कतिपय अति उपयोगी कार्य जो जन संपर्क से ही सम्भव होंगे

July 1973

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

युगनिर्माण परिवार की सबसे बड़ी और सबसे महत्व पूर्ण माँग यह है कि उन्हें परिष्कृत स्तर के प्रतिभाशाली ऐसे मार्गदर्शक मिले जो वाक् चातुर्य दिखाने तक हुकुम ओर हुकूमत चलाने तक ही सीमित न हरे वरन् कार्यकर्ताओं को अपने साथ कदम से कदम मिला कर चलाते हुए लोक मंगल के विभिन्न मोर्चे सम्भालने का व्यावहारिक प्रशिक्षण प्रदान करे। यदि यह आवश्यकता पूरी हो सके तो आज की चार हजार शाखायें इतना बड़ा काम कर के दिखा सकती है कि बौद्धिक-नैतिक और सामाजिक क्रान्ति के विभिन्न प्रयोजन जो आज मुरझाये, कुम्हलाये और मूर्छित पड़े है सहज ही अंकुरित, प्रस्फुटित और हरे-भरे हो सकते हैं।

यह तो हुई अपनी शाखा संगठनों की बात, पर क्षेत्र इतने तक ही सीमित नहीं है युगनिर्माण योजना का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है उसके दिशा विस्तार की अगणित संभावनायें अभी भविष्य के गर्भ में छिपी पड़ी है। धर्म-मंच का आधार लेकर लोक-शिक्षण जन-जागरण एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन का कार्य ही न दिनों अपने शाखा संगठनों द्वारा हो रहा है। गतिविधियाँ प्रायः इसी परिधि तक सीमित है। रचनात्मक और संघर्षात्मक कार्यों के अगले कदम उठाये जाने ही चाहिये, इसकी प्रतीक्षा दसों दिशाएं कर रही है। जनमानस को झकझोरने के लिए अभी अनेक आधारों को हाथ में लिया जाना अभी लगभग अछूता ही पड़ा है उसके लिये इतने अधिक रचनात्मक कदम उठाने है जो अब तक की सफलता की अपेक्षा सहस्रों गुने अधिक बड़े विस्तार का साधन सरंजाम जुटा सके।

साहित्य को ही ले उसमें कितना कुछ करने को पड़ा है सृजन की दिशा देने वाला साहित्य अभी मुट्ठी भर मात्रा में ही लिखा और छपा है की इसकी तुलना में अभी हजारों गुने बड़े लेखन तथा प्रकाशन की आवश्यकता है। कथा साहित्य तो अभी छुआ ही नहीं गया जब कि प्रचार प्रयोजन के लिए उसी की सबसे बड़ी आवश्यकता है। स्पष्ट है कि कथा-साहित्य ही सबसे अधिक छपता और बिकता है। लोकरंजन की आवश्यकता उपन्यास और कहानियाँ ही पूरी करते हैं पुस्तक विक्रेता बतायेंगे कि तीन चौथाई बिक्री कथा-साहित्य की ही होती है। इस क्षेत्र में क्रान्तिकारी उद्देश्य लेकर प्रवेश करना पड़ेगा और कथा उपन्यासों की एक नई शृंखला खड़ी करनी पड़ेगी। संसार के अन्य भाषाओं के श्रेष्ठ कथा साहित्य का अपनी भाषा में अनुवाद कराना पड़ेगा। कोई चीज मूलतः एक भाषा में लिखी भले ही जाय पर उसका अनुवाद एवं प्रकाशन भारत की चौदह मान्यता प्राप्त भाषाओं में होना चाहिए। इसके लिये साधन सम्पन्न प्रेम की- समुचित पूँजी वाले प्रकाशक की ओर निरन्तर सृजन साधना में निरत साहित्यकारों की आवश्यकता पड़ेगी यह साहित्य-तन्त्र इतना बड़ा है जिसके लिए सुयोग्य कष्ट और भावनाशील स्तर के हजारों लाखों कार्यकर्ताओं का के सहज ही खपाया जा सकता है। इसमें करोड़ों की पूँजी लगनी है। तथा व्यावसायिक विक्रय क्षेत्र को सम्भालने वाले कितने ही छोटे -बड़े संस्थान खड़े किये जाने है। उन्हें गाँव गाँव फैलाया जाना है कथा साहित्य का भारत की चौदह भाषाओं में ही नहीं संसार की समस्त भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाश किया जाना है। इसके लिए केंद्रीय कार्यालय मार्ग दर्शन भले ही करे पर उसे सहस्रों स्थानों में-सहस्रों शाखा प्रशाखाओं में विभक्त करके बनाया बढ़ाया जा सकता है।

ऊपर की पंक्तियों में मात्र कथा साहित्य पर प्रकाश डाला गया है वस्तुतः अभिनव सृजन की आवश्यकता पूरी करने वाले साहित्य की अगणित धाराएं अभी अछूती ही पड़ी है। महिला जागरण को ही ले, उसकी पृष्ठभूमि विनिर्मित करने वाला साहित्य कहाँ है? पाक-विद्या और कढ़ाई, बुनाई की छुट-पुट पुस्तकों के अतिरिक्त महिला क्रान्ति को दिशा देने वाले साहित्य को किसने लिखा है - किसने छापा है? पूरे बाजार में ढूंढ़ने पर मुश्किल से उथले स्तर की बीस-दस पुस्तकें मिलेगी जब कि इस संदर्भ में भारतीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सहस्रों प्रेरक पुस्तकों की आवश्यकता है शिशु-कल्याण पर भी किसने कलम उठाई है। मेंढक नानाओं और परी की कहानियों की ही भरमार है। बालकों के मस्तिष्क को आदर्शवादी अंगुलि निर्देश करने वाला आरम्भिक साहित्य प्रचुर मात्रा में होना चाहिये पर वह है कहाँ? उसका तो श्रीगणेश ही होना है।

धर्म और अध्यात्म के नाम पर केवल कूड़ा कबाड़ा ही बिकता पाय जायगा। आत्मा की भावनाओं की भूख और प्यास बुझाने वाले तत्वदर्शन प्रबुद्ध वर्ग की महती आवश्यकता है उसकी पूर्ति हो सके तो परमार्थ की दिशा में चलने की आकुल आत्माओं को सही दिशा मिल सकेगी भी और पग-पग पर प्रस्तुत भटकाव से भावनाओं और साधनों की होने वाली दयनीय बर्बादी को रोका जा सकेगा। कलम तो इस दिशा में भी उठनी है इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य, सदाचार, परिवार, अर्थ-विज्ञान, कुटीर उद्योग, कृषि, पशुपालन, आहार-बिहार, लोकसेवा, समाज विज्ञान, मन’शास्त्र आदि असंख्य विषयों पर ऐसा साहित्य लिखा जाना है जो नवयुग की पृष्ठभूमि विनिर्मित करने में सहायक हो सके।

अब तक जो लिखा गया है छापा गया है - उसका आधार प्रायः भौतिकतावादी पाश्चात्य दर्शन है, जिसमें उत्थान का नहीं, पतन का ही दिशा-निर्देश भरा पड़ा है। अवाँछनीयता की तुलना में वाँछनीयता को जब तक खड़ा न किया जायगा तब तक बौद्धिक क्षेत्र में वह रही उलटी गंगा में उलटी रीति से बहने का ही कमजोरी रहेगा। बौद्धिक क्रान्ति की आवश्यकता पूर्ति के लिये हमें न केवल कथा साहित्य वरन् व्यक्ति को प्रभावित करने वाले समस्त आधार को उत्कृष्टता की दिशा देने वाले साहित्य का सृजन करना पड़ेगा। सृजन ही नहीं, प्रकाशन, मुद्रण और विक्रय के विभिन्न साधन जुटाने पड़ेंगे।

वानप्रस्थों में यदि कुछ प्रखर व्यक्तित्व हो तो वे इस प्रकार के तन्त्र खड़े करने में सहायता कर सकते हैं। स्वर्गीय जयदयाल जी गोयन्दका और स्वर्गीय वीर हनुमान प्रसाद पोद्दार का यहाँ स्मरण अनायास ही हो आता है गीता प्रेस की स्थापना करके उनने अपने ढंग का एक आदर्श खड़ा किया। ऐसे ऐसे सहस्रों प्रकाशन तन्त्र खड़े किये जाने है ओर उनके लिए उपरोक्त स्वर्गीय आत्माओं का अनुसरण करने वाले सहस्रों ऐसे अनुभवी एवं सुयोग्य व्यक्ति अग्रगामी होने है जो अपनी सारी चेतना को उसी पुण्य प्रयोजन में खपा सके। कल-कारखाने खड़ा करने वाले उद्योग पतियों जैसे दिमाग इस तन्त्र को खड़ा करने में अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं क्योंकि पूँजी, उत्पादन, विक्रय श्रमिक एवं विक्रय व्यवस्था प्रभृति सभी कार्य इस क्षेत्र में भी बड़े उद्योग-धंधों जैसे ही है तन्त्र खड़ा करने में बड़ी प्रतिभाएं चाहिये पर उसके अंतर्गत जो हजारों लाखों प्रमाणिक और भावनाशील कार्यकर्ता विविध प्रयोजनों के लिये अभीष्ट होंगे उनकी पूर्ति भी कम महत्व की नहीं। उन्हें ढूंढ़ना और प्रवृत्त करना कार्य क्षेत्र में उतरने वाले का ही काम है। यह प्रयोजन वानप्रस्थ पूरा कर सकते हैं।

जन-मानस को बौद्धिक और भावनात्मक दृष्टि से झकझोरने वाले आधारों में साहित्य के बाद दूसरा नम्बर गायन का आता है लोकगीत छोटे-छोटे देहातों में यही याद रखे जाते हैं और मस्ती के साथ गाये जाते हैं। कविताओं को गुनगुनाते और उनके रस प्रवाह में बहते अगणित भावुक हृदय सर्वत्र देखे जाते हैं फिल्म गीत बच्चे-बच्चे की जबान पर चढ़े हुए हैं। गायन-गोष्ठियां जगह-जगह रस बरसाती रहती हैं। प्रायः हर आयोजन में कविता पाठ से लेकर गीत वाद्यों का समुचित स्थान रहता है। गीत-काव्यों का किसी जमाने में भारी सम्मान था। सिनेमा कितना ही गीत क्षेत्र पर हावी क्यों न हो गया हो अभी भी गीत काव्यों की सरसता समाप्त नहीं हुई है। उसे रुचिपूर्वक अपनाया जाता है और जहाँ प्रबन्ध है वहाँ उसके लिए धन भी खर्च किया जाता है संगीत विद्यालय कितने ही चलते हैं स्कूली पाठ्यक्रम में संगीत को भी मान्यता है संगीत में मात्र खाद्य ही तो नहीं होता गायन भी अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। इस क्षेत्र पर आदर्शवादी नियन्त्रण ने रहने से कामुकता की घुस पैठ सफल हो गई। हेय स्तर का भ्रान्ति-जंजाल भी उस क्षेत्र में जड़ जमाकर बैठ गया। प्रायः सारा संगीत क्षेत्र आज जम-मानस को विकृत करने में ही लगा हुआ है, यदि इसकी धारा उलट कर सृजनात्मक चेतना उत्पन्न करने में लगाई जा सके तो पतनोन्मुख मनोवृत्तियों को आदर्शवादी चिन्तन और कर्तव्य की दिशा में सहज ही मोड़ा जा सकता है और उसका आश्चर्यजनक परिणाम आंखों के आगे प्रस्तुत देखा जा सकता है।

इस संदर्भ में भी लगभग साहित्य-तन्त्र जैसा ही गीत-तंत्र खड़ा करना होगा। लोकगीतों की सुलभ संगीत की आवश्यकता प्रत्येक क्षेत्रीय भाषा में अनुभव की जा रही है। इसके लिये गीतों का निर्माण और प्रकाश एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है। सरकारी मान्यता प्राप्त भाषाएं तो अपने देश में 14 ही है पर क्षेत्रीय भाषाओं की संख्या तो 400 से ऊपर पहुंचती है हर क्षेत्र में अपनी-अपनी शब्दावली ओर स्वर प्रक्रिया लोकप्रिय है। इन सबमें गीतों का निर्माण और प्रकाशन, तथा विक्रय का क्रय बनाया ऐसा कार्य है जिसको अशिक्षित और देहाती क्षेत्र में उपयुक्त चेतना उत्पन्न करने की दृष्टि से मूर्धन्य प्रमुखता मिलनी चाहिए।

संगीत मंडलियाँ, संगीत विद्यालय, बनने चाहिएँ। अभिनय के साथ गीत-काव्यों को प्रस्तुत करने वाले अभिनय मंडल कितना क्रान्तिकारी काम कर सकते हैं इसकी कल्पना करने मात्र से सिहरन उत्पन्न होती है। स्पष्ट है कि संगीत अभिनय देखने सुनने के लिए सर्वत्र आबाल वृद्ध जनता अत्यधिक संख्या में अनायास ही आकर्षित ओर एकत्रित होती है। सुनने वालों की भीड़ एकत्रित करने के लिए सभा सम्मेलन विविध प्रकार के प्रचार करते हैं पर गीत अभिनय की जहाँ व्यवस्था होती है वहाँ बिना किसी आमन्त्रण के इतनी भीड़ जमा होती है जिसका नियन्त्रण करना कठिन हो जाता है लोकरंजन के साथ यदि लोक मंगल की घनिष्ठता और बुद्धिमत्ता की भी जोड़ा जा सके तो बौद्धिक क्रान्ति की - भावनात्मक उत्कर्ष की महती आवश्यकता सहज की पूरी की जा सकती है।

गीत पुस्तकों का सृजन और प्रसार ही इस दिशा में पर्याप्त नहीं वरन् ऐसी संगीत मंडलियाँ एवं अभिनय मंडलियों का गठन भी आवश्यक है जो देहाती क्षेत्र में लोकरंजन की आवश्यकता पूरी करते हुए लोकमंगल के लिये प्रचण्ड उत्साह उत्पन्न कर सके। शहरों की बात दूसरी है, वहाँ सिनेमा ने जड़ जमाली है। पर यह भूल नहीं जाना चाहिए कि 80 प्रतिशत भारतीय क्षेत्र में सिनेमा की कोई पहुँच पकड़ नहीं है। यह क्षेत्र अभी भी बिलकुल खाली पड़ा है। सम्पन्नता की वृद्धि के साथ साथ उस क्षेत्र में सुरुचिपूर्ण मनोरंजन साधनों को भी माँग है। रामलीला रामलीला के नाम कुछ ऐसा वैसा चलता भी है और जिन्होंने वैसे अभिनय संस्थान बना रखे है वे निरंतर व्यस्त भी रहते हैं और धन भी कमाते हैं यदि युग की आवश्यकता के अनुरूप परिष्कृत साधनों से सम्पन्न ऐसी मंडलियाँ बनाई जा सके तो उनका स्वागत करने के लिये उससे कही अधिक क्षेत्र तैयार मिलेगा जितना कि सिनेमा में अब तक घेर पाया है।

वानप्रस्थों का जन-संपर्क इस क्षेत्र में रुचि लेने वाले लोगों को प्रोत्साहित कर सकता है। वे उनकी व्यवस्था जुटाने में सहायता कर सकते हैं और शुभारम्भ को प्रौढ़ता तक पहुंचाने में अपना मार्ग दर्शन एवं सहयोग देकर युग की एक उपयोगी आवश्यकता पूरी कर सकने में सफल हो सकते हैं।

सुरुचिपूर्ण चित्रों का, आदर्श वाक्यों के प्रकाशन प्रचलन का आरम्भिक श्री गणेश युगनिर्माण योजना ने किया है पर उसका विस्तार अभी हजारों गुना होना शेष है हर घर में प्रेरणाप्रद वाक्य और सद्भावना उभारने वाले चित्र टाँगे जाने की पृष्ठभूमि बन सके तो उससे लोक-चिन्तन की दिशा उलटने में भारी सहायता मिल सकती है।

रेडियो का प्रचलन बढ़ जाने से यो ग्रामोफोन पीछे पड़ गया, पर अभी भी हर उत्सव आयोजन में लाउडस्पीकरों से रिकार्ड बजाये सुनाये जाते हैं। रेडियो वाले भी बहुत करके संगीत सुनाने के नाम पर रिकार्ड ही बजाते रहते हैं यदि प्रेरक रिकार्ड सुलभ हो तो कोई कारण नहीं कि उनकी आवाज वातावरण में गूँजती न सुनाई पड़े। कोई कारण नहीं कि उनकी गुनगुनाहट सर्व साधारण की जीभ पर नाचती थिरकती दृष्टिगोचर न हो। नवनिर्माण की प्रेरणा से भरे हुये ग्रामोफोन रिकार्ड बनाने की योजना का आरम्भ भी युगनिर्माण योजना ने किया था आरम्भ में 100 रिकार्ड बनाने की योजना थी ताकि फैल फूट कर उनके विक्रय ओर प्रसार की सुव्यवस्थित और सुविस्तृत योजना चलाई जा सके, हर जगह अपने विक्रय केन्द्र खोले जा सके। इस योजना के अंतर्गत रिकार्ड बने भी वे बहुत लोकप्रिय हुये और पहला निर्माण हाथों हाथ बिक गया। नये निर्माण के लिए एक लाख रुपयों की पूँजी आवश्यक हुई, जिसे जुटाया न जा सका और योजना जहाँ की तहाँ पड़ी रह गई। भले ही व्यवसाय आधार पर सही, यदि इतनी पूँजी की व्यवस्था हो सके तो अभी भी उस योजना को कार्यान्वित किया जा सकता है और उसका बौद्धिक क्रान्ति के क्षेत्र में एक नया अध्याय जुड़ सकता है।

उपरोक्त स्तर के ऐसे अनेक कार्य है जो जन-जागरण की महती भूमिका प्रस्तुत कर सकते हैं। इसके लिये व्यक्तियों और साधनों की कमी नहीं रह सकती। पर कठिनाई यह है कि प्रेरणा और पुकार अपने स्थान पर खड़ी चीखती चिल्लाती रहती है और उपयोगी व्यक्तित्व तथा प्रचुर साधन दूसरे स्थान पर मरे-मूर्छित पड़े रहते हैं दोनों को एक दूसरे से मिलाने की कड़ी कही जुड़ ही नहीं पाती। समय-समय पर पत्रिकाओं में लेख भर छप जाते हैं। इतने भर से कुछ कारगर प्रयोजन पूरे नहीं हो सकते हैं। यह सब तो कार्य क्षेत्र में उत्तर कर साधनों की आवश्यकता के साथ गठबन्धन कराने के लिए गहरी ढूंढ़-खोज करने पर - अभीष्ट संपर्क साधनों पर ही सम्भव हो सकता है यह कड़ी जोड़ने में वानप्रस्थों की परिव्रज्या अपने ढंग की अनोखी भूमिका प्रस्तुत कर सकती है। महत्वपूर्ण योजनाएँ जो अनव्याही बैठी है उनके हाथ पीले हो सकते हैं और इस प्रकार के अभिनव सृजन सामने आ सकते हैं जिनके आधार पर समग्र उत्कर्ष का विश्वास सुनिश्चित सम्भावना बनकर राष्ट्र के आंगनों में किलकारियाँ भरने लगे।

भावनात्मक उत्कर्ष के संदर्भ में एक और भी महत्वपूर्ण तथ्य है - सिनेमा। सर्वविदित है- भारत में जितनी भी कुल मिलाकर अखबारों की ग्राहक संख्या और रेडियो सुनने वालों की संख्या है उसके सम्मिलित योग से भी अधिक सिनेमा देखने वालों की दैनिक संख्या बैठती है। इनके दर्शकों में घटिया से घटिया और बढ़िया से बढ़िया स्तर के लोग होते हैं । प्रचार की दृष्टि से सिनेमा क्षेत्र की तुलना और कोई माध्यम नहीं कर सकता। यदि प्रेरक फिल्में बनने लगे तो वे अवश्य ही अच्छी तरह चलेंगी ओर निहित स्वार्थों द्वारा फैलाया हुआ यह क्रम सर्वथा निराधार सिद्ध होगा कि “भारतीय जनता कुरुचिपूर्ण चित्र ही देखती है। दर्शकों में ओछे और फूहड़ लोग ही अधिक है।” इन्हीं दिनों कुछ अच्छे आदर्शवादी फिल्म बने है और वे इतनी सफलता पूर्वक चले है कि गन्दे फिल्म बने है और वे इतनी सफलता पूर्वक चले है कि गन्दे फिल्म बनाने वाले लोगों की बोलती बन्द हो गई है वे सिनेमा दर्शकों की कुरुचिपूर्ण और स्तर विहीन सिद्ध करने वाले अपने पुराने प्रलाप को वापिस लेने के लिए विवश हुए है।

जन जागरण की-व्यापक विकृतियों के उन्मूलन की आवश्यकता पूरी कर सकने वाली अत्यन्त प्रेरक फिल्म बनाई जा सकती है और उनके निर्माताओं को यह विश्वास दिलाया जा कसता है कि आदर्शवादी उद्देश्य लेकर इस क्षेत्र में प्रवेश करना घाटे का नहीं वरन् लाभ के साथ-साथ यश और पुण्य कमाने का यह तीन गुना लाभदायक कार्य है। पूँजी को उपयोगी ओर लाभदायक उद्योगों की प्यास है पर उसे दिशा दर्शन नहीं मिलता। प्रभावशाली अर्थ क्षेत्र से परिचित वानप्रस्थ उपयुक्त व्यक्तियों को लिमिटेड या प्राइवेट स्तर के ऐसे अर्थ संस्थान खड़े करने के लिए बना सकते हैं जो फिल्म उद्योग क्षेत्र में आदर्शवादी सिद्धान्तों के साथ प्रवेश करके युग की महान सेवा करने के लिए अग्रसर हो। ऐसे अनेक कार्य हो सकते हैं जो लोकमानस के परिष्कार में अनुपम योगदान कर सकते हैं। वानप्रस्थों का जन संपर्क इस प्रकार के अनेक आधार भी धर्म प्रचार के साथ-साथ ही प्रस्तुत करता रह सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118