नारी उत्कर्ष के लिये महिला वानप्रस्थों की आवश्यकता

July 1973

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आमतौर से यह समझा जाता है कि वानप्रस्थ-संन्यास आदि माध्यमों का अवलम्बन लेकर परमार्थ जीवन में प्रवेश करने का अधिकार केवल पुरुषों को ही है, महिलाओं को घर गृहस्थी के काम ही सँभालने चाहिए। परिवार के उत्तरदायित्वों से निवृत्ति मिलने की स्थिति होने पर भी उन्हें घर में ही रहना चाहिये। अधिक से अधिक यह सोचा जा सकता है कि यदि पति वानप्रस्थ ग्रहण करे तो उसकी सेवा-सहायता के लिए वह भी साथ जा सकती है। इन्हीं मान्यताओं का प्रचलन रहने के कारण अपने देश में परमार्थ परायण महिलाओं की संख्या अत्यन्त स्वल्प ही दृष्टिगोचर होती हैं फिर कही कोई है भी तो उनका कार्यक्षेत्र किसी कुटी आश्रम तक सीमित रह रहा होगा-परिव्राजक जीवन बिताने की रीति-नीति अपनाने का साहस कोई बिरली ही कर पा रही होंगी।

इस स्थिति को बदला जाना चाहिए और वातावरण ऐसा उत्पन्न किया जाना चाहिये, कि उत्तरदायित्वों से निवृत्त महिलाओं को भी विश्व मानव के पुनरुत्थान अभियान में उत्साहपूर्वक नियोजित किया जा सके।

सर्वविदित है कि सामान्यतया समस्त संसार में और विशेषतया भारतवर्ष में नारी को मानवी अधिकार की दृष्टि से दूसरे दर्ज का नागरिक माना जाता है। उसकी गणना पुरुष की उपयोग सामग्री में की जाती है। प्रारम्भ से लेकर अन्त तक उसे वाधिक-प्रतिबन्धित स्थिति में कारागृह के कैदी की तरह पुरुष की दया पर आश्रित रहकर जीवनयापन करना पड़ता है। प्रजनन का अतिरिक्त उत्तरदायित्व उसे ही वहन करना पड़ता है, शिशु पोषण का भार उसी पर पड़ता है- इस स्थिति में वह उपार्जन की क्षमता खो बैठती है। पुरुष उसे रोटी देता है, उसके बदले में वह उस पर इतने अमानवीय प्रतिबन्ध लगता है, जो पशुओं से भी गये बीते होते हैं।

पशु वर्ग में मुँह पर घूंघट डालने का- स्पष्ट शब्दों के साथ मुँह न खोल सकने का प्रतिबन्ध कहाँ है? पर मनुष्य समाज में वैसी प्रथा प्रचलित है और उसे कुलीनता का चिन्ह माना जाता है व्यभिचार की बात ले तो पुरुष को उस संदर्भ में खुली छूट है पर यदि नारी से कभी कोई ऐसा कदम उठा जाय तो उसकी खैर नहीं। परित्याग किये बिना या प्राण लिए बिना पति को- ससुराल वालों को- चैन ही नहीं। दोष अकेली नारी का ठहराया जाता है, मानो पुरुष पर तो उस तरह का कोई प्रतिबन्ध था ही नहीं। पाप, दोष और दण्ड की भागिनी तो अकेली नारी ही है। विवाह की आचार संहिता में भी ऐसे ही जमीन आसमान जैसे अन्तर रखे गये है। पुरुष कई विवाह कई बच्चों के रहते हुये भी कर सकता है। पर नारी इस प्रकार के अधिकारों से वंचित है। विधुर और विधवा के लिए विवाह की आचार संहिता एक जैसी कहाँ है?

नारी को सुसज्जा एवं श्रृंगार की अनुगामिनी बनाने के लिए पुरुष की कामुक, कुचेष्टा ही उत्तरदायी है। चूँकि उसे रमणी और कामिनी का कलेवर अधिकाधिक आकर्षक एवं उत्तेजक चाहिए इसलिए नारी को ऐसे मनोवैज्ञानिक जाल-जंजाल में फंसा दिया गया है कि वह पुरुष की इच्छापूर्ति के लिए कठपुतली का अभिनय स्वेच्छापूर्वक करने लगे। नारी की प्रशंसा उसके यौवन और सजधज के साथ जोड़ दी गई है। ऐसी दश में उसे अपनी मनःस्थिति ऐसी ही ढालनी पड़ी है ताकि वह अधिकाधिक आकर्षक दीखने लगे। इसमें कितनी करुणाजनक विवशता और पराश्रियता दृष्टिगोचर होती है। बेचारी कितनी पर मुखापेक्षी हो गई इसे देखकर रुलाई आती है। यदि शृंगारिकता आवश्यक ही थी तो पुरुषों को भी वैसी ही टीपटाप भरी चित्र विचित्र स्थिति में रहना चाहिए था। उसकी केश सज्जा-हाथों में मेंहदी, शिर पर बिन्दी मांग में सिन्दूर और पैर में बिछुए- होठों पर लाली आंखों में काजल लगाकर ही घर से बाहर निकलना चाहिए था सुसज्जा और शृंगारिकता यदि अच्छी बात है तो नारी की तरह ही वह भी उसे क्यों न अपनाये?

बाध्य सन्तानोत्पादन ने नारी के स्वास्थ्य को कितना जर्जरित करके रख दिया है-प्रसव में कितनी बड़ी संख्या में वे आये दिन मक्खी-मच्छरों की तरह प्राण गँवाती हैं इस प्रथा प्रचलन में आये हुए हत्याकाँड को देख कर छाती फटती है। रुग्ण नारी को भी बख्शा नहीं जाता कि वह जो कष्ट सह रही है उसे वहन करने से छुटकारा मिलने तक वह प्रजनन के अतिरिक्त कष्ट से बची रह सके। उसकी विवशता दुहरा त्रास सहने के लिए बाध्य करती है और अन्ततः अकाल मृत्यु की गोद में जाकर ही उसे पुरुष के अत्याचार से छुट्टी मिलती है।

लम्बा चौड़ा दहेज देने की स्थिति पिता की न हो-लड़की उर्वशी के कम रंग रूप वाली हो-काली कुरूप हो तो उसे रद्दी नीलामी माल की तरह हर जगह दुरदुराया जाता है बेचारी को पग-पग पर अपमानित होना पड़ता है। ऐसी लड़कियां आजीवन कुमारी रहती। बूढ़ों के गले मढ़ी जाती- आत्म-हत्या करती और ऐसी ही किन्हीं दर्दनाक स्थिति में पड़ी पाई जाती है लड़कों को तो रूप की प्यास है चमड़े का रंग और नख-शिख का बनाव यदि वेश्या नर्तकियों से मिलता जुलता हो तो ही वह वर महोदय की आंखों में चढ़ेगी अन्यथा विवाह के दिन से लेकर मौत के दिन तक उसे पग-पग पर अपमान और उपेक्षा की लाठियों से ही पीटा जाता रहेगा। कुत्ते की तरह रोटी के टुकड़े किसी प्रकार मिलते रहे तो बात दूसरी है। ऐसी घटनाओं की संख्या कम नहीं जिसमें कुरूप वधू से पिण्ड छुड़ाकर सुन्दर नई नवेली लाने के लिए उस बेचारी के प्राण हरण कर लिए गये। ससुराल के वातावरण में वधू अकेली पड़ती है- वहाँ उसका कोई अपना नहीं होता, ऐसी दशा में उसकी जान ले लेने के अनेक मन्द एवं तीव्र तरीकों में से कोई आसानी से अपना लिया जाता है। पिता विवाहित लड़की को घर रखने में अपनी बेइज्जती समझता है, ससुराल में उसकी आवश्यकता नहीं- ऐसी दशा में बाधित मरण ही उसे दयनीय स्थिति से छूटने का रास्ता रह जाय तो इसे कितनी मर्मवेधी स्थिति कहा जायगा। गोदी में आये बच्चों के पालन का कोई आश्रय न देखकर नारी को आजीवन अनवरत पददलित स्थिति शिरोधार्य करने के लिए बाध्य होना पड़े तो इसे परिस्थितियों पर पिशाच का खूनी पंजों वाला साम्राज्य छाया हुआ ही माना जा सकता है।

ऐसे ही अनेक कुचक्रों में चिर अतीत से पिसती चली आ रही नारी को भी नव-युग से न्याय पाने की आशा करनी चाहिए। उसके साथ बरते जाने वाले निर्मम शोषण का अन्तर होना चाहिए। प्रगति के द्वारा उसके लिए भी खुलने चाहिए। मानवी अधिकार की प्रकाश किरणें उस तक भी पहुँचनी चाहिए। यह कार्य अनायास ही सम्पन्न नहीं हो सकता। अनीति से त्राण किसी देश या समाज को ऐसे ही अपने आप मिल गया हो ऐसा कहाँ हुआ है? कब हुआ? जो अनीति, प्रथा परम्परा बन कर औचित्यों को संज्ञा तक जा पहुँचती है, उसकी जड़े उखाड़ना कितना कठिन पड़ता है इस तथ्य को सहज ही समझा जा सकता है। इसके लिए प्रचारात्मक और संघर्षात्मक विविध मोर्चे खड़े करते रहते हैं। नारी के पुनरुत्थान में उससे कही अधिक बड़े और गहरे प्रयास करने पड़ेंगे जैसे कि राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए समय-समय पर करने पड़े है।

नारी को न्याय मिले-उसे अनीति उत्पीड़न से राहत मिले-मानवी अधिकारों का वह भी उपयोग कर सके इसके लिए सदियों पुरानी मूढ़ताओं और दुष्टताओं से लोहा लेना पड़ेगा। नारी को इस योग्य बनाना पड़ेगा कि वह अपनी दयनीय स्थिति को समझ सके और उससे त्राण पाने के लिए आकुलता जागृत कर सके। इसके लिए आरम्भिक कदम नारी शिक्षा ही हो सकती है। ऐसी शिक्षा जो न केवल अक्षर ज्ञान कराके उसे नौकरी चाकरी कर सकने लायक ही बना भर दे वरन् उसे अपनी आत्मा और स्थिति का भी स्मरण दिला सके। कुछ कर गुजरने की हिम्मत और दिशा प्रदान कर सके। इसके लिये कितना कुछ करने के लिए आकाश जैसा विशाल काय कार्यक्षेत्र सामने पड़ा है पर उसे संभाल सकें ऐसे देव-मानवों का सब ओर घोर अभाव ही दीख रहा है।

नारी सेवा के नाम पर उन्हें कटाई सिलाई सिखा देने की उद्योगशालाएँ जहाँ-तहाँ खुलती दिखाई पड़ती है। मानो नारी को दुःख एकमात्र रोटी न मिलने का ही हो। इसी प्रकार शिक्षाशालाएँ भी यहीं तक अपना कर्तव्य पूरा कर लेती हैं कि लड़कियां उपाधि धारी बनकर अच्छा घर वार पा सकें या आवश्यकतानुसार नौकरी कर सकें। इस अधूरी शिक्षा से उनकी दयनीय सामाजिक दुर्दशा का अन्तर कहाँ हुआ? पेट भरने को तो पहले भी विधवाएँ चक्की, चरखा आदि का आश्रय लेकर गुजारा कर लेती थी अब भी वे रोटी बनाने, वर्तन माँजने का धन्धा अपनाकर अशिक्षित होने पर भी गुजारा कर सकती है। प्रश्न गुजारे का नहीं-उनकी आत्मा को जगाने का-सामाजिक अत्याचारों से मुक्ति दिलाने का है। इस युग की असली नारी शिक्षा का प्रयोजन यही होना चाहिए, और उसके लिए प्रौढ़ पाठशालाएँ नारी चल-पुस्तकालय, विचारगोष्टियां, सुधार वादी महिला संगठन, महिला जागरण का साहित्य प्रकाशन, चित्र प्रदर्शनियाँ आदि की विशाल शृंखला चलनी चाहिये। कढ़ाई, बुनाई सिखाने के स्कूल पर्याप्त नहीं।

ऐसे अर्थ-तन्त्र खड़े होने चाहिए जो निराश्रित नारी द्वारा उत्पादन कराये और उसकी खरीद विक्रय का सारा उत्तरदायित्व स्वरूप वहन करे। कार्यकर्त्री महिलाओं आवास-निवास एवं प्रशिक्षण का प्रबन्ध करे ताकि पीड़ित नारी को वहाँ आश्रय लेकर अपने बच्चों सहित राहत भरा जीवन जी सकने की सुविधा मिले। इस प्रयोजन के न जाने कितने प्रचार-कितने अधिक संस्थान खड़े करने पड़ेंगे। महिला जागरण के लिये-पुरुषों में न्यायबुद्धि उत्पन्न करने के लिए-समाज कर्णधारी नर-नारी के बीच प्रस्तुत असमानता हटाने को सहमत करने के लिए-न जाने कितने बड़े प्रयास करने पड़ेंगे। नारी पुनरुत्थान की योजनायें। इतनी गहराई के साथ खड़ी की जा सके तभी कुछ काम चलेगा। ऊपर की लीपा-पोती तो एक विनोद मात्र बनकर रह जायगी।

यह कार्य कौन करे? इन प्रयासों का नेतृत्व किसके हाथ में हो? इसका उत्तर सही उत्तर प्राप्त करने के लिए नारी का ही मुँह तकना पड़ेगा। उसे ही अग्रिम पँक्ति में खड़ा करना पड़ेगा। पुरुष का इसमें प्रबल समर्थन होना ही चाहिए। आवश्यक साधन उसे ही जुटाने चाहिए। पीढ़ियों से चले आ रहे पाप का प्रायश्चित वह उसी प्रकार कर सकेगा कि नारी जागरण के प्रचण्ड आन्दोलन खड़े करने के लिए वह अधिक से अधिक ध्यान केन्द्रित के और अधिक से अधिक साधन जुटाये। इतने पर भी इस महा अभियान का प्रत्यक्ष नेतृत्व नारी के ही हाथ में रहना चाहिए। अग्रिम पंक्ति में उसे ही खड़ा होना चाहिए। नारी से सीधा संपर्क स्थापित कर सकना-घरों में प्रवेश कर सकना-महिलाओं से जी खोलकर बाते कर सकना-उन्हें साथ लेकर चल सकना केवल नारी के लिए ही सम्भव हो कसता है वर्तमान स्थिति में-भारत जैसे पिछड़े देश में-पुरुष वर्ग के लिए इस क्षेत्र में अधिक गहरा प्रवेश कर सकना कठिन है।

लेख का आरम्भ महिलाओं के वानप्रस्थ की चर्चा के साथ हुआ था। वर्तमान परिस्थिति पुकारती है कि महिलाओं को नारी जागरण का व्रत लेकर अधिकाधिक मात्रा में वानप्रस्थी बनना चाहिए ओर जिस प्रकार पुरुषों के लिए पुरुषवर्ग में कार्यक्षेत्र खुला पड़ा है उसी प्रकार अछूते नारी क्षेत्र में प्रवेश करके उन्हें अपने विशिष्ट कर्तव्य पालन में जुट जाना चाहिए-पुरुषों को लैक्चर झाड़ने के लिए पहले से ही पुरुष उपदेशकों की भीड़ बहुत बड़ी संख्या में मौजूद हैं उसी में कुछ नारियाँ भी घुस पड़े तो नारी के प्रति सहज आकर्षण होने का मनोविज्ञान उन्हें कुछ अधिक स्वागत प्रदान कर सकता है पर उससे काम कुछ न बनेगा। महिला प्रचारिकाओं का अपना अछूता क्षेत्र ही संभालना चाहिये और उसी के संदर्भ में सोचना, करना चाहिये। यो वे पुरुषों को भी आवश्यकतानुसार उद्बोधन करें-इसके लिये कोई बन्धन नहीं है पर स्मरण रहे वह उनका मुख्य कार्यक्षेत्र नहीं है संभालना तो उन्हें नारी जागरण को मोर्चा ही चाहिए, उनके प्रवचन एवं कर्तृत्व का केन्द्रबिन्दु नारी कल्याण की महती आवश्यकताओं की पूर्ति को ही निर्धारित किया जाना चाहिये इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए महिला वानप्रस्थिनियों की बहुत बड़ी संख्या में आवश्यकता पड़ेगी। सो उसकी पूर्ति के लिए प्रत्येक विचारशील को प्रबल प्रयत्न करना चाहिए।

पुरुषों की तरह महिला वानप्रस्थों की भी दो श्रेणियाँ हो सकती है एक वे जिनके पारिवारिक उत्तरदायित्व अभी शेष है और जो घर परिवार की देखभाल करते हुए अपने स्थानीय क्षेत्र में नारी जागरण के लिए थोड़ा-बहुत समय निकालती रह सकती है दूसरी वे जो देशव्यापी धर्म-शिक्षण के लिए दूर-दूर तक जा सकने की सुविधा से सम्पन्न है जिनके पारिवारिक उत्तरदायित्व दूसरों के कंधों पर चल गये और बिना कठिनाई के परिव्राजक स्थिति अपना सकती है इसके अतिरिक्त महिला वानप्रस्थों का एक तीसरा वर्ग भी हो सकता है। जो अपने पति वानप्रस्थों के साथ कंधों से कन्धा मिलाकर काम करती रह सके। कुछ साधन सम्पन्न महिलाएँ छात्रावासों को अथवा सुयोग्य सम्बन्धियों को बच्चों के उत्तरदायित्व सँभालकर भी सेवाक्षेत्र में उतर सकती है।

विधवाओं, परित्यक्ताओं ओर बड़ी आयु वाली कुमारियों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिनके लिए अब विवाह के द्वार एक प्रकार से बन्द ही हो चुके है। बच्चों के उत्तरदायित्व जिन पर नहीं है उनके लिये इस आत्म कल्याण ओर सेवा साधना पवित्रतम कार्यक्षेत्र ईश्वरी वरदान की ही तरह मंगलमय माना जा सकता है। सन्तान न होने का लाँछन लगाकर जिनके पति दूसरा विवाह करने के लिए आतुर है, उनके दुष्कर्म को खुल खेलने देने के लिए विचारशील महिलाएँ रास्ता खाली कर सकती है और रोज के ताने सुनती हुई अपने को बिना आग के जलते रहने से बचा सकती है। ऐसी महिलायें समझ सकती है। मानो प्रस्तुत असुविधाजनक स्थिति ईश्वर ने उन्हें इसी विशेष प्रयोजन के लिए वरदान रूप में प्रदान की है। यदि भौतिक लालसाओं से होकर वे इस प्रकार की भावनात्मक उत्कृष्टता अपनाने वाला साहस एकत्रित कर सके तो समझना चाहिये उनका दुर्भाग्य सच्चे अर्थों में सौभाग्य बन गया। इससे वे अपना ही नहीं समस्त मानव समाज का नारी समाज का हित साधन करती हुई धन्य बन सकेगी।

प्रशिक्षण पुरुषों की तरह नारी वानप्रस्थों का भी आवश्यक है कम से कम उन्हें छह महीने आत्मशोधन की स्थित तपश्चर्या करनी चाहिए और अपने लिये उपयुक्त सेवा धर्म की कार्यपद्धति का ज्ञान संचित करना चाहिये। जिन्हें परिव्राजक बनना है। उन्हें दो महिला सहेलियों के रूप में जोड़ बनाकर रहना होगा। एकाकी महिला प्रचारिका की बात अपने देश में उतनी उपयुक्त नहीं। दो महिलाओं का जोड़ा जहाँ परस्पर एक दूसरे के लिये दैनिक कार्य कलाप में सहयोगी सहायक हो सकता है वहाँ कार्यक्षेत्र में मिलजुल कर काम करते हुये नारी सुलभ संकोच शीलता की कठिनाई भी सामने न आवेगी। दोनों मिलजुल कर एक-दूसरे को उत्साह देती रहेंगी और परामर्श विचार विमर्श द्वारा उपयोगी निष्कर्ष निकालती रहेंगी। सबसे बड़ा लाभ इस जोड़ प्रक्रिया का यह है कि उनकी चरित्रनिष्ठा पर किसी कुतर्की को भी उँगली उठाने का अवसर न मिलेगा। एकाकी कार्य करने वाली महिलायें यदि आयु की दृष्टि से सफेद बालों की स्थिति में नहीं पहुँची है तो लोग काना-फूसी भी कर सकते हैं। पर दो की जोड़ी बनाकर रहने वाली महिलाएं उस तरह की चर्चा में भी पूर्णतया सुरक्षित रह सकती हैं। अच्छा तो यह है कि जिन्हें वानप्रस्थ लेना हो वह अपनी एक परिचित सहेली को भी तैयार करके जोड़ी के साथ कदम बढ़ाये। यदि वे ऐसी उपयुक्त साथिन स्वयं नहीं ढूंढ़ सकेगी तो शांति कुंज उसके लिये प्रयत्न करेगा और जोड़ी के साथ ही उन्हें बाहर जाने का साधन जुटायेगा। जिन्हें अपने घर ही रहकर-स्थानीय क्षेत्र में काम करना है उन्हें इस प्रकार की जोड़ी ढूंढ़ना अनिवार्य नहीं। यो साथिन के साथ सुविधा का रहना तो स्पष्ट और निश्चय ही है।


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