परमार्थ जीवन की समग्र शिक्षा साधना

July 1973

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गृहस्थ में प्रवेश करने से पूर्व किशोरावस्था में विद्याध्ययन और स्वास्थ्य संवर्धन ही नहीं उपार्जन और परिवार व्यवस्था की क्षमता भी विकसित करनी पड़ती है। सर्वथा अयोग्य और अक्षम व्यक्ति यदि गृहस्थ में प्रवेश करे तो अचानक शिर पर आ पड़ने वाले भारी उत्तरदायित्वों का निर्वाह कठिन हो जायगा। तब संभव है वह उस कार्य में असफल सिद्ध हो और गृहस्थी एक जंजाल बनकर रह जाय।

वानप्रस्थ में भी यही आवश्यकता सामने रहती है। यह भी एक अनभ्यस्त जीवनचर्या है। पढ़ा सुना कितना ही कुछ क्यों न हो, अनुभव और अभ्यास के बिना सब कुछ काल्पनिक ही रहता है। कल्पनायें कितनी ही भावपूर्ण एवं सदुद्देश्य प्रेरित क्यों न हो-जब तक वे व्यावहारिकता के क्षेत्र में न उतरेंगी-लक्ष्य पूरा कर सकने योग्य सक्षम न बनेंगी। डाक्टर इंजीनियर; ड्राइवर, चित्रकार सेनापति, आदि महत्वपूर्ण कार्यों का निर्वाह मात्र पुस्तकें पढ़ने या उन विषयों पर मनन चिन्तन करते रहने से संभव नहीं हो सकता। व्यावहारिक अनुभव के लिए क्रियात्मक शिक्षा प्राप्त करने की अनिवार्य आवश्यकता रहती है। दर्जी, मोची, धोबी, कुम्हार, लुहार, सुनार, जुलाहे, रंगरेज जैसे सामान्य शिल्प भी वर्षों अभ्यास करने के उपरान्त अपने कार्य में निष्णात हो पाते हैं तो यह कैसे संभव हो सकता है कि वानप्रस्थ लेकर अनभ्यस्त परमार्थ जीवन के क्रिया-कलाप को सुसम्पादित किया जा सके। इसलिए भी व्यावहारिक शिक्षा और अनुभव, अभ्यास की कम आवश्यकता नहीं होती। मात्र संस्कार का कर्मकाण्ड पूरा कर लेने और मन चाही रीति-नीति अपनाये रहने से तो इस महान प्रयोजन की पूर्ति नहीं हो सकती। लकीर पीटनी हो तो बात दूसरी है।

वानप्रस्थ प्रक्रिया की अभिनव जीवन पद्धति को अपनाने का श्रीगणेश करते हुए उसका सुयोग्य प्रशिक्षण प्राप्त करा आवश्यक है। इसके लिए व्यवस्था जुटाई जानी आवश्यक थी सो जुटा भी दी गई है। सातों ऋषियों की तपस्थली-गं की सात धाराओं के पुण्य-प्रवाह के दिव्य स्थान-हिमालय के शुभारम्भ पर अवस्थित सत सरोवर हरिद्वार का शान्ति-कुंज ऐसे ही प्रयोजनों के लिए बना है। सुसंस्कारी मनोभूमि के व्यक्तित्वों को यहाँ प्राण प्रत्यावर्तन स्तर के अनुदान मिले हैं और अनेकों ने अभिनव प्राण संचार की समर्थ प्राण चेतना लेकर उच्चस्तरीय जीवनक्रम में साहस भरा प्रयाण आरम्भ किया है। वह क्रम अपनी गति से चलता रहे साथ ही वानप्रस्थ जीवन की समग्र शिक्षा की प्रबन्ध विधि-व्यवस्था चल पड़े ऐसा सुयोग बन रहा है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए चालीस कमरे इन्हीं दिनों बन रहे हैं उनमें दो-दो शिक्षार्थी आसानी से रह सकेगी इस प्रकार लगभग 80 वानप्रस्थ शिक्षार्थियों का प्रशिक्षण भी साथ-साथ चलता रहेगा। कहना न होगा कि यह स्थान अभीष्ट प्रयोजन के लिए सर्वथा उपयुक्त ही सिद्ध होगा। स्थान की दृष्टि से उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि असंदिग्ध और असामान्य है। साधना और शिक्षा के समुचित साधन यहाँ उपलब्ध रहेंगे। शिक्षा का अभाव एवं स्तर यहाँ ऐसा नहीं होगा जिससे किसी को असन्तोष हो। स्नेह और सौजन्य भरा वातावरण भी ऐसा है जिसके कारण घर छोड़कर वहाँ पहुँचने वालों को उदासीनता प्रायः नहीं ही होती। अधिक न सही पर कम आत्मीयता का वातावरण भी यहाँ नहीं है। ऐसी दशा में ब्रह्म-विद्या की तत्वदर्शी ज्ञान सम्पादन, योगाभ्यास एवं तप साधना की अभीष्ट मात्रा में उपलब्धि यहाँ सहज ही हो सकती है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति और समाज की वर्तमान समस्याओं का स्वरूप एवं समाधान इस तरह सीखा, समझा जा सकेगा कि उस आधार पर लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को अभीष्ट सफलता प्राप्त करने में विशेष कठिनाई का अनुभव न करना पड़।

धर्म मंच लोक-शिक्षण का महान प्रयोजन लेकर चलने वाले को कितनी ही रचनात्मक प्रवृत्तियों में आने वाले उतार चढ़ावों की जानकारी तथा पग-पग पर आने वाली बाधाओं और कठिनाइयों के निवारण का क्रम मालूम हो तो सेवा-साधक का मार्ग सहज ही सुलभ हो जायगा। इस अतिरिक्त सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को अनेक विचारों के अनेक स्तरों के, व्यक्तियों से पाला पड़ता और उनकी असंख्य शंका–कुशंकाओं का समाधान करना पड़ता है, इस स्थिति का सामना कर सकने के लिए पूर्ण तैयारी होना चाहिए। अध्ययन और चिन्तन जितना विशाल होगा उतना ही समाधान कर सकने की क्षमता सुविस्तृत होगी।

वानप्रस्थ को लोक-शिक्षण की भूमिका का निर्वाह अनिवार्य रूप से करना पड़ता है। अतएव उन्हें प्रवचन कला का ज्ञान और अभ्यास होना ही चाहिए। गोष्ठियों सम्मेलनों और समारोहों पर उपस्थित जन-समूह को दिशा देनी पड़ती है। पर्व और संस्कारों का प्रचलन युग-निर्माण मिशन ने अत्यन्त उत्साह -पूर्वक किया है। और उनमें उद्बोधन करना अनिवार्य हो जाता है । अन्यान्य संस्थाओं धारा विविध प्रयोजनों के लिए आयोजित समारोहों भी युग-निर्माण मिशन के कार्यकर्त्ताओं को आदरपूर्वक आमन्त्रित किया जाता है और कुछ कहने के लिए अनुरोध किया जाता है। इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता अतएव अपने मिशन को अन्यान्य संस्थानों के दृष्टि कोण के साथ तालमेल मिशन बिठाते हुए प्रस्तुत कना पड़ता है इसलिए आवश्यक तैयारी पहले से ही होनी चाहिए। अन्यथा सभी को बड़ी निराशा होती है। वक्तृत्व की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता वरन् सच तो यह है कि विचार-क्रान्ति का अस्सी प्रतिशत अशिक्षितों के अपने देश में वाणी का प्रखर प्रयोग करके ही हम विचार-क्रान्ति का उद्देश्य पूरा कर सकते हैं। इस संदर्भ में प्रवचन शैली का अभ्यास ही पर्याप्त नहीं है वरन् विचारों की क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित शृंखला भी मस्तिष्क में पहले से ही भली प्रकार जमी रहनी चाहिए ताकि समय पर अविरल प्रवाह के साथ बिना रुके हिचके अपनी बात कही जा सके।

सेवा-साधना के शिक्षा संदर्भ में प्रवचन प्रक्रिया को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। उसे न केवल सिद्धान्त रूप में वरन् व्यावहारिक अभ्यास में भी इस प्रकार समाविष्ट किया जाता है कि सेवा-साधना में निरत वानप्रस्थ को प्रवचन का अवसर आने पर झेंप झिझक का सामना न करना पड़े।

शान्ति कुँज में वानप्रस्थ शिक्षा विद्यालय का शिक्षा सत्र छह-छह महीने का रखा जायगा। आरम्भिक सत्र 1 जनवरी 74 से आरम्भ होकर 30 जून तक चलेगा। इसके उपरान्त दूसरा छह महीने का सत्र 1 जुलाई से 30 दिसम्बर 74 तक चलेगा। यही क्रम लगातार जारी रहेगा। हर वर्ष दो सत्र सम्पन्न हुआ। करेंगे। शिक्षण क्रम में वानप्रस्थ के तीनों अनिवार्य अंकों को समुचित समावेश है।

ब्रह्मविद्या के तत्व-दर्शन का सहारा लेकर सद्ज्ञान सम्पादन के लिए उपयोगी पाठ्यक्रम दर्शन-गीता, रामायण, महाभारत आदि आर्षग्रन्थों और ऋषि-मुनियों के- देव अवतारों आप्त पुरुषों के अभिवचनों का आधार लेकर आत्मा और परमात्मा तथा जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति और पूर्ति संबन्धी सभी आवश्यक तथ्यों से शिक्षार्थियों को अवगत कराया विकृतियाँ इन दिनों चल पड़ी हैं उनके प्रचलन में क्या दुरभिसंधियाँ जुड़ी रहीं इसके तथ्य प्रस्तुत किये जाते हैं। ताकि प्रचलित भ्रम-धारणाओं के अन्धकार को चीरते हुए यथार्थ अध्यात्म का स्वरूप स्वयं समझ सकना दूसरों को समझा सकना इस शिक्षण पद्धति में पूरी तरह समाविष्ट रहेगा। सांगोपाँग, वेद-शास्त्र दर्शन-उपनिषद् तो छह महीने में नहीं सिखाये-पढ़ाये जा सकते पर उनका सारतत्व और मर्म इस थोड़ी सी अवधि में ही इतनी मात्रा में हृदयंगम करा दिया जायगा-जिसे असन्तोष जनक और अपर्याप्त न कहा जा सके।

इसी प्रकार इन्हीं छह महीनों में गायत्री-उपासना की उच्चस्तरीय भूमिका में वानप्रस्थी साधकों का प्रवेश कराया जायगा। जप, अनुष्ठान-परक, गायत्री-उपासना के क्रिया-योग से प्रायः सभी परिजन परिचित हैं। उसकी साधना भी दैनिक और सामयिक-क्रम पद्धति के अनुसार करते-कराते रहे हैं। अब अगली कक्षा में प्रवेश करना होगा ओर भाव-भूमिका’ यथा शक्ति भूमिका के उच्चतर और उच्चतम साधना-विधानों का अवगाहन करना होगा।

गायत्री के पाँच मुख पाँच चरण प्रख्यात हैं। इन्हें अन्नमय कोश, प्राणमयकोश,मनोमय कोश, विज्ञानमय काश,आनन्दमय कोश, समझा जाना चाहिए। इन्हीं पाँचों स्तरों में मूलाधार-चक्र के कुण्डलिनी केन्द्र को छोड़कर पाँच कोशों और पाँच चक्रों की साधना के लिए जिन पाँच योगों, की तपश्चर्या करनी पड़ती है उन्हें लययोग, प्राणयोग, बिन्दुयोग, ऋजुयोग और नादयोग कह सकते हैं। इन पाँच योगों की भौतिक और आध्यात्मिक प्रतिक्रियाओं को पाँच देवसत्ताओं के नाम से जाना जाता है। भवानी, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, महेश के पौराणिक अलंकार वर्णन में जिन महिमा महात्म्यों का वर्णन किया गया है उन्हें प्रकारान्तर से इन पाँच कोशों की पाँच चक्रों की, पाँच योगों की प्रखरता ही समझनी चाहिए। पंचमुखी गायत्री साधना का उच्चस्तरीय उपक्रम यही है। इसका प्रारम्भिक आभास-अभ्यास प्राण-प्रत्यावर्तन सत्रों में भी कराया जाता है, किन्तु बार दिनों में तो मात्र झाँकी ही मिल सकती है-परिचय ही हो सकता है। उस साधना के लिए अधिक और अनवरत श्रम समय चाहिए। इस प्रकार के अभ्यास इस छह महीने की तपश्चर्या अवधि में ही सम्भव हैं। गं-तट, हिमालय का क्षेत्र, सात ऋषियों की तपोभूमि के अतिरिक्त उपयुक्त मार्गदर्शन संरक्षण का सुयोग उन दिनों मिलाता रहने से प्रयास की सफलता असंदिग्ध ही रहेगी।

आहार विहार योगियों जैसे नियम प्रतिबन्धों से जकड़ी हुई ऋषि जीवन-प्रक्रिया साधकों के मल आवरण विक्षेपों के निवारण, निराकरण में कितनी अधिक सहायक हो सकती है उसे प्राप्त वचनों से ही नहीं अनुभव से भी जानने का जो सुअवसर मिलेगा उसे हर साधक अपना अभिनव सौभाग्य ही अनुभव करेगा। शारीरिक दृष्टि से तपस्वी रीति-नीति अपनाने वाले को स्वभावतः कुछ कष्ट रहता है पर उसकी भरपाई मानसिक सन्तोष और आत्मिक उल्लास के रूप में सहज ही हो जाती है। तप साधता से निखरा हुआ व्यक्तित्व देव भूमिका को अनुभूति कराता है-इस प्रकार उस कष्ट साध्य प्रणाली को अपनाने पर भी किसी को यह प्रतीत नहीं होता हक घाटा उठाया जा रहा है। तपे हुए स्वर्ण जैसी आभा लेकर ऐसे व्यक्तित्व जब जन-संपर्क में उतरते हैं तो उन्हें अपनी प्रतिभा और प्रभावी क्षमता का स्पष्ट अनुभव होता है। जिस कार्य में हाथ डाला जाय-जिस दिशा में कदम बढ़ाया जाय उसमें सफलता ही मिलती चली जाय तो यही निष्कर्ष निकालना पड़ेगा कि तपश्चर्या व्यक्तित्व को प्रखर और ज्योतिर्मय बनाने की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है।

ब्रह्मज्ञान साधना और योग-तपश्चर्या का स्वर्ण सुयोग यों जितनी लम्बी अवधि तक मिलता रह सके उतना ही मनुष्य का सौभाग्य है पर इस आपत्तिकाल में आपत्ति धर्म का पालन करते हुए सेवा-साधना भी तो करनी ही है। युग-वेदना के बिलखते क्रन्दन को भी तो अनसुना नहीं किया जा सकता। जलती हुई मान्यता को दम तोड़ते हुए भी तो नहीं देखा जा सकता इन दिनों लम्बी योग-साधना और ज्ञान-साधना तक सीमित होकर कोई भावनाशील जीवन्त आत्मा बैठ ही नहीं सकती। अग्निकाण्ड की ज्वालायें बुझाने में समस्त आवश्यक कार्य छोड़कर जुटना पड़ता है, इसी प्रकार समय की विभीषिकाओं और विकृतियों से निपटे बिना भी काम नहीं चल सकता। हर वानप्रस्थ को धर्मक्षेत्र में-कुरुक्षेत्र’-में उतरना ही पड़ेगा। गाँडीव शर-सन्धान से इस आपत्तिकाल में किसी परमार्थ प्रेमी को छुट्टी मिल ही नहीं सकती। आत्म-कल्याण के साधन जुटाने में थोड़ी प्रतीक्षा भी की जा सकती है पर आपत्तिधर्म का सामयिक कर्तव्य तो हर हालत में पालन करना ही पड़ेगा। विश्व-कल्याण की तुलना में आत्मकल्याण का उपेक्षित भी किया जा सकता है।

यों सेवा साधना भी विशुद्ध रूप में एक योग-साधना ही है। सद्विचारों में सत्प्रवृत्तियों में निमग्न रहना किसी उच्चस्तरीय तप के कम महत्वपूर्ण नहीं। दूसरों के आन्तरिक स्तर को ऊँचा उठाना उनके जीवनक्रम को मुख-शान्ति में ओतप्रोत करने के लिए दिया गया श्रेष्ठतम अनुदान ही है। इसे उच्चस्तरीय पुण्य परोपकार ही कहा जायेगा। देश, धर्म, समाज और संस्कृति के सृजन, सिंचन में बहाये गये स्वेद-बिन्दुओं को परब्रह्म को अमृतजल से स्नान कराना है। भगवान का प्रत्यक्ष स्वरूप वस्तुतः यह मूर्तिमान विश्व ही तो है। पिछड़ेपन से बूझकर हम रीछ-वानरों जैसी त्रेता कालीन शूर वीरता का ही परिचय देते हैं। जीवन और आदर्शों के बीच जो समुद्र जैसा व्यवधान खड़ा हो गया है, इस खाई को पाटने में प्रवृत्त होना रामादल द्वारा पत्थर के ढेले इकट्ठे करके समुद्र पुल बनाने की त्रेताकालीन पुनरावृत्ति ही है। हनुमान अंगद, जामवन्त, नल-नील की-अर्जुन भीम की- बुद्ध, गान्धी, रामदास, गोविंदसिंह विवेकानन्द की पुण्य प्रक्रिया अपना कर वस्तुतः हम युग-साधना में ही प्रवृत्त रहते हैं। उसे किसी भजन या तप से कम महत्व का नहीं माना जा सकता। अतएव वानप्रस्थ साधकों को सेवा साधना में भी संलग्न किया जाना अनिवार्य है। ज्ञान-यज्ञ को ज्योतिर्मय बनाने के लिए-विचार क्रान्ति की चिनगारी को दावानल स्तर तक ले जाने की जिम्मेदारी उन्हीं की है।

इस सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए वानप्रस्थों की शिक्षा पद्धति का समय विभाजन किया गया है। वे छह महीने हरिद्वार रहें-इसके उपरान्त प्रशिक्षित एवं प्रामाणिक युग-निर्माता के रूप में लोक-मंगल के अभियान को अग्रगामी बनाने के लिए निकल पड़े। उन्हें नया कार्यक्षेत्र तलाश भी नहीं करना पड़ेगा। युग-निर्माण परिवारों की चार हजार शाखाओं को सक्रिय और अग्रगामी बनाने के लिए एक-एक वानप्रस्थ की स्थायी आवश्यकता है। इस प्रकार चार हजार वानप्रस्थों के लिए बनाया कार्यक्षेत्र तो उनकी प्रतीक्षा में आंखें बिछाये बैठा है। विदेशों में भारतीय संस्कृति को मिशनरी बड़ी आतुरता पूर्वक आमन्त्रित की जा रही है। यदि लोक-सेवा को की संख्या बढ़े तो शतसूत्री युग-निर्माण योजना को कल ही गगनचुम्बी बनाया जा सकता है। देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए न्यूनतम एक लाख लोकसेवी चाहिए। समस्त विश्व की आवश्यकता को ध्यान में रखा जाय तो यह संख्या एक करोड़ तो होनी ही चाहिए। परिवार की जिम्मेदारियों से निवृत्त होने के कारण वे अवैतनिक रूप में कार्य कर सकेंगे और जनता उनके भोजन वस्त्र का खर्च अत्यन्त प्रसन्नता और कृतज्ञता पूर्वक वहन करेगी। परिपक्व आयु की शालीनता, लम्बी अवधि का व्यवहारिक अनुभव, वानप्रस्थ महापीठ में रहकर ज्ञान-साधना तथा तपश्चर्या के आधार पर विकसित प्रतिभा-नव-निर्माण के उपयुक्त सेवा साधना का उपयोगी प्रशिक्षण-इन सब विभूतियों से सज्जित वानप्रस्थ लोक-निर्माण की महती आवश्यकता पूर्ण कर सकने में सर्व समर्थ सिद्ध हो सकते हैं।

यों वानप्रस्थ संन्यास की लकीर पीटते हुए मरे मुर्दे जहाँ-तहाँ निकम्मी लाशों की तरह गिरे पड़े और सड़ते हुए देखे जा सकते हैं। गृह-कलह से ऊबे हुए-पग-पग पर अपमानित होते हुए- आलस और प्रमाद से अपनी आदतों को घिनौनी बनाये हुए चैन की साँस लेने और मुफ्त की रोटी तोड़ने के लिए जिस तिस आश्रम में जगह घेरे पड़े पाये जा सकते हैं। उलटी-सीधी माला सटक लेने और जिधर–तिधर देवदर्शन की मटर गश्ती करते हुए- तथा कथित सत्संगों में ऊँघते हुए इस स्तर के हजारों लाखों व्यक्ति जहाँ-तहाँ पाये जा सकते हैं। कोई वानप्रस्थ का बाना पहने है किसी ने संन्यास के कपड़े रंग लिए हैं। इन भूभार जीवित मृतकों की संख्या में और वृद्धि करना अपना तनिक भी उद्देश्य नहीं। हमें तो तेजस्वी, मनस्वी, कर्मवीर और आत्म कल्याण तथा विश्व-कल्याण में प्रबल पुरुषार्थ के लिए जुट पड़ने वाले परमार्थ परायण व्यक्तित्व चाहिएँ। उन्हीं को वानप्रस्थ में प्रवेश करने का आमन्त्रण दिया जा रहा है।


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