यह पुण्य परम्परा अग्रगामी बनाई जाय

July 1973

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देश में मिशनोँ की कमी नहीं, वे पहले से ही बहुत थे। तब तो और भी नित्य नये बनते और खुलते चले जा रहे है। यो इन सभी के पीछे सदुद्देश्यों के घोषणा पत्र छपे रहते हैं पर इनमें अधिकाँश का निर्माण व्यक्तिगत यश लोलुपता की पूर्ति के लिए होता है अमुक व्यक्ति की परोपकारी- लोक सेवी- श्रेय साधकों में गणना होने लगे, जनता उन्हें जाने और सम्मान प्रदान करे- संचित सम्मान के आधार पर प्रकारांतर से आर्थिक लाभ व दूसरे लाभ उठाये-प्रायः ऐसे ही छोटे कारण नई-नई संस्थाओं को जन्म देते हैं। इतने पर भी उन ठोस मिशनों की संस्था संगठनों की, कमी नहीं जो वस्तुतः सदुद्देश्य को लेकर ही विनिर्मित हुए है और जिनके पीछे व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाएँ नहीं वरन् विशुद्ध परमार्थ भावनाएँ ही काम करती है। उन्हें तो बढ़ना और फलना फूलना ही चाहिए था पर दुर्भाग्य इस बात का है कि बरसाती मेढक भले ही बन्द हो जाते पर उनका विकास तो होना ही चाहिए था, जो ठोस आधार और उच्च उद्देश्य को लेकर चले है। प्रगति-प्रवाह उनका भी अवरुद्ध हो जाना निश्चय ही एक दुखद विडम्बना है।

कारण की गहराई से तलाश करने पर निष्कर्ष एक ही उभर कर आता है कि मिशन तो है पर मिशनरियों का पता नहीं।” महत्व संस्थानों का नहीं उन व्यक्तियों का है जो बीज की तरह गल कर संगठनों के विशाल वृक्ष विनिर्मित करते हैं। त्याग और बलिदान का खाद पानी पाये बिना-प्रखर व्यक्तित्वों का श्रम संरक्षण पाये बिना किसी मिशन का फलना फूलना संभव नहीं। नींव में मजबूत पत्थर भरे हो तो ही सुदृढ़ इमारत खड़ी हो सकेगी यह कार्य मिशनरी अपने समय श्रम का हाड़-माँस का- त्याग बलिदान का अनुदान देकर ही पूरा करते हैं और उसी पोषण को पाकर मिशन विशालकाय वट वृक्ष के रूप में परिणत विकसित होते हैं यह आवश्यकता पूरी न की जा सकी तो फिर संस्थापित मिशनों में से किसी का भी समुचित विकास न हो सकेगा वह लैटरपैड, रजिस्टर और बोर्ड की विडम्बना में ही उलझे हुए जहाँ अवरुद्ध पड़े रहेंगे।

इस संदर्भ में ईसाई मिशनरियों का उदाहरण सामने है। उनमें प्रायः सभी सुशिक्षित और प्रतिभावान होते हैं। वे चाहते तो सहज ही सुख सुविधा भरी परिस्थितियों में रह सकते थे किन्तु उच्च भावनाओं से प्रेरित होकर वे कष्ट साध्य जीवन स्वीकार करते हैं और पिछड़े हुए लोगों के साथ, साधन रहित क्षेत्रों में सेवा साधना निरत रहते हुए- बिना ऊबे-उकताये जिन्दगी गुजार देते है। उच्च भावना और सहृदय सेवा साधना की इस कसौटी पर हमारे साधु बाबा खरे नहीं उतरते। एक लाख ईसाई मिशनरी आज समस्त विश्व में अपने धर्म की अभिवृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं। हिन्दू धर्म जितना खर्च अपने धर्म आडंबरों पर करता है उससे कही कम ईसाई मिशनों का खर्च है। हमारे साधु 56 लाख से बढ़ कर 80 लाख हो गये। कहाँ एक लाख पादरी कहाँ अस्सी लाख साधु। अस्सी गुनी यह जनसंख्या यदि भावना सम्पन्न रही होती तो 9 लाख गाँवों का कायाकल्प हो गया होता हर गाँव पीछे प्रायः 12 बाबा जी आते और उनके द्वारा सेवा एवं सुधार के विभिन्न प्रयोजनों की ऐसी पूर्ति हो सकती थी जिससे ग्रामीण क्षेत्र में स्वर्ग की आभा बिखरी हुई दिखाई देती। इतनी जन शक्ति भारत में तो क्या समस्त विश्व में हिन्दू धर्म की गौरव गरिमा ना कर सकने में समर्थ हो गई होती। ईसाई मिशनरियों की अपेक्षा हमें अस्सी गुनी सफलता मिलती। देश का एक बालक भी विधर्मी ने बनता वरन् संसार की आध्यात्मिक क्षुधा बुझाते हुए हम भारतीय तत्व दर्शन की छाया में अगणित आकुल आत्माओं को शान्ति प्रदान कर सकने में समर्थ हो गये होते।

सन्तों की बात जाने भी दें तो भी लोक सेवा के सार्वजनिक क्षेत्र में उदात्त भावना। सम्पन्न कार्यकर्ता रहे होते तो सदुद्देश्य पूर्ण मिशनों को ऊर्ध्वगामी बनने का समुचित अवसर मिल गया होता। सरकार स्वयं एक मिशन है। यदि शासकीय कर्मचारियों में मिशनरी जैसी भावना रही होती तो वे उस महान संस्था के माध्यम से न जाने कितना बढ़ा-चढ़ा लोक कल्याण इन्हीं आज की अभाव ग्रस्त परिस्थितियों में कर सकने में समर्थ हो गये होते। जनता स्तर पर चल रहे धार्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक तथा अन्यान्य प्रकार के संस्था संगठनों - मिशनों द्वारा इतना उत्कर्ष हो गया होता जिसके बल पर देश का वातावरण कैसे से कैसा बन गया दिखाई पड़ता। पर दुर्भाग्य एक ही है मिशन बहुत हैं- मिशनरी नहीं। सेवा का आडम्बर कागज के बड़े रावण की तरह गगनचुम्बी बन कर खड़ा है पर सहृदय सेवा साधना की आन्तरिक पीड़ा किसी-किसी में ही कसकती दिखाई देती है स्पष्ट है कि जब तक मिशनरियों की आवश्यकता पूरी न की जायगी तब तक सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्रों में केवल निर्माण ओर उत्थान की निर्जीव हल-चले भर होती रहेगी उनके पीछे प्राण प्रेरणा का अभाव बना रहा तो कोई ठोस परिणाम सामने न आ सकेगा। पिछड़ापन दूर करने का स्वप्न साकार न हो सकेगा। प्रगति की स्वर्णिम कल्पनाएं कभी भी मूर्तिमान न बन सकेंगी।

हमारा प्रबल प्रयास ऐसे मिशनरी उत्पन्न करने का होना चाहिए जो यश लोलुपता से प्रेरित होकर नहीं आन्तरिक प्रेरणा से-आत्मा की परमात्मा को प्राप्त करने की आकाँक्षा से- सेवा क्षेत्र में उतरें और धर्मधारणा एवं ईश्वरीय पूजा मान कर पवित्रतम मनःस्थिति में तत्परता प्रदर्शित करे। त्याग और बलिदान को जो योग साधना एवं तपश्चर्या के स्तर की श्रेय साधना माने। ऐसे लोग ही अपनी उच्च मनोभूमि एवं प्रचण्ड कर्मठता के आधार पर विश्व मानव की ठोस एवं गम्भीर सेवा कर सकेंगे। कहना न होगा कि वानप्रस्थ परम्परा इसी महती आवश्यकता की पूर्ति के लिए विनिर्मित हुई थी। उसका पुनः प्रचलन कर सकना यदि सम्भव हो सके तो निश्चित रूप से मिशनरी वर्ग की अभाव पूर्ति हो सकेगी और हमारा श्मशान जैसा सार्वजनिक क्षेत्र हरे भरे उद्यान का रूप धारण कर सकेगा।

आज की विश्वव्यापी मानवी दुर्दशा पर जिन्हें वस्तुतः दुख है, जिनके मन में विकृतियों के प्रति सचमुच आक्रोश है, जिन्हें उत्कर्ष-उत्थान के नवयुग में तथ्यतः आस्था हो-उनका पवित्रतम कर्तव्य यह हो जाता है कि मिशनरी उत्पन्न करने की महान परम्परा वानप्रस्थ का सच्चे मन से समर्थन करे और उसे कार्यान्वित होने के लिए आवश्यक वातावरण विनिर्मित करे। अनुभवी, भावना सम्पन्न, सुयोग्य, कर्मठ एवं अवैतनिक लोक सेवियों की विशाल काय सेना और किसी प्रकार गठित, विनिर्मित हो ही नहीं सकती।

वानप्रस्थ में प्रवेश करने की आवश्यकता और उपयोगिता लेखों ओर भाषणों में बताई समझाई जाती रही है। उसके लिए अनुरोध आह्वान किया जाता रहा है पर लोभ और मोह ग्रस्त मनः स्थिति में ऊपर उठना-सुविधाजनक अभ्यस्त परिस्थितियों को छोड़ना-कष्टसाध्य कार्यपद्धति अपनाना प्रायः सम्भव ही नहीं हो पाता। गृहकार्यों से जिन्हें निवृत्ति मिल चुकी है वे भी चैन के दिन काटने के सिवाय और कुछ सोचते ही नहीं। परमार्थ का प्रसंग आता है तो नाम जप और कथा सत्संग के हलके फुलके खेल-खिलौनों से मन बहला लेते हैं। प्रबल प्रेरणा के अभाव में कोई साहसिक कदम बढ़ा सकना उनके लिए संभव ही नहीं होता। अतएव वानप्रस्थ में प्रवेश का आह्वान ऐसे ही हवा में छितरा जाता है। अब हमें यथार्थताओं का सामना करना पड़ेगा। अस्तु सृजन-सेना की आवश्यकता पूर्ति के लिए कुछ बढ़े-चढ़े कारगर प्रयास करने के लिए कटि बद्ध होना होगा। इस संदर्भ में एक आवश्यक कार्य है कि अपने क्षेत्र में जिनकी भी स्थिति वानप्रस्थ में प्रवेश कर सकने के उपयुक्त हो उनके साथ संपर्क बढ़ाये एक-एक कदम उन्हें सिखाये समझाये और स्थिति यहाँ तक आये कि उन्हें सक्रिय रूप से परमार्थ परायण होने के लिए उत्साह, उमंगे और बचे खुचे कूड़े करकट जैसी समय की खाद बन विश्व वाटिका को सुविकसित बनाने के लिए समुचित हो सके।

अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य की इस प्रयोजन में सक्रिय अभिरुचि लेनी चाहिए। अपने संपर्क क्षेत्र में जो भी उसके लिए उपयुक्त हो उन्हें इस अंक को आग्रह पूर्वक पढ़वाना चाहिए। बार-बार चर्चा करनी चाहिए ओर बात को क्रमिक रूप से इस प्रकार आगे बढ़ाना चाहिए कि उनका मन जीवन लक्ष्य की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाने की आवश्यकता अनुभव करने लगे। अपने घर के ढलती आयु के लोगों के लिए यह सुविधा उत्पन्न करनी चाहिए कि वे चाहे तो शेष जिम्मेदारियों को घर के अन्य जिम्मेदार लोगों के कन्धों पर आर्थिक रूप से या पूरी तरह से छोड़ते हुए निश्चिन्तता पूर्वक अग्रगामी कदम बढ़ा सके। इसके लिए न केवल ढलती आयु वालों को तैयार करना चाहिए वरन् उनके बड़े लड़कों को छोटे-भाइयों को भी तैयार करना चाहिए। यदि छोटे बच्चों की जिम्मेदारियों से पूरी निश्चितता मिल गई है तब तो बात की दूसरी है अन्यथा बड़े लड़कों या भाइयों का सहयोग अपेक्षित हो सकता है। सच्चे मित्र या अन्य सम्बन्धी भी इस प्रकार का सहयोग कर सकते हैं। घर में खेती की-ब्याज भाड़े की-आमदनी कामचलाऊ मात्रा में हो तब तो सरलता और भी अधिक रहती है।

संचित पूँजी को बच्चों के स्वावलम्बी बनने तक पूरी तरह खर्च कर डालने से भी बात बनती हो तो ऐसा सोचना भी सराहनीय है। बेटे पोतों को बैठे-बैठे खाने के लिए जो धन उत्तराधिकार में छोड़ा जाता है वह निरर्थक है। उन्हें स्वावलम्बी जीवन जीने देना चाहिए और उनकी शिक्षा शादी होने की अवधि तक संचित सम्पदा समाप्त कर देने की बात सोचनी चाहिए। यह बुद्धिमत्ता पूर्ण कदम है। इससे बच्चे स्वावलम्बी ही नहीं सद्गुणी भी बनेंगे, साथ ही अपने लिए परमार्थ प्रयोजन में जीवन लगा सकना सरल हो जायगा। इस प्रकार के सुझाव देकर प्रभावशाली व्यक्ति अपने परिचय क्षेत्र में से कई उपयुक्त लोगों को वानप्रस्थ की प्रेरणा दे सकते हैं उनकी समस्याओं को सुलझाने में मदद देकर पथ प्रशस्त कर सकते हैं।

अपनी स्वयं की तैयारी हमें इसी स्तर पर करनी चाहिए उपयुक्त समय आने तक आवश्यक उत्तरदायित्वों से कैसे निपटा जाय, इसकी पूर्व योजना मस्तिष्क में घुमड़ती रहे तो कुछ न कुछ मार्ग समय आने तक निकल ही सकता है। दूसरों को प्रेरणा देने का सबसे अच्छा मार्ग अपनी भावी योजना को समय से पूर्व सभी को बता देने से भी बहुत काम हो सकता एक तो कदम बढ़ाते देख कर दूसरों को भी उसी मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहन प्राप्त होता है।

पत्नी को गृह प्रबन्ध के लिए बेटे पोतों की देख भाल के लिए छोड़ा जा सकता है बीच-बीच में घर आते रहने की पूरी तरह छूट रहती है ऐसी दशा में उन्हें न कोई अड़चन अनुभव होनी चाहिए और न आपत्ति करनी चाहिए। विचारशील महिलाएँ अपनी थोड़ी सी सुविधा के लिए अपना अपने पति का समाज का कल्याण रोकने में बाधक नहीं बनती। अधिक अविवेक या मोह ग्रस्तता हो तो उन्हें समझाया जा सकता है कि साधु संन्यासी बन कर सदा सर्वदा के लिए घर छोड़कर भाग निकलने जैसी कोई बात नहीं हो रही है कदम इतना भर है कि घर के कार्यों से अधिक समय परमार्थ प्रयोजनों के लिए दिया जाय।

पहले ही बताया जा चुका है कि जो परिवार की ओर से पूर्ण निश्चित है वे दूर क्षेत्रों में परिव्राजक बन कर अधिक समय बाहर जा सकते हैं। जिनके ऊपर घर की जिम्मेदारियाँ शेष है वे घर परिवार की देखभाल करते हुए प्रतिदिन चार घण्टा या अधिक समय अपने क्षेत्र में लोक मंगल का कार्य करने में लगा सकते हैं ऐसे लोगों को तो घर छोड़ने जैसी कोई बात है ही नहीं। अस्तु काम चलाऊ व्यवस्था यदि बनी रहती है तो मोहवश घर परिवार वालों को इस पुण्य व्रत धारण में बाधक नहीं ही बनता चाहिए। पूर्व तैयारी के रूप में यदि पत्नियों को कमाऊ स्वावलम्बी एवं परिवार व्यवस्था में प्रवीण अनुभवी बनाया गया है तब तो और भी अधिक सरलता रह सकती है।

यों पत्नियों को साथ रख कर भी वानप्रस्थ प्रक्रिया चल सकती है। पति-पत्नी मिलकर और भी अधिक कार्य कर सकते हैं पर यह हो तभी सकता है जब पत्नी को पहले से ही सेवा भावी एवं सुयोग्य बना लिया गया हो। अयोग्य और सेवा संदर्भ में अड़ंगे अटकाते रहने वाली पत्नी को साथ लेकर वानप्रस्थ के लिये निकल पड़ना तो मूल प्रयोजन को ही नष्ट करना है हाँ, यदि घर पर उनके रहने की व्यवस्था न हो तो मथुरा या हरिद्वार रह कर वे भी सेवा परायण कार्य पद्धति में प्रवृत्त रहने की शर्त पर निवास कर सकती है। बैठे ठाले रोटी तोड़ने की बात तो वहाँ भी नहीं बनेगी।

इन गुत्थियों को सुलझाते हुए वानप्रस्थ में प्रवेश करने की सुविधा अनेक व्यक्ति प्राप्त कर सकते हैं। आमतौर से परिस्थितियों की गुत्थियाँ उतनी जटिल नहीं होती जिन्हें सुलझाया न जा सके मूल कठिनाई मनुष्य की स्वार्थ परता, संकीर्णता ओर नस नस में भरी मोह ग्रस्तता की होती है सेवा धर्म का महत्व अपने देश में कोई समझता भी नहीं। किसी के मन में परमार्थ की बात आती है तो फिर बात छत से गिर कर छजली पर अटक जाने जैसी बन जाती है। भजन करना और स्वर्ग मुक्ति पाना लोगों को सबसे सरल और सस्ता तरीका प्रतीत होता है सो उन बालक्रीड़ाओं में उलझ कर जीवन लक्ष्य की पूर्ति और ईश्वर प्राप्ति जैसे महान प्रयोजनों पूर्ति के सपने देखने लगते हैं। सेवा धर्म की बात उन्हें सूझती ही नहीं- आत्मचिन्तन, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास के तथ्य उनके सामने रहते ही नहीं। ऐसी दशा में वानप्रस्थ की उपयोगिता बेचारे समझ भी कैसे सकेंगे।

बहुत हुआ तो निवृत्ति और शान्ति प्राप्ति के बहाने किसी आश्रम में कमरा बना कर जिन्दगी के सड़े मरे दिन गुजारने के लिए जा पड़ते हैं और देश दर्शन की कथा भजन की लकीर पीटते हुए समय गुजरते हैं। इन दिनों वानप्रस्थ संन्यास की यही अर्ध मृतक जैसा जीवन कम है कई चतुर लोग तो अपनी प्रचुर सम्पत्ति बेटे-पोतों को बाँट जाते हैं ओर भिक्षा की रोटियाँ खाकर प्रकारांतर से घर वालों को ही लाभान्वित करते हैं। ऐसी मोह ग्रस्त विडम्बना को उपहासास्पद ही कहा जा सकता है। जरा जीर्ण मनुष्य घर वालों से सेवा लेने का व्यावहारिक मार्ग छोड़ कर अपना भार किन्हीं आश्रमों पर डाले तो यह लोक सेवा कहाँ हुई यह तो समाज पर उलटा भार बढ़ाना हुआ। वानप्रस्थ तो उस आयु में लिया जाना चाहिए जब कि कम से कम दस पन्द्रह वर्ष तो कस कर काम कर सकने की क्षमता शरीर और मन में शेष रह गई हो।

उपरोक्त तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमें उपयुक्त व्यक्तियों को प्रेरणा देते हुए वानप्रस्थ परम्परा को पुनर्जीवित करना चाहिए। उन्हें प्रारम्भिक प्रशिक्षण के लिए छह महीना शांतिकुंज रहने के लिए भेजना चाहिए। आमतौर से शिक्षार्थी अपना भोजन व्यय स्वयं उठाते हैं। जो लगभग पचास रुपया मासिक पड़ता है। पर जिनकी स्थिति यह व्यय भार वहन करने की नहीं है उनके लिए अन्य उपाय सोचा जा सकता है जो लोग स्वयं वानप्रस्थ लेने की स्थिति में नहीं है किन्तु दूसरों को इससे लाभान्वित करना चाहते हैं वे ऐसे वानप्रस्थ शिक्षार्थियों के लिए शिक्षा काल की अर्थ व्यवस्था जुटाने में सहायता कर सकते हैं।

वानप्रस्थ के लिए ढलती आयु की बात-उत्तरार्ध की बात - पचास वर्ष से आगे की बात-मुख्यतया इसीलिए सोची गई है कि तब तक घर परिवार की जिम्मेदारियों से बहुत कुछ छुटकारा मिल जाता है। जिनके सामने इस प्रकार की अड़चन नहीं है उनके लिए आयु सम्बन्धी प्रतिबन्ध का कोई महत्व नहीं। मौत तो कभी हो सकती है। इसलिए पूर्वार्ध तक किशोर स्थिति या नव यौवन से भी गिना जा सकता है और वह समय भी वानप्रस्थ के लिए उपयुक्त हो सकता है। मनःस्थिति यदि वित्तेषणा, पुत्रेषणा लोकेषणा से ऊँची उठ गई है। सम्पन्नता, विषय लोलुपता और यश लिप्सा की ललक यदि काबू में आ गई है और परिवार की जिम्मेदारियों का भार नहीं है तो हर आयु वानप्रस्थ के लिए उपयुक्त हो सकती है।


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