आत्म कल्याण की समग्र साधना और उसका स्वरूप

July 1973

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आत्म-कल्याण का जीवन लक्ष्य प्राप्त करना प्रत्येक भावनाशील भारतीय को स्वभावतः अभीष्ट है। इसके लिए प्रत्येक धर्म ,प्रवृत्ति का व्यक्ति उत्सुक रहता है, उपाय भी पूछता और ढूँढ़ता है- कुछ न कुछ करता भी है, पर दुर्भाग्य यात्रा के आरम्भ में ही आ खड़ा होता है जब कि उसे भ्राँत मान्यताओं में उलझा दिया जाता है। यों अपना देश भ्रान्तियों का देश है, यहाँ हर दिशा में इतनी मूढ़ मान्यताएं जड़ जमाये बैठी हैं मानों हम एक लाख वर्ष पुराने आदिमकाल में रह रहे हाँ। हमारा समाज शरीर गलित कुष्ठ के पीड़ितों जैसा हो रहा है। इसमें इतने सड़न भरे व्रण उभरे हुए हैं कि स्थिति कई बार तो निराशाजनक दीखने लगती है। ऊँचे-नींव, मूल जाति-प्रथा, विवाहों में होने वाले अपव्यय और नारी के प्रति चल रहे अन्याय और भिक्षा-व्यवसाय को जन मान्यता मिलने की थोड़ी सी बातों पर ही ध्यान दें तो पता चलेगा कि वह कितने भयावह गर्त दलदल में है- और इनमें धंसे-फंसे समाज को कितना कुछ सहन करना पड़ सकता है- सहना पड़ रहा है।

धर्म और अध्यात्म क्षेत्र में यह दुर्गति और भी आगे बढ़ी-बढ़ी है। इसलिए वह और भी अधिक कष्टप्रद है। पानी से मैल धोया जाता है पर यदि पानी ही मैल से भरा हो तो फिर धुलाई का क्या परिणाम निकलेगा। धर्म को साबुन और अध्यात्म को पानी कह सकते हैं। व्यक्ति और समाज की धुलाई, सफाई इसी आधार पर हो सकती है, पर यदि इन्हीं में मैल भर जाय तो फिर धुलाई से स्वच्छता उपलब्ध होने की बात कैसे बनेगी।

जीवन-लक्ष्य की पूर्ति के ईश्वर की प्राप्ति के, सम्बन्ध में इन दिनों जो मान्यताएं प्रचलित हैं वे बहुत ही भोंड़ी-फूहड़ और अवैज्ञानिक है। उनमें न कोई तथ्य है, न दर्शन, न आधार। भजन करो और मुक्ति पाओ, का नारा ऐसा ही है जैसे कोई चिल्लाने लगें, लाटरी खरीदो और अमीर कहलाओ। इस नारे में भाग्य और चांस की कौड़ी सीधी पड़ जाने पर कुछ तो आशा रहती ही है पर जो नारा इन दिनों धर्म-क्षेत्र में जोर-शोर से लगाया जा रहा है वह पूर्णतया थोथा है। भजन करो और मुक्ति पाओ वाली बात यदि सही होती तो देश में जो 56 लाख से बढ़ कर अब 80 लाख धर्मध्वजी हो गये हैं वे मुक्ति पा लेते और अपने व्यक्तित्व में ऐसी प्रखरता सिद्ध करते जिससे भारत तो क्या समस्त विश्व का कल्याण हो गया होता है। मनुष्य तो क्या- समस्त प्राणिवर्ग ने राहत पाई होती। मुक्त वर्ग का व्यक्तित्व लगभग ईश्वर के समतुल्य ही होता है उसकी प्रतिभा और सत्ता न केवल उस उपलब्धि वाले मनुष्य का ही कल्याण करती है वरन् वह अपने देश, धर्म, समाज और संस्कृति ही नहीं युग का भी उद्धार कर सकती हैं।

यह सही है कि आर्ष ग्रन्थों में भजन की महिमा एक स्वर से गाई है और आप्त पुरुषों ने भजन का महत्व परिपूर्ण समर्थन के साथ प्रस्तुत किया है, पर साथ ही उसके साथ कुछ विशिष्ट आधार भी जुड़े हुये हैं, जिनके सहारे ही भजन रूपी बीज वचन फलदायक हो सकता है। बीज के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता।

मात्र माला सटकने की तोता रटन्त भजन का प्रयोजन पूरा नहीं कर सकती। पुराण पुस्तकों के पन्ने उलटने से स्वाध्याय की उद्देश्य पूर्ति नहीं होती। घर छोड़ देने भर से कोई वैरागी नहीं हो सकता। परमार्थ पथ पर चलने वालों को इतनी सी बालक्रीड़ा करके सन्तुष्ट नहीं होना पड़ता उन्हें और भी ऐसा बहुत कुछ करना पड़ता है जिससे अन्तः चेतना का स्तर महा मानव की ऊँचाई तक पहुँच सके। उपासना केवल पूजा की कोठरी तक सीमित नहीं रह सकती, उसे लोक सेवा के रूप में विकसित होना पड़ता है। यदि यह तथ्य भजन करने वालों को विदित रहा होता तो वे बेचारे निष्क्रिय दिनचर्या अपना कर ऐसे ही कुछ शब्दों की तोता रटन्त से सन्तुष्ट होकर एक कौने में बैठे मौत के दिन गिनने में न लगे रहते। उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व से समाज सर्वथा वंचित होकर न रह जाता है। भजन की उपासना की, उथली परिभाषा में यदि लोग न उलझाये गये होते, इन्हें यथार्थता का बोध कराया गया होता और परमार्थ जीवन के साथ जुड़े हुए परम पुरुषार्थ है के लिए अभीष्ट उत्साह उत्पन्न किया गया होता तो हमारे देश के 80 लाख, भजन को घोषित व्यवसाय बताने वाले भजनानन्दी, अपने में और अपने समाज में प्रचंड प्रखरता प्रस्तुत कर रहे होते। उससे भजन और भजनानंदी दोनों ही धन्य हो जाते हैं। जिस धर्म और अध्यात्म में भजन का गौरव गाया है उसके चरणों पर भी संसार मस्तक झुकाता है, पर ऐसा हुआ कहाँ-एक अंग की पूर्णता मान बैठने से उपहासास्पद स्थिति उत्पन्न होती है, वहीं हमारे भजनानन्दी वर्ग की हो रही है।

अग्नि पर भोजन पकता है तो ठीक है पर साथ ही अग्नि और जल की व्यवस्था भी की जानी चाहिए अन्यथा अकेली अग्नि जुटा लेने से किसी का पेट न भरेगा। किसान को बीज ही नहीं खाद और पानी का भी प्रबन्ध करना पड़ता है। अध्ययन में मनोयोग के अतिरिक्त लेखनी और वाणी का उपयोग भी होता है। पहलवान के लिए व्यायाम अकेला ही पर्याप्त नहीं उसे पौष्टिक भोजन और संयम, ब्रह्मचर्य पालन भी करना होता है। औषधि अकेली ही रोग नष्ट नहीं करती, परहेज और परिचर्या का भी ध्यान रखना पड़ता है। हम अन्न खाकर ही जीवित नहीं रह सकते पानी और हवा भी चाहिए। इमारत अकेली ईंटों से नहीं चुनी जाती उसमें चूना और लकड़ी की भी आवश्यकता पड़ती है। आग अपने आप नहीं जलती रह सकती उसे ऑक्सीजन भी चाहिए और ईंधन भी। मोटर अपने आप नहीं चलती उसके लिए पेट्रोल भी चाहिए और ड्राइवर भी। कारखाने मशीन, पूँजी और श्रमिकों को त्रिविधि व्यवस्था होने पर ही चलते हैं। शरीर, शिर, धड़, और पैर के तीन भागों में विभक्त है। ईश्वर, जीव और प्रकृति के समन्वित प्रयास से यह संसार बना है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश का त्रिवर्ग सुजन, पोषण और संहार ही त्रिविधि गति विधियों का संचार करके विश्वव्यापी हलचल का आधार बना हुआ है। सर्दी, गर्मी, वर्षा की तीन ऋतुएं- शैशव, यौवन और वृद्धता- सत्, रज, तम्- सत्य, शिव, सुन्दर- सत्, चित, आनन्द को त्रिविधि दिव्य धारायें परस्पर अत्यन्त सघनतापूर्वक गुंथी हुई है। उसी प्रकार ज्ञान-योग, कर्मयोग और भक्तियोग के सहारे ही जीवनलक्ष्य की प्राप्ति होती है। ब्रह्मविद्या- तपश्चर्या और लोकसेवा के त्रिविधि आधार लेकर ही समग्र को भजन की समग्रता कह सकते हैं। नाम-जप उसी भजन विज्ञान का एक बहुत छोटा सा पुर्जा है। मात्र पेण्डुलम हाथ में रहने से घड़ी द्वारा टाइम देखने की आवश्यकता पूरी नहीं होती।

भजन की समग्रता और यथार्थता हर किसी धर्म प्रेमी को समझाई जानी चाहिए और हर भजन प्रेमी को इस भ्रम जंजाल से निकाला जाना चाहिए कि वह अमुक मन्त्र-देवता या कर्मकाण्ड को करते रहने मात्र से पूर्णता तक पहुँच सकता है। जिह्वा से कुछ शब्दों का उच्चारण और शरीर तथा पूजा उपकरणों के इधर-उधर हेरा-फेरी जैसे स्वल्प श्रम-साध्य, बाल-कौतुक से आत्म-कल्याण और ईश्वर प्रगति जैसे महान प्रयोजन को प्राप्त नहीं किया जा सकता। बहुमूल्य उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए महँगा मूल्य चुकाना पड़ता है। सस्ते में-सरलतापूर्वक मूल्यवान विभूतियाँ नहीं पाई जा सकतीं। उपासना क्षेत्र में घुसी सट्टेबाजी की प्रवृत्ति हटाई जानी चाहिए और बताया जाना चाहिए- धन से लेकर ईश्वर तक हर घड़ी उपलब्धि के लिए प्रचण्ड पुरुषार्थ से कम में कुछ कहने लायक सफलता नहीं मिल सकती।

शरीरबल सम्पादन के लिए पहलवान को जो करना पड़ता है उससे कम नहीं वरन् अधिक ही चेष्टा आत्मबल सम्पादन के लिए आवश्यक है। सफल कृषक विद्यार्थी-व्यवसायी और अन्वेषी लोगों की पुरुषार्थ का अनुकरण ही आत्मबल सम्पादन करने के लिए भी किया जाना चाहिये। बालक्रीड़ा मात्र में मन नहीं बहलाना चाहिए। कम श्रम और कम समय में बढ़ी-बढ़ी उपलब्धियाँ पाने में अत्युत्साही ही तो शेखचिल्ली जैसे उपहासास्पद बनते हैं। किसी समझदार धर्म-प्रेमी को उथलेपन का परिचय देकर अपने को उपहासास्पद नहीं बनाना चाहिए।

यह तथ्य और यह धर्म अध्यात्मिक क्षेत्र में भली प्रकार समझ लिया जाय तो सस्ता सौदा बेचने वाली दुकानें बन्द हो जाएंगी और लूट के माल से बनी बनने के सपने देखने वाले- बेपर की उड़ाने छोड़कर यथार्थता की भूमि पर विचरण करना आरम्भ कर देंगे। उस स्थिति में सम्भव है कायर, मुफ्तखोर और सस्ती खरीद के लिए आकुल लोगों की भीड़ छँट जाय और यथार्थवादी सीमित संख्या में ही दृष्टिगोचर होने लगें पर इससे एक भारी लाभ होगा कि जो भी अध्यात्म मार्ग के पथिक रहेंगे वे न तो अपने को भटका हुआ अनुभव करेंगे और न खाली हाथ रहेंगे।

भजन कम किया जाय या ज्यादा, पूरा समय लगाया जाय या थोड़ा समय लगाया जाय यह बात पीछे की है पर हर उपासना प्रेमी को यह समझ ही लेना चाहिए कि मात्र मन्त्र-जप या पूजा-परक कर्मकांड आत्म-कल्याण की साधना का बहुत छोटा अंग हैं। उतने भर को पूर्णता मानकर बैठे रहना घातक है। भजन करना हो तो उसके साथ स्वाध्याय का- जीवन-शोधन का और सेवा-साधना का अनिवार्य समावेश उसी प्रकार होना चाहिए जिस तरह कि पूजा में अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, जल आदि के उपकरणों को एकत्रित करना आवश्यक माना जाता है। भजन एक जीवन नीति है- कुछ क्षणों में पूरी हो जाने वाली हलचल नहीं। इस सत्य को अध्यात्मिक जगत में जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है।

व्यस्त और गृहस्थ-जीवन में जिन्होंने थोड़ी बहुत उपासना करने का क्रम बनाया है उन्हें भी इस सिद्धान्त को ध्यान में रखकर चलना चाहिये। भगवान का भजन-ध्यान उनकी संक्षिप्त योगाभ्यास प्रक्रिया है। गायत्री-जप के साथ ही सविता देवता की ज्ञान-ज्योति का अवतरण अपने रोम-रोम में होने का ध्यान करने के लिए सर्वसाधारण को कहा जाता रहा है। सामान्य उपासना की दृष्टि में यह उत्तम पूजा-पद्धति है। जप-ध्यान के उपरान्त सूर्यार्घ चढ़ाया जाय और भावना की जाय वह जल मेरे व्यक्तित्व का प्रतीक है। जिसे सूक्ष्मात्मा- सविता के चरणों में समर्पित किया जा रहा है। भगवान इसे स्वीकार करे और भाप, वर्षा, ओस, बूंदें, बनाकर इसे विश्व की सुख साधना के लिए उन्मुक्त आकाश में छितराते। यज्ञ में जो उद्देश्य वसोधरा का है वही दैनिक जप में सूर्यार्घ का है। व्यष्टि का समष्टि में समर्पण-स्वार्थ का परमार्थ में समापन- यही हे आत्मा की परमात्मा में परिणति, ईश्वर प्राप्ति या ब्रह्मा-निर्वाण अथवा भव बन्धनों से मुक्ति इसी का नाम है। उपासना के समय पूजन, जप, ध्यान, सूर्यार्घ आदि भजन कृत्यों को इसी उद्देश्य से किया जाना चाहिए। संक्षिप्त योगाभ्यास की पूर्ति यह दैनिक पूजा-प्रक्रिया किसी हद तक कर देती है। व्यस्त जीवन में भी इतना क्रम तो चलना ही चाहिए।

किन्तु स्मरण रखा जाय यह कृत्य भी एकाकी ही है। इससे समग्र साधना की उद्देश्य पूर्ति नहीं होती। नित्य मन पर चढ़ने वाले दूषित वातावरण के बुरे प्रभाव की गन्दगी बोने के लिए स्वाध्याय का- मनन-चिन्तन का प्रयोग नित्य, नियमित रूप से करना चाहिए। जीवन को परिष्कृत और उदार बनाने की प्रेरणा भरने वाला साहित्य स्वाध्याय के लिए चुन लेना चाहिए और उसे मनोयोगपूर्वक पढ़ने के लिए कोई न कोई समय निश्चित निर्धारित कर ही लेना चाहिए। फुरसत के समय यहाँ तक कि रास्ता चलने भी पढ़ना पड़े तो भी चलेगा आत्म-चिन्तन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण, आत्म-विकास की चतुर्विध आवश्यकताओं को कैसे पूरा किया जा सकता है? वर्तमान ढर्रे में क्या सुधार परिवर्तन किस क्रम में होना चाहिए इसी प्रकार की योजनाएं मनन-चिन्तन में बनाई जाती है। ज्ञानयोग की साधना के लिए उपासना के अतिरिक्त स्वाध्याय और आत्म-चिन्तन का अवसर रहना ही चाहिए।

भजन का तीसरा चरण है सेवा-साधना। कहना न होगा कि इस युग में सबसे अधिक आवश्यकता और सबसे अधिक महत्वपूर्ण परमार्थ जन-मानस का भावनात्मक परिष्कार ही है। समस्त उलझने, निकृष्ट विचारणा ने ही उत्पन्न की हैं और अब, या हजार वर्ष बाद जब भी विश्व-शान्ति की आधारशिला रखी जायगी तब विचारणा का स्तर ऊँचा उठाने वाले क्रिया-कलापों को ही प्राथमिकता दी जायेगी। हमारी सेवा-साधना का लक्ष्य ज्ञान यज्ञ का विस्तार ही होना चाहिए। विचार क्रान्ति वह प्रधान आवश्यकता है जिसकी शाखा-प्रशाखाएं अवाँछनीयताओं के उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के रूप में फूटती दिखाई पड़ेंगी। हर धर्म प्रेमी को ईश्वर भक्त को-उपासना परायण और ज्ञान-यज्ञ के विस्तार में अपना योगदान देना चाहिए और सेवा धर्म का पालन करते हुए आत्म-विस्तार के चरम-लक्ष्य तक पहुँचना चाहिए।

यह त्रिविधि साधना-पद्धति व्यस्त और गृहस्थ लोगों के लिए हैं। जिनकी भावनाएँ जितनी प्रखर हो चली हैं उन्हें उसी स्थिति के अनुरूप उपरोक्त तीनों कार्यों में बढ़ा-चढ़ा श्रम, साहस करना चाहिए। वानप्रस्थ जीवन में इन तीनों चरणों की पूर्ति के लिए अधिकाधिक समय लगाना और अधिकाधिक अभिरुचि के साथ-प्रगाढ़ निष्ठा के साथ मनोयोग केन्द्रित करना पड़ता है। उपासना परक योगाभ्यास और तप साधना की दृष्टि से पंचकोशों का अनावरण और षटचक्रों का वेधन बहुत ही उपयुक्त प्रयोग, इसमें मनोविज्ञान और साधना विज्ञान के अत्यन्त महत्वपूर्ण रहस्यों का समावेश है सिद्धियों और विभूतियों की आशाजनक सम्भावना उस क्षेत्र में समाविष्ट है। कौन साधक क्या साधना करे, इसका निर्णय इस साधनाक्रम में से कौन किस प्रकार किस प्रक्रिया का आरम्भ, अभिवर्धन करे इसका निर्णय करने के पूर्व साधक का आन्तरिक स्तर देखना पड़ता है। हर रोगी के लिए एक ही दवा फिट नहीं पड़ती, प्रकृति के अनुरूप चिकित्सा क्रम में परिवर्तन करना पड़ता है इसी प्रकार उपासना पद्धति निर्धारण करते समय व्यक्ति विशेष की प्रकृति और स्थिति का ध्यान रखना होता है।

ज्ञान-साधना के बारे में भी यही बात है। किसी व्यक्ति का पूर्व ज्ञान किस स्तर का है उसे देखते हुए आगे की शिक्षा-प्रक्रिया निर्धारित की जाती है। इतने पर भी यह स्पष्ट हे कि आत्म-परिष्कार और लोकसेवा के मार्ग में आने वाली समस्याओं का समाधान करने की रीति-नीति जानना ही इस प्रशिक्षण का उद्देश्य होता है। उसी परिधि में की जाने वाली ज्ञान-साधना का महत्व है। प्राचीनकाल के ग्रन्थों को पढ़ते रहने का जाल-जंजाल इतना बड़ा है कि उसे अनेक जन्मों में भी पार नहीं किया जा सकता। शिक्षा सोद्देश्य होनी चाहिए- वानप्रस्थों की भी।

सेवा साधना के लिए इन दिनों हमें एक ही केन्द्र पर केन्द्रित होना है- ज्ञान यज्ञ, ज्ञान-यज्ञ, ज्ञान-यज्ञ। विचार-क्रान्ति- विचार-क्रान्ति। चूँकि अपना कार्य भावनाओं के परिष्कार से सम्बन्ध रखता है इसलिए उसके साथ अध्यात्म की पृष्ठभूमि ही रह सकती है। धर्म का तत्व दर्शन ही इस प्रयोजन की पूर्ति कर सकता है। भावनाओं का स्पर्श करने और उन्हें मोड़ने उभारने के लिए धर्म-चिन्तन और धर्म कलेवर को ही आधार बनाना होगा। यह कार्य न राजनैतिक स्तर पर हो सकता है और न सामाजिक आर्थिक आधार पर समझाने से काम बन सकता है। यह उथली पृष्ठभूमियाँ हैं- जिन्हें अपनाकर किसी को आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता। नवनिर्माण के लिए सर्वसाधारण को कुछ त्याग करने, कुछ कष्ट सहने के लिए ही तो बाध्य किया जायगा। इसके बिना सर्वतोमुखी सुजन की आवश्यकता पूरी हो ही नहीं सकती। जन-मानस में इस प्रकार की उत्कृष्टता केवल धर्मक्षेत्र की भावुकता ही उत्पन्न कर सकती है। इसलिए वानप्रस्थों की सेवा-साधना की दिशा धर्म-कलेवर को पृष्ठभूमि बनाकर ज्ञान-यज्ञ की- विचार-क्रान्ति की ज्योतिर्मय प्रखरता उत्पन्न करना ही हो सकता है। उन्हें इसी परिधि में रहकर विभिन्न सेवा साधनों में संलग्न होने की तैयारी करनी पड़ती हैं।


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