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July 1973

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मा भवाज्ञो भव ज्ञन्त्वं जहि संसारभावनाम्। अनात्मन्यात्मभावेन किमज्ञ इव रोदिषि॥

कस्तवायं जड़ो मूको देहो माँसमयोऽशुचिः। मदर्थ षुखदुः खाभ्यामवशः परिभूयसे॥

अहो नू चियं सत् सत्यं ब्रह्म तद्विस्मृतं नृणाम्। महोपनिषद् 4 128129 130

अज्ञानी न बनो, नाशवान पदार्थों के लिए इतने उद्विग्न मत होओ, उनके लिए मत बिलखो यह जड़ देह तुम्हारा कोई स्थिर सम्बन्धी नहीं है। यह तो माँस का पिण्ड भर है। घोर अपवित्र है तुम इसके लिये इतने बेचैन क्यों हो? परम सत्य की भूल के इस देह-जाल में जकड़े हुए क्यों तड़पते हो?


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