मूल-स्रोत का सम्बल

May 1968

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एक बीज डाला जाता है, तब वृक्ष खड़ा होता है। बीज सारे वृक्ष का मूल है। मनुष्य-जीवन का भी एक वैसा ही मूल है, चाहे उसे परमात्मा कहें, ब्रह्म या चेतना-शक्ति। जीवन के मूल-स्रोत से बिछुड़ जाने के कारण ही मनुष्य शाँति और जीवन की पवित्रता से अलग पड़ जाता है। मृत्यु के भय और जड़त्व के शून्य में निर्वासित हो जाता है।

मनुष्य अपने आपको जीवन मूल-स्रोत के साथ संयुक्त कर देता है तो वह विशाल प्रजा के सुख-दुःख के साथ एक तन हो जाता है। समष्टि में डूब कर व्यक्तिगत अहंता, स्वार्थ, संग्रह, हिंसा, छल की क्षुद्रताओं से बच जाता है। स्रोत के साथ एकात्म हो जाने पर मृत्यु, शून्यता और एकाकीपन का भय तिरोहित होता है।

वृक्ष का गुण है चारों ओर फैलना। हम भी फैलें। घर, परिवार, समाज, देश और विश्व के साथ प्रेम करें, स्नेह करें, आदर और सद्भाव भरें। किसी की छाया की आवश्यकता होती है, उसे छाया दें, सहारे की आवश्यकता होती है, उसे सहारा दें। अपनी व्यष्टि को विश्व-आत्मा के साथ घुलाने के लिये जितना फैल सकते हों, हमें फैलना चाहिये। वह हमारे जीवन का धर्म है। समष्टि में अपने को विसर्जित कर देना ही जीवन की सार्थकता है।

किन्तु जब हम फैलें तब भी अपने मूल-स्रोत को न भूलें, नहीं तो फिर उसी जड़ता और भय में खो जायेंगे, जिससे निकलने के लिये ही मनुष्य जीवन का आविर्भाव हुआ है।

-रोम्यां रोल


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