कण-कण में चेतन मुस्काता (Kavita)

July 1973

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आत्म चेतना यदि न जगाती, मंजिल में ही सोता रहता, मन मन्दिर में छाया रहता, दिन में ही भीषण अँधियारा।

जीवन जलता रहता क्षण-क्षण, अहंकार के अंगारों में, द्वेष दम्भ का ताना-बाना, बुनता रहता पतझारों में।

हरा भरा साधो का सावन वियावान जंगल बन जाता- मानवता यदि वाँह न गहती, गिरते को मिलता न सहारा॥

उलझे सूतों को सुलझाते, सारा जीवन ही चुक जाता, यश-अपयश की धूप छाँव में, मंजिल का कुछ पता न पाता।

लाभ-लोभ लिप्सा का अंकुर, धरती का पीपल बन जाता, साथ न देता यदि साहस तो, तोड़ न पाता तम की कारा॥

ले जाते बटमार लूटकर, सदाचार संयम की थाती, त्याग तपस्या को फसलों को, खेतों में दीमक चर जाती।

मारा मारा फिरता रहता, दुष्प्रवृत्तियों के जंगल में, नहीं टोकता यदि विवेक तो, जीवन बन जाता बनजारा॥

प्यार न होता अगर हृदय में, मानव मन पत्थर बन जाता, अन्तस में यदि दया न होती, बुद्ध प्रुद्ध नहीं बन पाता।

गहरे में यदि नहीं पैठता, हाथ न लगाता जीवन मोती, ज्ञान-सूर्य यदि पथ न दिखाता, मंजिल का मिलना न किनारा॥

सेवा भाव न जागृत होता, करुण पुकार न यदि सुन पाता, व्यथा-कथा यदि सुनी न होती, जीवन-तप निष्फल हो जाता।

हाथ पकड़ती अगर न ममता, समता का कुछ बोध ने होता, साँसों की गति एक न होती, बढ़ता अगर न भाई चारा॥

नयन मूँद कर, हृदय खोल कर, जिस दिन पढ़ी धर्म की भाषा, अपने आप समझ में आई, जीवन दर्शन की परिभाषा।

आत्मा की आवाज गूँजती, कण-कण में चेतन मुस्काता, एक समान दिखाई देता, मन्दिर मस्जिद और गुरुद्वारा॥

*समाप्त*


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