कामनायें, असंगत न होने पायें

May 1968

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गीता में बतलाया गया है कि “कामनाओं से क्रोध का जन्म होता है और क्रोध से बुद्धि नष्ट हो जाती है। बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य मूर्खतापूर्ण अपकर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। अपकर्म अशाँति और असन्तोष के कारण होते हैं।’’ यह क्रम स्पष्ट करता है कि अशाँति तथा असंतोष के दुःख का मूल कारण कामनायें ही होती हैं। यदि कामनाओं से छुट्टी पाली जाये तो दुःखों से आप ही आप मुक्ति मिल जाये।

किन्तु एक ओर यह भी माना जाता है कि कामनायें मानवीय प्रगति का आधार हैं। कामनाओं से ही कर्म प्रेरित होते हैं और कर्म मनुष्य को उन्नति की ओर ले जाते हैं। मनुष्य के मन में यदि कामनाओं का जन्म न हो तो मनुष्य जड़ पदार्थों की तरह निकम्मा हो जाये। पशुओं की तरह अप्रगतिशील बना रहे। सृष्टि के पारम्भिक काल में मनुष्य भी अन्य पशुओं की तरह ही एक पशु था। पशुओं की प्रवृत्तियों और जीवन स्थिति में जो जड़ता और अप्रगतिशीलता का दोष था वही मनुष्य की प्रवृत्तियों और जीवन स्थिति में था। पशुओं और मनुष्यों में कोई विशेष अन्तर नहीं था।

किन्तु ज्यों-ज्यों मनुष्य में चेतना और उसके साथ कामनाओं का जन्म होने लगा मनुष्य प्रगति करता हुआ आगे बढ़ने लगा, और बढ़ता-बढ़ता आज वह इस सुन्दर स्थिति में आ गया है। पशु कामनाओं के अभाव में जहाँ पहले थे, वहीं आज भी पड़े हुए हैं। उनमें भी यदि मानव प्राणी की तरह कामनाओं की प्रेरणा होती तो वे भी शायद अपनी आदि स्थिति में कुछ-न-कुछ आगे बढ़ लिये होते।

यह सारा संसार कामना के आधार पर ही बना और विकसित हुआ है। बताया गया है कि पहले केवल शून्य के सिवाय और कुछ नहीं था। एकाकी ईश्वर ही उस पूरे शून्य में परिव्याप्त हुआ स्थित था। अपने एकाकीपन से ऊब कर ईश्वर ने संसार की कामना की और वह बन कर तैयार हो गया। उसके अंश मनुष्यों की नित नूतन कामनायें उसे सँवारने और विकसित करने लगी। कामनाओं का मानव जीवन से बहुत बड़ा सम्बंध है। उनको हेय तथा हानिकर मानने में आपत्ति होती है।

तब आखिर इन विरोधी तथ्यों में सत्य क्या है? अपने स्थान पर ये दोनों तथ्य सत्य तथा मान्य हैं। कामनाओं के आधार पर ही मनुष्य की प्रगति तथा विकास होता है और कामनायें ही उसके दुःख का कारण भी हैं। जो कामनायें सृजनात्मक, शुभ और सामाजिक हित की होती हैं, वे तो मानव-जीवन के विकास की कारण होती हैं, इसके विपरीत जो कामनायें अशुभ, असुन्दर और समाज-विरोधी होती हैं, वे एक मात्र दुःख का कारण बनती हैं।

जिन कामनाओं में केवल अपना स्वार्थ ही समाया रहता है, उनको अशुभ कामनाएँ ही कहना होगा। फिर चाहे वे भोजन, वस्त्र, निवास, उन्नति, विकास और आत्मोद्धार सम्बन्धी ही क्यों न हों। अध्यात्म सम्बन्धी व्यक्तिगत कामनाओं को अशुभ कहने, सुनने में कुछ अटपटा जरूर लग सकता है पर बात सही है।

मानिये एक मनुष्य व्यक्तिगत आत्मोद्धार की कामना रखता है और उसके लिये प्रयत्नरत होकर गृह-त्याग कर देता है, तो क्या उसकी यह कामना उचित कही जा सकती है? यदि इस कामना को उचित कहा जा सकता है, तो फिर उसके गृह त्याग से जो संकट परिवार पर आयेगा उसका दायित्व किस पर होगा? निश्चय ही इसका दायित्व उस पर ही होगा, जो अपना आवश्यक कर्तव्य छोड़ कर व्यक्तिगत उद्धार के लिये चला गया है। कोई भी कामना, कितनी ही ऊँची क्यों न हो, यदि उसकी पूर्ति में किन्हीं ऐसे व्यक्तियों को कष्ट होता है, जिनको नहीं होना चाहिये, तो वे अनुचित हैं, अशुभ हैं। उनका परिणाम दुःख के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता है।

बहुत-सी कामनायें ऐसी होती हैं जो समाज विरोधी न होने पर भी दुःखदायी होती हैं। वे कामनायें होती हैं अपनी स्थिति से परे की कामनायें। उदाहरण के लिये किसी ऐसे आदमी को लीजिये जो जीवन में एक उच्चपद पाने की आकाँक्षा रखता है। उसकी यह कामना व्यक्तिगत होते हुए भी अनुचित तथा अशुभ नहीं कहीं जा सकती। क्योंकि उसकी इस कामना से न तो समाज का विरोध होता है और न इससे किन्हीं ऐसे लोगों को कष्ट होगा, जिन्हें नहीं होना चाहिये। बल्कि ऐसी कामनाओं को तो शुभ ही कहा जाना चाहिये। वह इसलिये कि व्यक्तिगत होने पर भी ये समाज के लिए हितकारी होती हैं। व्यक्ति की उन्नति में ही तो समाज की उन्नति निहित रहती है। व्यक्ति, व्यक्ति रूप में उन्नति करते जाने पर भी पूरे समाज की ही उन्नति होती चलती है। व्यक्तियों से ही तो समाज बनता है। व्यक्ति की अच्छाई-बुराई समाज का ही विकास ह्रास होता है। व्यक्ति समाज का ही एक अंग होता है। जैसा स्वयं बनता है, मानो वैसा ही समाज को बनने में सहायक होता है। अस्तु, व्यक्तिगत ऐसी कामनाओं को बुरा नहीं माना जा सकता है।

तथापि व्यक्तिगत विकास की कामनायें भी यदा-कदा अशाँति और असन्तोष का कारण बन बैठती हैं। ऐसी कामनायें, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, वे होती हैं जो अपनी स्थिति के परे की होती हैं। कोई व्यक्ति जीवन में एक ऊँचा पद चाहता है। अच्छा है, ठीक है, बड़ा शुभ है। किन्तु क्या उसने इस कामना को पालने से पहले यह देख लिया है कि उसकी आकाँक्षा के अनुरूप उसकी स्थिति भी है? यदि उसने ऐसा नहीं किया है तो निश्चय ही उसकी पोषित कामना उसके लिये अशाँति और असन्तोष का कारण बनेगी। क्योंकि स्थिति की अनुरूपता के अभाव में उसकी पूर्ति सम्भव नहीं। अपूर्ण कामनाओं से दुःख होना स्वाभाविक ही है।

जीवन में कोई ऊँचा पद, केवल यों ही कामना मात्र करने से तो मिल ही नहीं जाता। उसके लिये तो विद्या, बुद्धि, योग्यता, शक्ति और अवसर आदि बहुत से साधनों की आवश्यकता होती है। यदि एक बार यह सब साधन भी हों और पुरुषार्थ, प्रयत्न तथा कर्मठता की कमी रह गई तब भी वह वाँछित पद नहीं मिल सकता, जिसके लिए कामना की जा रही है।

ऐसी दुर्लभ कामनाओं का जन्म भ्रम अथवा भावुकता के कारण हो जाता है और कभी-कभी ईर्ष्या-द्वेष तथा स्पर्धा के कारण भी। कहने-सुनने और कभी-कभी स्वयं भी मनुष्य को अपनी क्षमताओं के प्रति भ्रम हो जाता है, जिसके कारण वह अपनी क्षमताओं को कुछ बढ़ा-चढ़ा कर आँक बैठता है और उसी के आधार पर ऊँची-ऊँची कामनायें भी पाल लेने की भूल कर बैठता है।

भावुकता का प्रवाह भी मनुष्य को अपनी सही शक्तियों को समझने नहीं देता। कल्पना प्रधान होने से उसे बड़ी-बड़ी योजनायें और बड़े-बड़े महल बनाते देर नहीं लगती। किन्तु यथार्थ और कल्पना में तो जमीन आसमान का अन्तर होता है। जो महल कल्पना में बनते विलम्ब नहीं लगता, उनकी मूर्तिमत्ता में पूरा जीवन तक लग जाता और कभी-कभी वे पूरे नहीं हो पाते। इस प्रकार की कल्पना-जन्य आकाँक्षाएँ, अशाँति और असन्तोष के सिवाय मनुष्य को कुछ भी नहीं दे सकती हैं।

बहुत बार अनेक लोग, यद्यपि उनमें मौलिक महत्वाकाँक्षा नहीं होती तथापि दूसरों के प्रति ईर्ष्या और स्पर्धा के वशीभूत होकर महत्वाकाँक्षी बन बैठने की भूल कर जाते हैं। अमुक व्यक्ति ने ऐसा काम कर लिया है, इतनी उन्नति पर पहुँच गया है, मुझे भी ऐसा बनना चाहिये। यदि मैं ऐसा नहीं बनता तो उससे हेठा रह जाऊँगा- इसी प्रकार के निरर्थक विचार-विकार के आधार पर आकाँक्षाएँ पाल लेने का अर्थ होता है, अपने लिए अशाँति और असंतोष का प्रबन्ध कर लेना।

ईर्ष्या, द्वेष का आधार तो निकृष्ट होता ही है, स्पर्धावश और देखा-देखी भी आकाँक्षाओं का ताना-बाना बुन लेना ठीक नहीं। कोई व्यक्ति जो कुछ बना है, अपनी मौलिक प्रवृत्तियों और शक्ति क्षमताओं के आधार पर बना है। अब यह जरूरी नहीं कि किसी दूसरे की प्रवृत्तियाँ, शक्तियाँ और परिस्थितियाँ भी वैसी ही हों। यदि ऐसा है तो निश्चय ही उसकी स्पर्धा परास्त होगी, आकाँक्षा, आकाँक्षा ही रह कर उसके हृदय में शाँत ही रहेगी।

जीवन में यदि अशाँति और असंतोष से बचना है और सुख-शाँति में सरल स्निग्ध जीवन चलाना है, तो कामनाओं, आकाँक्षाओं के सम्बन्ध में बड़ा सतर्क और सावधान रहना होगा। वह सावधानी यह है कि हृदय में जन्म ने और पलने वाली कामनाओं का सम्पादन करते रहिये। जो कामनाएँ केवल स्वार्थमयी और समाज-विरोधी हैं, उन्हें काट कर वैसे ही फेंक दीजिये जैसे चतुर माली क्यारी में से बेकार की वनस्पति काट कर फेंक देता है। केवल वे ही कामनाएँ रखिये, जो अपनी उन्नति के साथ-साथ सामाजिक गति से भी सामंजस्य रखती हों।

कामनाओं के विषय में कल्पना और भावुकता की प्रेरणा से बचें रहिये। मनुष्य के ये दोनों विकार उसे यथार्थ से हटा कर स्वप्न-लोक में भटका देते हैं, जहाँ जाकर वह अपनी यथार्थ शक्ति, क्षमता और परिस्थिति के विषय में बहुमूल्यन करने की भूल कर बैठता है। प्रश्रय केवल उन्हीं कामनाओं को दीजिये, जो अपनी स्थिति, क्षमता और सम्बन्धित स्रोतों से मेल खाती हों। अपनी सीमा से बाहर की महत्वाकाँक्षाओं से शत्रु की तरह बचते रहना चाहिये। अपनी मौलिक प्रवृत्तियों के आधार पर ही अपनी कामनाओं का सृजन करना ठीक होगा, देखा-देखी अथवा संघर्ष से प्रेरित होकर दूसरों की तरह आकाँक्षाएँ पाल लेना गलत नीति है।

कामनाएँ उन्नति और प्रगति की प्रेरक हैं अवश्य किन्तु वे ही जो हमारे अनुरूप हों और हम स्वयं जिनके अनुरूप हों। असंगत और अयुक्त कामनाएँ अशाँति और असंतोष की जननी होती हैं। ऐसी ही कामनाओं को शास्त्रों में निषेध करते हुए क्रोध अर्थात् क्षोभ का हेतु और उसी क्रम में अशाँति एवं असन्तोष का कारण बतलाया गया है।


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