-मानस में हुलास-उल्लास का ऐसा वेग उत्पन्न हो रहा है जैसे यदि सही मार्गदर्शन और समुचित प्रोत्साहन मिल सके तो आश्चर्यजनक परिणाम सामने आ सकते हैं। युग-परिवर्तन के स्वप्न मूर्तिमान तथ्य के रूप में सामने आकर खड़े हो सकते हैं।

उत्कृष्ट स्तर के सेवाभावी महामानवों की विश्व के कौने-कौने में भारी मार्ग है। सबसे बड़ा दुर्भिक्ष नहीं का है सर्वत्र त्राहि-त्राहि उन्हीं के अभाव में मची हुई है। नव-निर्माण अभियान की फसल भी उन्हीं के बिना सकुचाई मुरझाई खड़ी है। समय की पुकार के स्वर तीखे होते जा रहे है और अनिवार्य आवश्यकता यही सामने खड़ी है कि अधिक भावनाशील-अधिक सुयोग्य-अधिक आत्म-बल सम्पन्न अधिक प्रशिक्षित-अधिक कर्मठ लोक-सेवियों की बहुत बड़ी सेना कुरुक्षेत्र में उतारी जाय। युग-निर्माण के प्रस्तुत गृहस्थ कार्यकर्ता एक सीमा तक ही उस बढ़ती आवश्यकता की पूर्ति कर सकते हैं परिवार का निर्वाह उनके लिए प्रधान समस्या हैं इसके रहते यदि वे कार्य क्षेत्र में समग्र रूप से उतरे तो अनिवार्य रूप से परिवार निर्वाह के लिए वेतन चाहिए। हजारों लाखों पूरे समय के कार्यकर्त्ताओं के निर्वाह का व्यय इस महंगाई के जमाने में कितना अधिक हो सकता है यह समझना कठिन नहीं। चूँकि मिशन रूढ़िवादी मूढ़ताओं को लेकर तो खड़ा नहीं है जिसके लिए धर्म भीरु लोगों को उल्टी सीधी पट्टी पढ़ाकर पैसा झटका जा सके। यह प्रबुद्ध और विचारशील लोगों का समुदाय है ऐसे स्तर के लिए मध्यम वृति के होते हे वे दान के नाम पर यत्किंचित् ही यदा-कदा दे सकते हैं। ऐसी दशा में वेतन-भोगी कार्यकर्ताओं की बड़ी संख्या भी कार्यक्षेत्र में नहीं उतरी जा सकती।

ऐसी दशा में युग की आवश्यकता पूरी करने के लिए भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम एवं मौलिक आधारों को ही पुनर्जीवित करना पड़ेगा और उसी राह पर चलना पड़ेगा जिस पर चलते हुए भारत भूमि को देव भूमि बनाने का, विश्व का समग्र नेतृत्व करने का अवसर मिला था। उच्चस्तरीय कर्मठ कार्यकर्त्ताओं की स्वर्ण खदान वानप्रस्थ आश्रम ही है संन्यास तो चौथे पन की जराजीर्ण अवस्था में लिया जाता है तब तक आदमी का कचूमर निकल चुका होता है ओर वह मौत के दिन पूरे कर सकने की स्थिति में ही रह जाता है। कुछ काम कर सकने की क्षमता प्रौढ़ावस्था में ही रहती है। जीवन का मध्याह्न परिवार प्रयोजन के लिए खर्च करने के बाद ढलती आयु में व्यक्तित्व का समग्र निर्माण करने एवं सेवा-धर्म अपनाने का उपयुक्त अवसर रहता है। तब तक शरीर के कुछ जान भी रहती है और मन में उत्साह भी। अस्तु प्राचीनकाल की भाँति ही आज भी वानप्रस्थ के लिए जन साधारण में गहन आस्था ओर प्रचुर उत्साह उत्पन्न करने की आवश्यकता है। यदि यह प्रवाह उभर आये तो देखते-देखते सुयोग्य आदर्शवादी एवं लोक-सेवा संलग्न कर्मवीरों की सेना युग की आवश्यकता पूरी करने में संलग्न दिखाई दे सकती है।

इस तथ्य पर हमें पूरी तरह ध्यान देना होगा कि प्रस्तुत दृष्प्रवृत्तियों से लड़ने को एक बड़ी सेना की आवश्यकता है जो भले ही रीछ-बानरों जैसी हो पर उसमें आदर्शवादिता की त्याग-बलिदान की भावभरी उमंगें हिलोर अवश्य ले रही है। इसके लिए उन प्रबुद्ध लोगों का द्वार खटखटाना पड़ेगा जिनकी आवश्यक परमार्थ बुद्धि के साथ-साथ पारिवारिक स्थिति भी ऐसी हो कि बिना वेतन लेने की आवश्यकता अनुभव किये अपनी प्रतिभा का अनुदान विश्व-मानव के चरणों में समर्पित करते हुए हिचक अनुभव न हो। इसी स्तर के लोगों को वानप्रस्थ आदर्श को पुनर्जीवित किया जा सके तो विश्व की विषम परिस्थितियों में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न कर सकना कुछ कठिन न रह जायगा। मानव जाति को वर्तमान दयनीय स्थिति में उबारते हुए विश्व का कायाकल्प कर सकना आज भले ही कठिन लगता हो पर जब वानप्रस्थ प्रवाह को पुनर्जीवित किया जा सकना सम्भव हो जायेगा तो जटिल गुत्थिओं का सरल हल सहज ही निकल आवेगा।

धर्म और अध्यात्म के उपासना और साधना के चरित्र और परमार्थ के पुण्य प्रयोजनों का समन्वय करते हुए लोक-निर्माण में प्रवृत्त होने की पुण्य परम्परा इन दिनों युग-निमार्ण परिवार ने ही आरम्भ अथवा पुनर्जीवित की है सृजन सेना में संलग्न हजारों लाखों कर्मयोगी सके प्रत्यक्ष प्रमाण है। अब तो कदम और भी आगे बढ़ाया जाना आवश्यक हो गया है। तो उसकी पूर्ति भी हमें ही करनी पड़ेगी। अधिकाधिक समय लोक-मंगल के लिए समर्पण करने वाले सुयोग्य एवं अवैतनिक परमार्थ परायण व्यक्तियों की न दिनों जो महती आवश्यकता अनुभव की जा रही हैं उसकी पूर्ति भी हमें करनी होगी। महानता का पथ अपनाया है तो एक के बाद एक बड़ी और कड़ी कसौटी पर अपने को सही सिद्ध करने के लिए हमें ही आगे आना होगा। वानप्रस्थ परम्परा एक प्रकार से लुप्त हो गई। मुंहखोर बाबाजी तो 59 लाख से बढ़कर 80 लाख हो गये पर जिन्हें कर्मयोगी का उत्तरदायित्व निबाहना पड़ेगा,ऐसे वानप्रस्थ देश भर में कुछ हजार तो क्या सैकड़ों तक ही सीमित दिखाई पड़ेंगे। उनमें भी सेवा धर्म अपनाने वाले तो गिने चुने ही होंगे शेष तो तथा कथित शान्ति और एकान्त की उधेड़ बुन में जहाँ तहाँ माला घुमाते ओर दिन काटते ही दिखाई देंगे। इनका निवृत्त मार्ग और वैराग्य ही विचित्र विलक्षण है जिसमें अकर्मण्यता के अतिरिक्त ओर कुछ सार दृष्टिगोचर ही नहीं होता।

पुण्य परम्पराओं के पुनर्जागरण की अपनी महती चेष्टाओं में एक कड़ी वानप्रस्थ को पुनर्जीवित करने की भी पुरी करनी चाहिए। देश विदेश में जनजागरण का शंख फूंकने वाले धर्म और अध्यात्म की उपयोगिता अपने प्रखर व्यक्तित्व को प्रामाणिकता के रूप में सिद्ध करने वाले महामानवों को अभीष्ट मात्रा में यदि हम विश्व कल्याण के लिए उपस्थित कर सके तो यह बहुत बड़ी बात होगी। युगनिर्माण परिवार की महानतम उपलब्धि ही इसे कहा जा सकेगा।

हममें से प्रत्येक को यह देखना चाहिए कि क्या अपनी निज की स्थिति ऐसी है इस पुण्य-परम्परा को अपनाने के लिए अपने को अनुकरणीय आदर्श के लिए प्रस्तुत कर सकने वाले अग्रगामी महामानवों की पंक्ति में खड़ा हो सकना सम्भव बन जाय। यदि स्थिति ऐसी हो तो शुभारम्भ के रूप में साहस अपने में जुटाना चाहिए। यदि वैसी स्थिति न हो तो भी यह सोचना चाहिए कि निकट भविष्य में जब भी स्थिति उपयुक्त हो जायगी तब इस पुण्य प्रयोजन के लिए निश्चित रूप से अपने को प्रस्तुत करेंगे। ढलती आयु में लम्बी-चौड़ी महत्वाकांक्षाएं हमें नहीं संजोनी चाहिए वरन् आत्मकल्याण और विश्वकल्याण के लिये अपने समर्पण की बात को सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा पूर्ति मानकर चलना चाहिए। इस प्रकार आज अथवा कल परसों हमीं लोग इतना कुछ कर सकेंगे जिस पर भारत भूमि को- भारतीय संस्कृति को अपना मस्तक गर्व और गौरव के साथ ऊँचा कर सकने का अवसर मिल जाय।

अपने घर परिवार सम्बन्धी और मित्रों में से जो इस क्षेत्र में प्रवेश कर सकने की मन स्थिति एवं परिस्थिति में हो उन्हें उसके लिए परामर्श देना और प्रोत्साहित करना हमारा कर्तव्य होना चाहिए। बड़े बच्चे यदि समर्थ एवं स्वावलम्बी हो गये हो तो उन्हें भी सलाह देनी चाहिए कि पिता के उत्तरदायित्वों को पूरी ईमानदारी के साथ अपने कन्धों पर वहन करने की वे तत्परता प्रदर्शित करे। इस प्रकार वे जहाँ पितृ ऋण से उऋण होते हैं वहाँ संसार को एक महती आवश्यकता पूर्ण करने से भी महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। पिता पुत्र ही नहीं दूसरे स्वजन सम्बन्धी भी परस्पर ऐसी ही सहायता कर सकते हैं सम्मिलित परिवार में एक सदस्य को छुट्टी देकर उसके उत्तरदायित्वों को घर के दूसरे सदस्य सहज ही निभा सकते हैं। छोटे-भाई आगे बढ़ कर बड़े भाई को छुट्टी दे सकते हैं। जिनके पास गुजारे का प्रबन्ध है उनके पीछे सुव्यवस्था बनाये रहने की जिम्मेदारी कोई मित्र स्वजन उठा सके तो वह भी कम महत्व की बात नहीं है। जिनके बच्चे नहीं हुए है उन्हें तो इस सौभाग्य का समुचित लाभ उठाने के लिये अत्यधिक जोर दिया जा सकता है। यदि वे बच्चे के लिए लालायित फिरते हैं गोद लेने के फेर में फिरते हैं तो उन्हें इस अविवेक के लिए धिक्कार भी जा सकता है।

कई नारियाँ भी ऐसी हो सकती है जो लोक सेवा की क्षमता से सम्पन्न है और पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो चुकी है उनके लिये इस मार्ग का अवलम्बन करना उचित है नारी समाज के पुनरुत्थान का काम नारियाँ ही अग्रिम पंक्ति में खड़ी होकर कर सकती है जहाँ तहाँ साधु−संतों में भी कुछ बीजाँकुर सेवा साधना के पाये जाते हैं। ऐसा अंकुर जहाँ भी हो उसे सींचा जाना चाहिए और कहा जाना चाहिए कि भिक्षा अन्न खाकर तो किया हुआ भजन भी उस अन्नदाता के हाथों बिक जायगा ऐसी विडम्बना से क्या लाभ? सेवा साधना में प्रवृत्त रहना हो तो ही भिक्षा अन्न की सार्थकता है ऐसी स्थिति में रह कर थोड़ा भजन करना हो अधिक ईश्वर अनुग्रह प्रदान कर सकना है आशा तो कम ही है पर कई बार पत्थरों पर भी पेड़ उगते देखे गये है। प्रयत्न करने पर सन्त वर्ग में भी कुछ तो सेवा साधना की ओर मोड़े ही जा सकते हैं।

यह एक बड़ा काम है कि हम अपने क्षेत्र में वानप्रस्थ के लिए आवश्यक वातावरण बनाये और उपयुक्त व्यक्तियों को प्रोत्साहन देकर आगे लायें। आवश्यक नहीं कि पूरा समय देकर परिव्राजक बन कर दूर क्षेत्रों में भ्रमण कर सकने वाले प्रथम श्रेणी के वानप्रस्थ ही सब हो घर पर रह कर अपने क्षेत्र में काम करने के लिए अधिक समय देते रहने वाले द्वितीय श्रेणी के वानप्रस्थ भी अभीष्ट प्रयोजन की एक बड़ी सीमा तक पूरा करते रह सकते हैं। दोनों श्रेणियों में से जो जिस स्तर के लिये उपयुक्त हो उन्हें उसके लिए तैयार करना चाहिए।

जिनकी योग्यता शिक्षा, प्रतिभा नगण्य है, जो जरा जीर्ण हो चुके है उनके लिए अपने घर रहना ही सर्वोत्तम है अपनी स्थिति के अनुरूप वे अपने आस-पास ही जो बन पड़े सेवा कार्य करे। उनके वानप्रस्थ की मनःस्थिति रखना ही पर्याप्त है। बाहर जाकर ज्ञानयज्ञ जैसे महत्वपूर्ण कार्य को वे कहाँ सम्भाल पायेंगे? सेवा करने की अपेक्षा अपने निर्वाह का भार बाहर वालों पर डालेंगे, उन्हें घर छोड़ने के लिए प्रोत्साहन देकर दिग्भ्रान्त नहीं करना चाहिए। स्वभावतः इस महंगाई के जमाने में एक आदमी के खाने पहनने पर साठ सत्तर रुपये से कम खर्च नहीं पड़ता। यदि इससे अधिक मूल्य की सेवा कर सकना सम्भव न हो तो फिर जनता पर भार बनकर पुण्य के स्थान पर पाप क्यों कमाया जाय? वानप्रस्थ के लिये हर किसी को नहीं ऐसे व्यक्तियों को ही प्रोत्साहित करना चाहिए जिनमें सेवा क्षमता की मात्रा पर्याप्त हैं ऐसे लोगों के पास घर की आजीविका है तब तो उस सेवा साधना के दिनों में भी खर्च अपना ही करना चाहिए ताकि पुण्य परमार्थ का समुचित संचय हो सके। वैसा प्रबन्ध न हो तो अधिक से अधिक भोजन, वस्त्र जैसी निर्धन देश के स्तर का निर्वाह सामग्री ही उपलब्ध की जा सकती है। इससे अधिक कमाने पर संचय करने की बुद्धि लेकर तो इस पवित्र क्षेत्र में किसी को प्रवेश ही नहीं करना चाहिए। धर्म को व्यवसाय बनाकर चलने वालों की तो घोर भर्त्सना ही की जा सकती है। वेतन, पारिश्रमिक या दान-दक्षिणा लेने की जिन्हें आवश्यकता प्रतीत हो उन्हें वानप्रस्थ क्षेत्र में प्रवेश नहीं ही करना चाहिए।

प्रयत्न यह भी किया जा रहा है कि वानप्रस्थों को अपना स्थाई निवास केन्द्र भी हरिद्वार ही बन जाय। कार्य क्षेत्र में अधिक दिन काम करने के उपरान्त वे वहीं लौटकर निवास विश्राम किया करें। वर्ष में कुछ महीने अपनी योग साधना तपश्चर्या एवं ज्ञान सम्पदा का अभिवर्धन किया करे। इस प्रकार हर वर्ष कुछ समय आत्मशोधन एवं आत्म-विकास का विशेष क्रम अपनाते हुए कार्य क्षेत्र में नई स्फूर्ति एवं नई शक्ति के साथ प्रवेश किया करे। उतने समय उनके निवास, विश्राम, भोजन आदि की अभी सुविधाएं आश्रम में उपलब्ध रहें।

जिनकी पत्नी अथवा माता आदि एकाध आश्रित है उनको भी वे इस वानप्रस्थाश्रम में छोड़कर जा सकते हैं उनके निर्वाह शिक्षण की व्यवस्था यहाँ चलती रहेगी ओर वे निश्चिन्तता पूर्वक कार्य क्षेत्र में काम करते रहे सकेंगे। अच्छा तो यह होता कि छोटे गृहस्थ वालों के परिवार का निर्वाह और प्रशिक्षण की यही व्यवस्था होती और जिनके पीछे छोटा परिवार है वे भी निश्चिन्त होकर सेवा क्षेत्र में उतर कर अपनी प्रतिभा से समाज को लाभान्वित कर सके। यह बड़ी व्यवस्थाएँ है। इनको बड़े साधन चाहिये। यदि वे जुट सके तो निश्चित रूप से ऊँचे स्तर के लोक-सेवकों की संख्या ओर भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध कर सकना सम्भव हो जायगा। अभी तो केवल वानप्रस्थों के शिक्षण की ही व्यवस्था बनाई जा सकती है।

वानप्रस्थ प्रशिक्षण के लिए शांतिकुंज, सप्तसरोवर हरिद्वार में प्रबन्ध किया जा रहा है 100 वानप्रस्थों के प्रशिक्षण के लिए स्थान की व्यवस्था हो रही है। पाठ्यक्रम छह महीने का रखा गया हैं भोजन व्यय शिक्षार्थी स्वयं ही बहन करेंगे ऐसी आशा की गई है। पर कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जिनके पास वैसी व्यवस्था न हो और शिक्षा से वंचित रहना पड़े। ऐसे लोगों की सहायता उन्हें करनी चाहिए जो स्वयं तो वानप्रस्थ लेने की स्थिति में नहीं है। पर दूसरों को सुविधा देकर उनके मार्ग की अड़चन आर्थिक रूप से छल करने में समर्थ है। ऐसा प्रबन्ध बन पड़ने में भी अनेक सुयोग्य सेवा-भावी किन्तु आर्थिक अड़चन के कारण मन मसोस कर बैठने वालों का पथ प्रशस्त हो सकता है।

साधना पाठ्यक्रम छह महीने के है जो माघ सुदी पूर्णिमा ओर श्रावण सुदी पूर्णिमा से तदनुसार 6 फरवरी 74 से और 6 अगस्त 74 से आरम्भ होंगे। किन्तु जो लोग अभी बहुत अधिक व्यस्त उतने समय की छुट्टी नहीं पा सकते। प्रथम श्रेणी का परिव्राजक वानप्रस्थ भी जिन्हें लेना नहीं उनके लिए काम-चलाऊ विशेष शिक्षण सत्र छह सप्ताह का लाभ करेगा। उसकी व्यवस्था 15 मई से 30 जून तक और 25 नवम्बर से 30 दिसम्बर तक ही हुआ करेगी। पर चूँकि वानप्रस्थ विद्यालय का प्रबन्ध फरवरी 74 से होने जा रहा है अस्तु विशेष शिक्षण रात्र की व्यवस्था 25 मई 74 से ही आरम्भ हो सकेगी।

वानप्रस्थ विद्यालय में प्रवेश हर किसी को चाहे जब न मिल जाय ऐसा संभव न हो सकेगा। इसके लिये विद्यालयों में प्रवेश पाने के ढंग से ही अपने समग्र परिचय के साथ आवेदन पत्र ही भेजना चाहिए और स्वीकृति मिलने के बाद ही आवश्यक तैयारी करनी चाहिए। इसके लिये अलग से फार्म आदि अभी नहीं छपाये गये है। इसी अंक में अगले पृष्ठ पर एक प्रश्नावली छपी है उसका अधिकाधिक विस्तार पूर्वक उत्तर देना चाहिए। इसी आधार पर प्रवेश देने के लिए विचार किया जायगा। स्वभावतः शिक्षार्थियों की संख्या बहुत अधिक होगी-स्थान बड़ी कठिनाई से एक सौ का बनाया जा सका है। ऐसी दशा में किस-किस सत्र में प्रवेश मिले इसके लिए प्रतीक्षा भी करनी पड़ सकती है आवश्यक नहीं कि सभी आवेदन कर्त्ताओं को प्रथम सत्र में ही आमन्त्रित कर लिया जाय।

वानप्रस्थ परम्परा के पुण्य प्रवाह को पुनः गतिशील बनाने की महत्ता को यदि समझा जा सके तो स्वभावतः अपना कर्तव्य हो जाता है कि इसे प्रखर एवं अग्रगामी बनाने के लिए शक्ति भर प्रयत्न करने की तत्परता में कुछ कमी न रखे।


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