स्पष्ट है कि वानप्रस्थ परक परमार्थ जीवन में प्रवेश करने वालों को जहाँ ज्ञान साधना और योग साधना द्वारा आत्मबल सम्पादन करना है वहाँ लोक मंगल के लिए अपनी विभूतियों को समर्पित करते हुए विश्व मानव को अधिकाधिक श्रेष्ठ समुन्नत बनाने में निरत निमग्न भी रहना है। जिन्हें सेवा धर्म पर आस्था न हो मात्र जप तप और निवृत्ति परक एकान्त सेवन अथवा सुख चैन के, बिना झंझट भरे दिन काटने हो, उन्हें इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए। वह स्थिति मरण काल आदि के निकट आ जाने पर थके हारे और अशक्त असमर्थ लोगों के लिए ही उपयुक्त हो सकती है। इसे वैराग्य निवृत्ति संन्यास आदि अन्य किसी नाम से भले ही पुकारा जाय-परम तेजस्वी वानप्रस्थ के साथ तो नहीं ही जोड़ा जा सकता।
मनुष्य को जहाँ समाज प्रदत्त अगणित सुख सुविधाएं उपलब्ध हैं। वहाँ उसे इस उत्तरदायित्व से भी लाद दिया गया है कि वह सामाजिक उत्कर्ष के लिए बढ़-चढ़ कर अनुदान प्रस्तुत करे और लोक सेवा की दृष्टि से इतना कुछ कर दिखाये जिससे उस पर चढ़ा हुआ भारी ऋण किसी न किसी प्रकार चुकता अथवा हलका हो सके। जो इस उत्तरदायित्व की उपेक्षा करता है वह समाज द्रोही कहा जा सकता है।
अध्यात्म के दार्शनिक दृष्टिकोण के आधार पर देखा जाय तो मनुष्य को जो कुछ विशेषताएं अन्य प्राणियों से अधिक दी हैं वे विशुद्ध रूप से पुत्र और प्रिय हैं। सबको समान अनुदान देना उसके लिए सामान्य न्याय था। पर मनुष्य को सबसे अधिक विभूतियां मिली हैं, उन्हें मौज मजा करने के लिए दिया गया पक्षपात पूर्व उपहार नहीं माना जाना चाहिए वरन् ऐसी पवित्र अमानत माना जाना चाहिए जिसका उपयोग विश्व वसुधा को समुन्नत और सुविकसित बनाने में ही किया जाना चाहिए। ईश्वर ने मनुष्य को अपने वरिष्ठ सहकारी के रूप में इसीलिए सृजा है कि विश्व व्यवस्था में उसकी अति महत्वपूर्ण भूमिका एवं उपयोगिता संभव हो सकें ।
चौरासी लाख योनियों के बाद मनुष्य जन्म मिलने और उसका सदुपयोग करके जीवन लक्ष्य प्राप्त करने का अवसर अतिशय सौभाग्य माना जाना चाहिए। इस संदर्भ में प्रमाद करने पर फिर चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ता है। इस शास्त्र प्रतिपादन के ध्यान में रखने पर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मानव जीवन एक अद्भुत उपलब्धि है और उसका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों में ही होना चाहिए। पेट प्रजनन जैसे पशुकर्मों में उसका न्यूनतम भाग ही लगना चाहिए।
उपरोक्त सभी दृष्टिकोणों से लोकमंगल के लिए बढ़−चढ़ कर अनुदान प्रस्तुत करना मनुष्य का परम पवित्र कर्तव्य ठहरता है। पूजा-पत्री के कर्मकाण्डों की टन्ट-घन्ट में मन को इस प्रकार बहकाना उचित नहीं कि नाम रट से पाप कट जायेंगे और ईश्वर मिल जायगा। यह सर्वथा निस्सार विडंबना है जीवन लक्ष्य की पूर्ति और ईश्वर प्राप्ति जैसी महत्वपूर्ण उपलब्धियों के लिए मनुष्य को विश्व मानव की सेवा साधना में उच्चतम भावनाओं और प्रबल पराक्रम भरी चेष्टाओं के साथ संलग्न होना पड़ता है। इस राजमार्ग को छोड़ कर और किसी पगडंडी से जीवनोद्देश्य की पूर्ति हो नहीं सकती।
वानप्रस्थ जीवन इसी परमार्थ प्रयोजन की पूर्ति के लिए नियत निर्धारित है। उत्तरार्ध आयु को लोकमंगल के लिए समर्पित करके उन महान उत्तरदायित्वों को पूरा किया जा सकता है जो सामाजिक ऋण से उऋण होने के लिए-ईश्वर प्रदत्त बहुमूल्य अनुदान का सही उपयोग करने के लिए और चौरासी लाख योगियों में भ्रमण करने के उपरान्त मिले अलभ्य अवसर का सदुपयोग करने की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। यह प्रयोजन लोकमंगल में ही प्रवृत्त होने से ही सम्भव हो सकता है। विश्व मानव की सेवा साधना से बढ़ कर ईश्वर की भक्ति पूजा और नर जन्म की सार्थकता का और कोई मार्ग है भी नहीं। सच पूछा जाय तो ज्ञान साधना और योग साधना की उपयोगिता भी इसी दृष्टि से है कि इन उपायों से परिष्कृत किये गये व्यक्तित्व द्वारा अधिक उच्चकोटि का आत्मिक आनन्द प्राप्त किया जा सके।
वानप्रस्थ को लोकसेवा के जिस क्षेत्र को हाथ में लेना पड़ता है वह जन मानस का भावात्मक परिष्कार ही है। स्पष्ट है कि संसार की समस्त समस्याएं मानवी चिन्तन की विकृतियों ने ही उत्पन्न की हैं। उनका समाधान आज या हजार वर्ष बाद जब भी होगा, लोक प्रवृत्तियों के अधोगामी प्रवाह को उलट कर ऊर्ध्वगामी बनाने से ही संभव होगा। भौतिक सम्पदायें एवं सुविधाएं चाहे कितनी ही क्यों न बढ़ाली जायं यदि दृष्टिकोण में विकृतियाँ भरी होंगी तो बढ़ी हुई सम्पदा-विनाश सर्वनाश के सर जाम में ही बढ़ाली करेगी- सर्वनाश का दिन ही निकट लायेंगी। इसलिए धन वैभव की भौतिक सुख सुविधाओं की अभिवृद्धि का कार्य दूसरे लोगों पर छोड़ कर वानप्रस्थ को एक ही अछूता काम हाथ में लेना चाहिए कि उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व के लिए आवश्यक वातावरण एवं उत्साह किस प्रकार उत्पन्न किया जायं। ज्ञान यज्ञ एवं विचार क्रान्ति इसी प्रक्रिया को कहा जा सकता है यह नींव यदि ठीक तरह भरली जाय तो नवयुग-निर्माण का भवन खड़ा करने की आधी समस्या सुलझ जायगी। तब अनायास ही अगणित रचनात्मक एवं संघर्षात्मक क्रियाकलाप उठ खड़े होंगे और जो अधर्म के उन्मूलन एवं धर्म के संस्थापन का ईश्वरीय प्रयोजन सहज ही पूरा करेंगे।
लोकशक्ति की प्रचण्डता और प्रखरता का हमें अनुभव करना होगा और संघबल उत्पन्न करके उसे सृजनात्मक प्रयोजनों में संलग्न करना होगा। यह कार्य इतना महान और इतना समर्थ है कि उसकी तुलना किसी अपराजेय दैत्य से ही की जा सकती है जन शक्ति का देव जिस मोर्चे पर भी डट जायगा उसे जीत कर ही लगा। उसके सामने बड़ी से बड़ी शक्ति को भी झख मारनी पड़ती है।
दुर्गा अवतरण की कथा प्रसिद्ध है। असुरों के मुकाबले जब देव हारने लगे तब प्रजापति ने देवताओं की एकत्रित करके उनकी शक्ति का एक-एक अंश इकट्ठा किया उस संचय से दुर्गा विनिर्मित करदी। दुर्गा ने अपने प्रचंड पराक्रम से देखते देखते शुंभ−निशुंभ, महिषासुर, मधुकैटभ जैसे दुर्दान्त दैत्यों का उन्मूलन करके रख दिया। इस प्रकार देवताओं का संकट दूर हुआ। ठीक इसी प्रकार की त्रेता कालीन कथा वह है जिसमें असुरों से संत्रस्त ऋषियों ने अपना रक्त एकत्रित करके एक घड़े में बंद किया और जमीन में गाढ़ दिया। राज जनक का हल उस घड़े से टकराया और उसमें से सीता नामक बालिका निकली। विख्यात है कि सीता के कारण ही लंका काण्ड प्रस्तुत हुआ और असुरों को समग्र निराकरण सम्भव हो गया। यह कथाएं जन शक्ति की प्रचण्डता का रहस्योद्घाटन करती हैं और बताती कि बड़े से बड़े संकट-विग्रह संघशक्ति के सामने धराशायी होकर रहते हैं।
इतिहास के पृष्ठ इसी तथ्य के प्रतिपादन से रँगे पड़े हैं। रीछ वानरों द्वारा समुद्र का पुल बांधना और प्रतापी दानव का परास्त किया जाना वस्तुतः जन शक्ति की ही विजय है। ग्वाल-वालों की लाठी का सहारा लेकर कृष्ण ने उँगली पर गोवर्धन पर्वत उठाया था। भगवान बुद्ध के ढाई लाख शिष्य समस्त विश्व में प्रव्रज्या के लिए, निकले थे और व्यापक हिंसा पर विजय प्राप्त करके धरती के कौने-कौने में अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठापना की थी । गान्धी की सत्याग्रही सेना ने प्रतापी इंग्रेजी सल्तनत की पाताल तक गहरी जमी हुई जड़ों को उखाड़ कर किस चमत्कारी ढंग से फेंका इसका विवरण विश्व विख्यात है। फ्राँस की रूस की- चीन की- अमेरिका की- आयर लैण्ड की- इटली की राज्य क्रांतियों के इतिहास जिसने पढ़े हैं हैं उन्हें भली की विदित है कि साधन सम्पन्न सरकारें किस प्रकार न शक्ति की टक्कर के सामने बारे के महल की तरह धराशायी हो गई। तब से लेकर अब तक न जाने कितने ताज तख्तों को संगठित जनता ने गेंद की तरह उछाल कर कूड़े करकट के ढेर में फेंक दिया है। भारत के राजाधिराजों की कैसी दुर्गति हुई यह देख कर कोई भी यह अनुमान लगा सकता है कि भगवान के बाद दूसरी समर्थ सत्ता के रूप में जन शक्ति की ही गणना की जा सकती है। अन्य पार्टियों के मुकाबले में काँग्रेस के हाथों शासन सौंपने का श्रेय जनमत को ही है। यदि वह चाहे तो उसे गद्दी से उतार कर किसी को भी बिठा सकता है।
यदि तो राजनीति एवं शासन सत्ता के संदर्भ में जन शक्ति की चर्चा हुई। वानप्रस्थी परमार्थ जीवन की दिशा राजनीति नहीं- समाज संरचना है। बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कर्ष है। सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन एवं सर्वतोमुखी विकृतियों का उन्मूलन अपना लक्ष्य है। इस प्रयोजन के लिए भी जन शक्ति को ही उभारने, सुधारने और दिशा देने की आवश्यकता पड़ेगी। युग-निर्माण जैसे महान प्रयोजन की अगणित आवश्यकताओं की पूर्ति लोकशक्ति को साथ लिये बिना और किसी प्रकार हो ही नहीं सकती। इसलिए वानप्रस्थी सेवा साधना में जन संपर्क बढ़ाना जीवन्त एवं भावनाशील व्यक्तित्वों को ढूँढ़ना-उन्हें दिशा देना, साथ लेना और नव-निर्माण में संलग्न कर देना यही है समग्र क्रिया पद्धति जिसमें लोकमंगल के समस्त आधारों को सन्निहित समझा जा सकता है।
धर्म के प्रति जन आस्था की जो थोड़ी सी संलग्नता है उसका चमत्कार आँखों के सामने है। कुछ समय पूर्व इस देश में 56 लाख धर्म व्यवसायी थे, नई जनगणना के अनुसार वह संख्या 80 लाख हो गई । जन गणना में जिन्होंने धर्म को व्यवसाय कोष्टक में नहीं लिखाया है, जिनकी आधी चौथाई आजीविका इसी क्षेत्र से चलती है, उनकी संख्या भी इससे कम नहीं हो सकती। इस प्रकार पूरे अधूरे धर्म व्यवसायी लोगों की संख्या डेढ़ करोड़ तक जा पहुँचती है। जनता किसी दबाव जबरदस्ती से नहीं वरन् स्वेच्छा और प्रसन्नता पूर्वक इनका व्यय भार वहन करती है जो सहज ही न्यूनतम पाँच करोड़ रुपया प्रतिदिन जा पहुँचता होगा। पाँच करोड़ प्रतिदिन अर्थात् वर्ष में 1800 करोड़-180 अरब। कितनी बड़ी धनराशि है यह। यह तो धर्म क्षेत्र में संलग्न मनुष्यों का निर्वाह व्यय हुआ। इसके अतिरिक्त लगभग 1 लाख मन्दिरों का खर्च ,तीर्थ यात्राओं में खर्च होने वाली विपुल धन राशि भी कम से कम इतनी तो होगी ही। इस प्रकार वह राशि 360 अरब वार्षिक हो जाती है। सोमवती अमावस्या पर गंगा जमुना इन दो नदियों के स्नान को ही लें उनके उद्गम से लेकर विलय स्नान तक कम से कम एक करोड़ व्यक्ति तो अवश्य ही उस पर्व पर स्नान करने जाते होंगे। एक व्यक्ति के ऊपर मार्ग व्यय, काम का हर्ज, भोजन, दान पुण्य आदि का खर्च बीस रुपये के हिसाब से 20 करोड़ रुपया होता है। ऐसी-ऐसी चार पाँच सोमवती अमावस्याएं वर्ष में पड़ती हैं उनका खर्च 1 अरब तक जा पहुँचता है। इसके अतिरिक्त कथा, कीर्तन यज्ञ, समारोह, भोज भंडारे आदि का हिसाब तैयार किया जाय तो वह राशि भी न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचेगी। इस प्रकार देखने पर उपेक्षित जैसा लगने वाला धर्म क्षेत्र ही इतनी धन सम्पत्ति खर्च करा लेता है श्रम और समय लगा लेता है जितना कि तरह-तरह के दबाव डालने वाली सुसंगठित सरकार भी लगा नहीं पाती। सरकारी टैक्स लोग कुड़कुड़ाते हुए देते हैं पर धर्म टैक्सों को स्वेच्छा से देते हैं और पास में न होने पर कर्जा उधार करके भी लगाते हैं।
यहाँ धर्म के नाम पर लगने वाले धन और श्रम का समर्थन खंडन नहीं किया जा रहा है सिर्फ यह बताया जा रहा है कि लोक रुचि की एक लहर कितने प्रचुर साधन बात की बात में प्रस्तुत कर सकती है। तमाखू, चाय और सिनेमा जैसे व्यसनों में जितना पैसा और श्रम लगता है उसकी नाप तौल भी धर्म एवं शासन पर पड़ने वाले खर्च के ही समतुल्य आँकी जा सकती है यह लोक रुचि की प्रतिक्रिया का परिचय मात्र है। यदि इसी लोक रुचि को अभिनव सृजन की दिशा में मोड़ा जा सके तो जो कार्य असम्भव दीखने-हैं साधनों के अभाव में जिन कार्यों का हो सकना कठिन लगता है वे चुटकी बजाते प्रस्तुत हो सकते हैं और अनहोनी-होनी बन कर सामने जा सकता है।
पाँच सौ घरों के एक छोटे से गाँव की बात लें। वहाँ हर परिवार में औसतन पचास पैसे की तमाखू अवश्य पी जाती होगी। पाँच सौ घरों के पचास पैसे अर्थात् ढाई सौ रुपया प्रतिदिन। महीने का ये साड़े सात हजार। वर्ष में 90 हजार। यदि उस गाँव के लोग स्वेच्छा से तमाखू छोड़ दें वह धन ग्राम की उन्नति में लगाने का संकल्प करलें तो हर वर्ष 90 हजार रुपये की आय से स्कूल, हाईस्कूल, कन्या पाठशाला, सड़क, सफाई, कुआँ, तालाब आदि कितने ही नये रचनात्मक काम हर साल खड़े किये जा सकते हैं, और कुछ हो वर्षों में वह गाँव योरोप के गाँवों जैसा समुन्नत दीख सकता है। तमाखू छोड़ने की बात हटा भी दें तो भी जिस परिवार में पाँच छह आदमी रहते हैं, उसमें पचास पैसा अर्थात् दो कप चाय का मूल्य-खर्च कर देना कुछ भारी नहीं पड़ेगा। आधा किलो अनाज को घर परिवार में रोज चूहे ही बिगाड़ देते हैं। यदि लोक रुचि गाँव सुधार के लिए उमगाई जा सके तो हर वर्ष नब्बे हजार (लगभग एक लाख रुपया) सृजन कार्यों के लिए बिना किसी अधिक कठिनाई का अनुभव किये उपलब्ध हो सकता है। सरकार का मुँह ताकते रहने पर हर गाँव के लिए 1 लाख रुपया वार्षिक का विकास अनुदान मिल सकना शायद कभी भी संभव न हो सके।
श्रमदान की बात लें। पाँच सौ घरों के गाँव में डेढ़ हजार वयस्क व्यक्ति माने जा सकते हैं। वे एक-एक घण्टा श्रमदान ग्राम सुधार के लिए देने लगें तो डेढ़ हजार घण्टे का श्रम मुफ्त में मिला। सात घण्टे का दिन मानें तो डेढ़ हजार घण्टे से लगभग दो सौ मनुष्यों का दिन भर का पूरा श्रम होता है। दो सौ व्यक्ति नित्य अपना श्रम समर्पण करें तो एक वर्ष में इतना अधिक कार्य हो सकता है। जिसे देखते हुए आश्चर्य चकित रह जाना पड़े।
ऊपर की पंक्तियों में जन शक्ति के महादैत्य की क्षमता का थोड़ा सा आभास कराया गया है। उसे जगाया- संगठित किया जाना और सृजन के महान लक्ष्य में नियोजित किया जाना, कठिन दीखता अवश्य है पर वैसा है नहीं। पचास करोड़ की आबादी वाले देश में एक लाख सुयोग्य और भावनाशील वानप्रस्थों का मिल जाना न तो कठिन है और न असम्भव। 80 लाख धर्म व्यवसायी जिस देश में उद्भिज घास-पात की तरह उग पड़ें वहाँ युग के उद्बोधन पर एक लाख वानप्रस्थ न निकले यह थे और गाँधी को भी सत्याग्रह आन्दोलन में समाज संस्कृति के पुनरुत्थान की बात यदि विचारशील वर्ग में गले उतारी जा सके तो एक लाख वानप्रस्थों के लिए की गई युग पुकार उपेक्षित न रहेगी। साँस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए यदि समुचित उत्साह पैदा किया जा सके तो सृजन सेना का नेतृत्व करने लिए इतने वानप्रस्थ सहज ही अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई देंगे।
इन वानप्रस्थों का एक ही काम होगा जन-जागरण लोक शक्ति का गठन-जन मानस का परिष्कार-भावनाशील लोगों का चयन और उन्हें लोकमंगल के लिए प्रवृत्त होने का प्रोत्साहन-मार्गदर्शन। यह एक काम ही इतना बड़ा है जिससे संबन्धित विविध क्रिया-कलापों में वानप्रस्थ वर्ग को निरन्तर लगा रहेगा पड़ेगा। यह कार्य जिस सीमा तक पूरा होने लगेगा उसी अनुपात में अगणित रचनात्मक और संघर्षात्मक क्रिया कलाप पनपते दिखाई देंगे और समाज की विभिन्न समस्याओं को स्थानीय उपाय उपचारों के आधार पर हल करने में निरत होंगे।
कहना न होगा कि यह समस्त क्रिया-कलाप धर्म धारणा पर ही आधारित होना चाहिए। भावना स्तर का स्पर्श कर सकना धर्म और अध्यात्म दर्शन के लिए ही सम्भव है। राजनीति समाज संगठन, अर्थोन्नति आदि आधार की पुनरुत्थान के हो सकते हैं पर भारत जैसे अस्सी प्रतिशत अशिक्षितों और घोर देहातों में रहने वाले लोगों के लिए वे आधार उतने हृदयग्राही न हो सकेंगे जितने धर्म आधार। भारत की वर्तमान परिस्थितियों में नव-निर्माण के समग्र अभियान की सफलता धर्म आस्था का अवलम्बन लेकर ही प्राप्त की जा सकती है। यों मानव तत्व में उत्कृष्टता की स्थापना का प्रयोजन अन्ततः परिष्कृत धर्म धारणा के आधार पर ही संभव हो सकता है।