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July 1973

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अजानन् माहात्म्यं पततुशलभो दीप दहने। स मीनोप्यज्ञाना द्वडिश युतमश्नातु पिशितम्॥

विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्याल जटिलान्। न मुँचामः कामानहह गहनो मोह महिमा॥

मोह के वशीभूत होकर पतंगा दीप पर गिरकर जल जाता है, मछली कटिये का माँस खाकर अपने प्राणों का नाश करती है। ठीक ही है, मोह की महिमा अति कठिन है, तभी तो लोग जान-बूझकर इन दुःखदायी विषयों की अभिलाषा नहीं छोड़ते।

धर्ममंच का आधार लेकर जनमानस के परिष्कार की सुव्यवस्थित क्रिया पद्धति युगनिर्माण की शतसूत्री योजना के अंतर्गत बहुत पहले से ही घोषित की जा चुकी है। उस पर ध्यान पूर्वक विचार किया जाय तो लोकशिक्षण के लिए ढेरों कार्यक्रम सामने प्रस्तुत दिखाई पड़ेंगे उनमें से जिन्हें जहाँ जिस प्रकार कार्यान्वित किया जा सके उसकी विधि व्यवस्था स्थानीय परिस्थितियों और कार्यकर्ताओं की क्षमता को ध्यान में रख कर बनाई जानी चाहिए।सर्वत्र एकरूपता तो नहीं हो सकती। क्षेत्रीय स्थिति के अनुरूप कार्यक्रमों में भिन्नता तो रहेगी ही पर मूल सिद्धान्त सर्वत्र एक ही रहेगा। दुर्बुद्धि का-दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन किया जाना चाहिए। रूढ़िवादिता, अन्धा मान्यता एवं पूर्वाग्रहों के साथ जुड़ी हुई दुष्ट मूढ़ता के विरुद्ध मोर्चा खड़ा करने के लिये प्रथम चरण विचार-क्रान्ति के रूप में ही उठाया जाय। चूँकि अपना कार्य क्षेत्र धर्म एवं अध्यात्म है इसलिए इस प्रक्रिया को ज्ञानयज्ञ के सौम्य नामकरण के साथ संबोधित किया जाना अधिक उचित उपयुक्त है।

प्रतिगामी हाथों से शक्तिशाली धर्मक्षेत्र को छीन कर प्रगतिशील हाथों में सौंप देना वानप्रस्थी का प्रधान कार्य होना चाहिये। धर्म परम्पराओं को प्रगतिशील रूप देने के लिए बहुत कुछ करना शेष है। वाणी का- प्रवचन शक्ति का उपयोग करने के लिए सत्यनारायण कथा की एक दिन वाली-रामायण कथा-गीता कथा की सात दिन वाले साप्ताहिक धर्मानुष्ठान की क्रियापद्धति कितनी उत्तम है उसे प्रत्यक्ष अनुभव करके देखा जा सकता है। होली, दिवाली, बसन्त पंचमी, विजयादशमी आदि पर्वों को सामूहिक रूप से मनाया जाय और उन परंपराओं के साथ जुड़ी हुई महान प्रेरणाओं को जनसाधारण के साथ प्रस्तुत किया जाय तो लोकमानस में क्रान्तिकारी हलचलें उत्पन्न की जा सकती है। परिवार संस्था को सुविकसित समुन्नत बनाने एवं अवाँछनीय प्रचलनों से राहत दिलाने के लिए संस्कारों के माध्यम से अत्यन्त तेजस्वी मार्ग दर्शन प्रस्तुत किया जा सकता है, विवाह संस्कार के समय सम्पन्न होने वाले कर्म काण्डों की यदि किसी मनस्वी द्वारा व्याख्या हो सके तो दाम्पत्य जीवन का-गृहस्थ जीवन कर तत्वदर्शन इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है कि वन-वधू ही नहीं उत्सव में उपस्थित अन्य लोग भी अपने गृहस्थ परिवार की आधारशिला का पुनर्निर्धारण कर सके।

जन्मदिन और विवाह दिन मनाने की परम्परा कितनी प्रेरणाप्रद है उन छोटे-छोटे आयोजनों में वैयक्तिक उत्कर्ष के लिये-दाम्पत्य जीवन की सुव्यवस्था के लिए कितना प्रबल प्रेरणा मिलती है उसे कुछ ही आयोजनों का परिणाम देखकर सहज ही जाना सकता है।

छोटे बड़े गायत्री यज्ञों के साथ जुड़े हुए युगनिर्माण सम्मेलनों में अनैतिक अवाँछनीयता एवं दुष्प्रवृत्तियों के परित्याग का जो प्रतिज्ञा अनुदान जुड़ा रहता है। उसमें उन धर्मोत्सवों का स्वरूप व्यक्ति और समाज की अभिनव संरचना करने में दूरदर्शिता पूर्ण कदम ही कहा जा सकता ह। इन आयोजनों में जाति और लिंगभेद की समाप्ति के जो दृश्य सामने रहते हैं। उनसे जनता में रूढ़िवादिता को उखाड़ फेंकने के लिये अभिनव साहस का संचार होता है।

धर्म मंच के सहारे ऊपर जिन कार्यक्रमों का संकेत है उनके अतिरिक्त भी स्थानीय परम्पराओं एवं आवश्यकताओं के अनुरूप और भी बहुत कुछ किये जा सकते हैं। धार्मिक मेलों का आरम्भ करके जहाँ उन उत्साह का संचार हो सकता है वहाँ उस प्रेरणा प्रद वातावरण से प्रभाव ग्रहण करने के लिए आकर्षित किया जा सकता है। वहाँ विक्रेता और खरीदारी को लाभान्वित करने के बात बन सकती है। लोकरंजन के साथ लोकमंगल के कितने ही क्रियाकलाप करते हैं। गायत्री यज्ञो के साथ नियत तिथि पर हर वर्ष मेला लगाने की प्रभा जहाँ भी चल रही हैं तथा नवनिर्माण की बहुमुखी हलचलों को व्यापक बनाने में आशातीत सफलता मिली है वानप्रस्थों के परिव्रज्या प्रवास में इस प्रकार के आयोजन सहज ही आयोजित होते चल सकते हैं यह बात पिछले अनुभवों ने पूरी तरह स्पष्ट कर दी है।


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