गायत्री द्वारा प्राण-शक्ति का अभिवर्धन

May 1968

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गायत्री मंत्र के शब्दार्थ में से प्रकट है कि यह मनुष्य में सन्निहित प्राण तत्व का अभिवर्धन, उन्नयन करने की विद्या है। ‘गय’ अर्थात् प्राण। ‘त्री’ अर्थात् त्राण करने वाली, जो प्राणों परित्राण, उद्धार, संरक्षण करे वह गायत्री। मंत्र शब्द का अर्थ- मनन, विज्ञान, विद्या, विचार होता है। गायत्री मंत्र अर्थात् प्राणों का परित्राण करने की विद्या।

गायत्री मंत्र का दूसरा नाम ‘तारक मंत्र’ भी है। साधना ग्रंथों में उसका उल्लेख तारक मंत्र के नाम से भी हुआ है। तारक अर्थात् पार कर देने वाला। तैरा कर पार निकाल देने वाला। गहरे जल प्रवाह को पार करके निकल जाने को- डूबते हुए को बचा लेने को तारना कहते हैं। यह भवसागर ऐसा ही है, जिसमें अधिकाँश जीव डूबते हैं। तरते तो कोई विरले हैं। जिस साधन से तरना संभव हो सके उसे ‘तारक’ कहा जायेगा। गायत्री में यह सामर्थ्य है, उसी से उसे ‘तारक मंत्र’ कहा जाता है।

प्राण-शक्ति की न्यूनता होने पर प्राणी समुचित पराक्रम कर सकने में असमर्थ रहता है और उसे अधूरी मंजिल में ही निराश एवं असफल हो जाना पड़ता है। क्या भौतिक, क्या आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में अभीष्ट सफलता के लिए आवश्यक सामर्थ्य की जरूरत पड़ती है। इसके बिना प्रयोजन को पूर्ण कर सकना, लक्ष्य को प्राप्त कर सकना असंभव है। इसलिये कोई महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए उसको आवश्यक साधन जुटाना आवश्यक होता है। कहना न होगा कि भौतिक उपकरणों की अपेक्षा व्यक्तित्व की प्रखरता एवं ओजस्विता कहीं अधिक आवश्यक है।

साधनों का उपयोग करने के लिये भी शौर्य, साहस और संतुलन चाहिये। बढ़िया बन्दूक हाथ में, पर मन में भीरुता, घबराहट भरी रहे तो वह बेचारी बन्दूक क्या करेगी? चलेगी ही नहीं, चल भी गई तो निशाना ठीक नहीं लगेगा, दुश्मन सहज ही उससे इस बन्दूक को छीन कर उल्टा आक्रमण कर बैठेगा। इसके विपरीत साहसी लोग छत पर पड़ी ईंटों से और लाठियों से डाकुओं का मुकाबला कर लेते हैं। ‘साहस वालों की ईश्वर सहायता करता है’ यह उक्ति निरर्थक नहीं है। सच तो यही है कि समस्त सफलताओं के मूल में प्राण शक्ति ही साहस, जीवट, दृढ़ता, लगन, तत्परता की प्रमुख भूमिका सम्पादन करती है। और यह सभी विभूतियाँ प्राण-शक्ति सहचारी हैं।

प्राण ही वह तेज है जो दीपक के तेल की तरह मनुष्य के नेत्रों में, वाणी में, गतिविधियों में, भाव-भंगिमाओं में, बुद्धि में, विचारों में प्रकाश बन कर चमकता है। मानव जीवन की वास्तविक शक्ति यही है। इस एक ही विशेषता के होने पर अन्यान्य अनुकूलताएं तथा सुविधाएं स्वयमेव उत्पन्न, एकत्रित एवं आकर्षित होती चली जाती हैं। जिसके पास यह विभूति नहीं उस दुर्बल व्यक्तित्व वाले की संपत्तियों को दूसरे बलवान लोग अपहरण कर ले जाते हैं। घोड़ा अनाड़ी सवार को पटक देता है। कमजोर की संपदा- जर, जोरू, जमीन दूसरे के अधिकार में चली जाती है।

जिसमें संरक्षण की सामर्थ्य नहीं वह उपार्जित सम्पदाओं को भी अपने पास बनाये नहीं रख सकता। विभूतियाँ दुर्बल के पास नहीं रहतीं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए विचारशील लोगों को अपनी समर्थता- प्राण शक्ति बनाये रखने तथा बढ़ाने के लिए भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रयत्न करने पड़ते हैं। आध्यात्मिक प्रयत्नों में प्राण शक्ति के अभिवर्धन की सर्वोच्च प्रक्रिया गायत्री उपासना को माना गया है। उसका नामकरण इसी आधार पर हुआ है।

शरीर में प्राण शक्ति ही निरोगता, दीर्घ-जीवन, पुष्टि एवं लावण्य के रूप में चमकती है। मन में वही बुद्धिमता, मेधा, प्रज्ञा के रूप में प्रतिष्ठित रहती है। शौर्य, साहस, निष्ठा, दृढ़ता, लगन, संयम, सहृदयता, सज्जनता, दूरदर्शिता एवं विवेकशीलता के रूप में उस प्राण शक्ति की ही स्थिति आँकी जाती है। व्यक्तित्व की समग्र तेजस्विता का आधार यह प्राण ही हैं। शास्त्रकारों ने इसकी महिमा को मुक्त कण्ठ से गाया है और जन-साधारण को इस सृष्टि की सर्वोत्तम प्रखरता का परिचय कराते हुए बताया है कि वे भूले न रहें, इस शक्ति-स्रोत को- इस भाण्डागार को ध्यान में रखें और यदि जीवन लक्ष्य में सफलता प्राप्त करनी हो तो इस तत्व को उपार्जित, विकसित करने का प्रयत्न करें।

प्राणवान बनें और अपनी विभिन्न शक्तियों में प्रखरता उत्पन्न होने के कारण पग-पग पर अद्भुत सफलतायें- सिद्धियाँ मिलने का चमत्कार देखें। प्राण की न्यूनता ही समस्त विपत्तियों का, अभावों और शोक-संतापों का कारण है। दुर्बल पर हर दिशा से आक्रमण होता है। दैव की दुर्बल का घातक होता है। भाग्य भी उसका साथ नहीं देता और मृत-लाश पर जैसे चील, कौए, दौड़ पड़ते हैं, वैसे ही हीनसत्व मनुष्य पर विपत्तियाँ टूट पड़ती हैं। इसलिये हर बुद्धिमान को प्राण का आश्रय लेना ही चाहिये।

प्राणो वै बलम्। प्राणो वै अमृतम्। आयुर्नः प्राणः राजा वै प्राणः। - वृहदारण्यक

प्राण ही बल है, प्राण ही अमृत है। प्राण ही आयु है। प्राण ही राजा है।

यो वै प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः। - सांख्यायन

जो प्राण है, सो ही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है, सो ही प्राण है।

यावद्धयास्मिन् शरीरे प्राणोवसति तावदायुः। - कौषीतकि

जब तक इस शरीर में प्राण हैं तभी तक जीवन है।

प्राणो वै सुशर्मा सुप्रतिष्ठानः। - शतपथ

प्राण ही इस शरीर रूपी नौका की सुप्रतिष्ठा है।

एतावज्ज्न्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु। प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत्सदा॥

‘‘प्राण, अर्थ, बुद्धि और वाणी द्वारा केवल श्रेय का ही आचरण करना देहधारियों का इस देह में जन्म साफल्य है।’’

या ते तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रे या च चक्षुषि। या च मनसि सन्तताशिवां तां कुरुमोत्क्रमीः॥

‘हे प्राण, जो तेरा रूप वाणी में निहित है तथा जो श्रोतों, नेत्रों तथा मन में निहित है, उसे कल्याणकारी बना, तू हमारे देह से बाहर जाने की चेष्टा मत कर।’

प्राणस्येदं वशे सर्वं त्रिदिवे यत् प्रतिष्ठितम्। मातेव पुत्रान रक्षस्व प्रज्ञां च विधेहिन इति॥

‘‘हे प्राण, यह विश्व और स्वर्ग में स्थित जो कुछ है, वह सब आपके ही आश्रित है। अतः हे प्राण! तू माता-पिता के समान हमारा रक्षक बन, हमें धन और बुद्धि दे।’’

संक्रामतं या जहीतं शरीर, प्राणपानो ते सयुजाविहस्ताम्। शतं जीव शरदो वर्धमानाऽग्निष्टे गोपा अधिपा वशिष्ठः।

‘‘हे प्राण! हे अपान इस देह को तुम मत छोड़ना। मिल-जुल कर इसी में रहना। तभी यह देह शतायु होगी।’’

व्यक्ति का व्यक्तित्व ही नहीं इस सृष्टि का कण-कण इस प्राण शक्ति की ज्योति से ज्योतिर्मय हो रहा है। जहाँ जितना जीवन है, प्रकाश है, उत्साह है, आनन्द है, सौंदर्य है, वहाँ उतनी ही प्राण की मात्रा विद्यमान समझनी चाहिये। उत्पादन शक्ति और किसी में नहीं केवल प्राण में ही है। जो भी प्रादुर्भाव, सृजन, आविष्कार, निर्माण, विकास-क्रम चल रहा है, उसके मूल में यही परब्रह्म की परम चेतना काम करती है। जड़ पंचतत्वों के चैतन्य की तरह सक्रिय रहने का आधार यह प्राण ही है। परमाणु उसी से सामर्थ्य ग्रहण करते हैं और उसी की प्रेरणा से अपनी धुरी तथा कक्षा में भ्रमण करते हैं। विश्व ब्रह्मांड के समस्त ग्रह, नक्षत्रों की गतिविधियाँ इसी प्रेरणा शक्ति से प्रेरित हैं। कहा भी है-

प्राणाद्धये व खल्विमान भूतानि जायन्ते। प्राणानि जातानि जीवन्ति। प्राणं प्रयस्त्यभि संविशन्तीति। - तैत्तरीय

प्राण शक्ति से ही समस्त प्राणी पैदा होते हैं। पैदा होने पर प्राण से ही जीते हैं और अन्ततः प्राण में ही प्रवेश कर जाते हैं।

सर्वाणि हवा इमानि भूतानि प्राणमेवा। भिशं विशन्ति, प्राणमभ्युंजि हते॥ - छान्दोग्य

यह सब प्राणी, प्राण में से ही उत्पन्न होते हैं और प्राण में ही लीन हो जाते हैं।

तेन संसारचक्रेऽस्मिन् भ्रमतीत्येव सर्वदा। तदर्थ ये प्रवर्तन्ते योगिनः प्राण धारणे। तत एवाखिला नाड़ी निरूद्धा चाष्टवेष्टतम्। इयं कुण्डलिनी शक्ती रन्ध्रं त्यजति नान्यथा॥ - योगी गोरखनाथ

‘‘प्राण वायु के कारण ही जीव समूह इस संसार-क्रम में निरन्तर भ्रमण करता है। योगी लोग दीर्घ-जीवन प्राप्त करने के लिये इस वायु को स्थिर करते हैं। इसके अभ्यास से नाड़ियाँ पुनः कामादि अष्टदोष से दूषित नहीं हो पातीं। नाड़ी शुद्ध होने पर कुण्डलिनी शक्ति अपने रन्ध्र को छोड़ देती है, अन्यथा नहीं छोड़ती।’’

सोऽयमाकाशः प्राणेन वृहत्याविष्ठच्चः तद्यथायमाकाशः प्राणेन वृहत्या विष्टब्ध एवं सर्वाणि भूतानि आपि पिपीलिकभ्यः प्राणिते वृहत्या विष्ठव्यानीत्वेवं विद्यात्। - एतरेय

प्राण ही इस विश्व को धारण करने वाला है। प्राण की शक्ति से ही यह ब्रह्मांड अपने स्थान पर टिका हुआ है। चींटी से लेकर हाथी तक सब प्राणी इस प्राण के ही आश्रित हैं। यदि प्राण न होता तो जो कुछ हम देखते हैं, कुछ भी न दीखता।

अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा, च परा च पथिभिश्चरन्तम। स सध्रीचीः स विषूचीर्वसा न आवरीवर्ति भुवनेष्यन्तः॥ (ऋग्. 1-164-31)

‘‘मैंने प्राणों को देखा है- साक्षात्कार किया है। यह प्राण सब इन्द्रियों का रक्षक है। यह कभी नष्ट होने वाला नहीं है। यह भिन्न-भिन्न मार्गों अर्थात् नाड़ियों से आता, जाता है। मुख और नासिका द्वारा क्षण-क्षण में इस शरीर में आता है और फिर बाहर चला जाता है। यह प्राण शरीर में वायु रूप से है पर अधिदैवत रूप से यह सूर्य है।’’

यह विश्वव्यापी प्राण शक्ति जहाँ जितनी अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती है, वहाँ उतनी ही सजीवता दिखाई देने लगती है। मनुष्य में इस प्राण तत्व का बाहुल्य ही उसे अन्य प्राणियों से अधिक विचारवान, बुद्धिमान, गुणवान, सामर्थ्यवान एवं सुसभ्य बना सका है। इस महान शक्ति-पुञ्ज का प्रकृति प्रदत्त उपयोग करने तक ही सीमित रह जाय तो केवल शरीर यात्रा ही संभव हो सकती है और अधिकाँश नर-पशुओं की तरह केवल सामान्य जीवन ही जिया जा सकता है। पर यदि उसे अध्यात्म विज्ञान के माध्यम से अधिक मात्रा में बढ़ाया जा सके तो गई-गुजरी स्थिति से ऊंचे उठ कर उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँच सकना संभव हो सकता है।

गई-गुजरी आध्यात्मिक एवं भौतिक परिस्थितियों में पड़े रहना मानव-जीवन में सरलतापूर्वक मिल सकने वाले आनंद, उल्लास से वंचित रहना, मनोविकारों और उनकी दुखद प्रतिक्रियाओं से विविध विधि कष्ट-क्लेश सहते रहना यही तो नरक है। देखा जाता है कि इस धरती पर रहने वाले अधिकाँश नर-तनुधारी नरक की यातनाएं सहते हुए ही समय बिताते हैं। आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण सभी महत्वपूर्ण सफलताओं से वंचित रहते हैं। इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिए प्राण तत्व का सम्पादन करना आवश्यक है।

गायत्री महामंत्र में इसी प्रक्रिया का समस्त तत्व-ज्ञान सम्मिलित है। जो विधिवत उसका आश्रय ग्रहण करता है, उसे तत्काल अपने में समग्र जीवनी शक्ति का अभिवर्धन होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। जितना ही प्रकाश बढ़ता है, उतना ही अन्धकार दूर होता है, इसी प्रकार आन्तरिक समर्थता बढ़ने के साथ-साथ जीवन को दुःखदारिद्र का घर और संसार को भवसागर के रूप में दिखाने वाले नारकीय वातावरण का भी अन्त होने लगता है।

गायत्री को ‘तारक मंत्र’ इसीलिये कहा गया है कि वह साधक को नरक से उबार सकता है। कष्टकर और खेदजनक परिस्थितियों से पार कर सकता है। जिनको दुर्बलताओं ने घेर रखा है, उनके लिए पग-पग पर दुःखदारिद्र भरा नरक ही प्रस्तुत रहता है। संसार में उन्हें कुछ भी आकर्षण एवं आनन्द दिखाई नहीं पड़ता। अपनी ही तृष्णायें, अपनी वासनायें बंधन बन कर रोम-रोम को जकड़े रहती हैं और बन्दी जीवन की यातनायें सहन करते रहने को बाध्य करती हैं। चूँकि यह परिस्थितियाँ हमारी अपनी विनिर्मित की हुई होती हैं। दुर्बलताओं का प्रतिरोध न करके हमने स्वयं ही उन्हें अपने ऊपर शासन करने से लिए आमन्त्रित किया होता है। अतएव इस विधान- स्थिति का उत्तरदायित्व भी अपने ही ऊपर है। जब हम मानवोचित पुरुषार्थ अपना कर प्राण प्रतिष्ठा के लिए तत्पर होते हैं, गायत्री उपासना का आश्रय लेते हैं तो इन विपत्तियों से सहज ही छुटकारा मिल जाता है। डूबने वाली स्थिति बदल जाती है और हम तर कर पार होने लगते हैं।

गायत्री का माहात्म्य वर्णन करते हुए ऋषियों ने उसे ‘तारक-मंत्र’ बताया है और कहा है- जो उसकी शरण पकड़ेगा, उसे भवबंधनों से, भव-सागर से, नरक से उबारने में देर न लगेगी। यह महाशक्ति उसे डूबने से बचा लेगी और पार उतरने का उपक्रम बना देगी।

देखिए-

गायत्र्या परमं नास्ति देविचेह न पावनम्। हस्तत्राणप्रदा देवी पततां नरकार्णवे॥ - शंख-स्मृति

नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़ कर बचाने वाली गायत्री के समान पवित्र करने वाली वस्तु इस पृथ्वी तथा स्वर्ग में और कोई नहीं है।

शत्रु तो न भयं तस्य दस्युतो क्वान राजतः। न शस्त्रानल तो यौधा स्कदाचित्संभविष्यति॥

न उसे शत्रुओं का भय रहता है, न डाकुओं का, न राजा का, न हथियार का, न अग्नि का, वह सब प्रकार के भयों से निर्भय हो जाता है।

जपतां जुह्वतां चैव विनिपाते न विद्यते।

गायत्री जप और हवन करते रहने वाले का कभी पतन नहीं होता।

सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये।

‘वे भगवती प्रसन्न होकर मनुष्य को संसार सागर से मुक्त कर देती है।’

दैनिक साधना, संध्या नित्यकर्म में गायत्री मंत्र जप का साधारण विधान है। विशेष प्रयोजनों के लिए सकाम-निष्काम-निर्जीव-सजीव अनुष्ठान पुरश्चरण किये जाते हैं। यह सामान्य क्रम कहलाता है। इससे ऊंचे स्तर की साधना दो भागों में विभक्त है। एक को कहते हैं ध्यान धारणा और दूसरे भाग को कहते है प्राण-प्रक्रिया। इन्हीं दोनों का अवलम्बन कर साधक उच्च आध्यात्मिक भूमिका में विकसित होता है।

ध्यान धारणा में भावना का प्राधान्य है। चित्त को एकाग्र, तन्मय एवं प्रेम-भावना से परिपूर्ण करके इष्टदेव के साथ एकात्म भाव, अद्वैत, विलय की स्थिति उत्पन्न करने में अन्तःकरण का आत्म-भाव का विकास होता है। लघुता विभुता में परिणत होती है। पुरुष पुरुषोत्तम बनता है और नर से नारायण बनने का अवसर आ जाता है। आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर दर्शन इसी स्थिति में होता है। सीमितता जब असीम में परिणत हो जाती है- छोटी सीमा में केन्द्रित समत्व जब ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का रूप धारण कर लेता है, तब अहंता मिटती है और निरहंकृति व्यापकता में, पूर्णता में परिणत होने लगती है। इसी मार्ग पर चलते हुए जीव, ब्रह्म बन जाता है। जब सब अपने लगते हैं, सभी से समान प्रेम होता है तो प्रेम-परमेश्वर का, जड़-चेतन में सर्वत्र अपनी ही विशुद्ध आत्मा का- परमात्मा का- दर्शन होता है। इसी ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करने पर जीवनोद्देश्य पूर्ण हो जाता है। उसी भूमिका को आत्म-साक्षात्कार, ब्रह्म निर्माण, सच्चिदानन्द सुख, निर्विकल्प समाधि कहते हैं। इसी में जीव सब बंधनों से मुक्त होकर ब्रह्म-लोक का- परमपद का- मोक्ष का अधिकारी बनता है।

इस स्थिति को प्राप्त करने से पूर्व साधक सको ‘प्राण प्रक्रिया’ की भूमिका में होकर गुजरना पड़ता है। सामान्य नित्यकर्म एवं सकाम पुरश्चरणों से आगे बढ़ कर ध्यान धारणा की उच्च भूमिका में प्रवेश करने से पूर्व, एक मध्यवर्ती साधन के रूप में इस ‘प्राण-प्रक्रिया’ का अपनाना भी अनिवार्य रूप से आवश्यक हो जाता है। आत्मिक भूमिका में प्रवेश करना- शत्रुओं के चक्रव्यूह किले को भेदने की तरह कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर रूपी षडरिपु इस कल्याण मार्ग को रोके बैठे रहते हैं। वासनायें और तृष्णा की दो पिशाचनियाँ मनुष्य को दुराचारिणी वेश्या की तरह प्रलोभन आकर्षण के सारे साज-सामान जुटाये बैठी रहती हैं। इस जंजाल में ही जीव को जन्म से मृत्यु तक बन्धन बद्ध होकर तड़पना पड़ता है। नरक के यह आठ दूत सामान्य स्तर के जीव को अपने चंगुल में ही दबोचे बैठे रहते हैं। वासना और तृष्णा रूपी जादूगरनियाँ उसे ‘नट-मर्कट’ की तरह नचाती रहती हैं। षडरिपु- मनोविकार- मित्र बन कर साथ-साथ छद्मवेश में रहते हैं और हर घड़ी शत्रुओं की करतूत करके जीव का लोक, परलोक बिगाड़ते रहते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर की उंगलियों के इशारे पर जीव नाचता रहता है। वे जो चाहते हैं सो कराते हैं, जिधर इच्छा होती है उधर भगाते हैं।

इस विडम्बना में फंसा हुआ असहाय जीव आत्म-कल्याण की बात ध्यान में आने पर भी कुछ कर नहीं पाता। श्रेय साधन के लिए उसे न एक मिनट की फुरसत मिलती है और न एक पाई खर्च करने की लोभ आज्ञा देता है। आत्मा को अपनी आकाँक्षा दबाते, कुचलते, रोते, कलपते, दिन बिताने पड़ते हैं और एक-एक करके यह बहुमूल्य मानव-जीवन यों ही नष्ट-भ्रष्ट समाप्त हो जाता है। तब अन्तकाल तक केवल दुर्गति और पश्चात्ताप का उत्पीड़न सहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रह जाता है।

जीवों में से अधिकाँश को इसी स्तर का जीवन काटना पड़ता है। इससे उबरने के लिए अन्धी दुनिया की भेड़ चाल से प्रतिकूल दिशा में चलना पड़ता है। इसके लिए आवश्यक साहस चाहिये। दुनिया अपने को मूर्ख बताये तो उसकी समझ को उपहास मान कर अपना पथ आप निर्धारित करने की क्षमता और दृढ़ता किसी विरले में ही होती है। यह मनस्विता और तेजस्विता- लगन और श्रद्धा जब तक अपने में न हो तब तक आत्म-कल्याण के मार्ग पर देर तक और दूर तक नहीं चला जा सकता। श्रेयपथ पर किसी आवेश, उत्साह में थोड़ी दूर तक चले भी तो आलस्य, प्रमाद उसे अस्तव्यस्त कर देते हैं। छोटी-छोटी कठिनाइयों के अवरोध सामने आ खड़े होते हैं। तथाकथित मित्र, परिजनों के स्वार्थ में राई-रत्ती कमी आती है तो वे भी गरम होते हैं। कई तो मूर्ख बताते और उपहास करते हैं। इन अड़चनों से मन ढीला पड़ जाता है और जो कुछ थोड़ा-सा आरंभ किया था, वह संकल्प शक्ति की दुर्बलता, मानसिक शिथिलता के कारण थोड़े ही दिन में समाप्त हो जाता है।

इस परिस्थिति से निपटे बिना आज तक कोई श्रेयार्थी आत्म-कल्याण के पथ पर आगे नहीं बढ़ सका। इसलिए इस अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति के लिये वह आन्तरिक साहस, आत्म-बल एकत्रित करना ही पड़ता, जो इन समस्त विघ्नों को परास्त करता हुआ, अंगद के पैर की तरह अपने निश्चय पर दृढ़ बने रहने से सहायता कर सके। यह आत्मबल- यह आन्तरिक साहस प्राण शक्ति पर आधारित है। इसलिए साधक को प्राण-प्रक्रिया द्वारा अभीष्ट मनोबल- आन्तरिक दृढ़ता एवं अविच्छिन्न श्रद्धा का सम्पादन करना पड़ता है। इसके लिये आवश्यक प्रयत्न करने का नाम ही ‘प्राण प्रक्रिया’ है।

आत्म-कल्याण के पथ पर चलाने वाले साधक को अपने सामने आने वाली कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। आहार-बिहार राजसी न रहने से शरीर में भी कुछ दुर्बलता आती है, उसकी पूर्ति प्राण बल से ही करनी पड़ती है। अभावग्रस्त, एकाकी, कष्टसाध्य, दूसरों से उपेक्षित जीवन खलता है और मन में उद्विग्नता उत्पन्न होती है। इसके समाधान के लिए भी प्राण-बल चाहिये। फिर श्रेयार्थी का हृदय बड़ा कोमल हो जाता है। दूसरों का कष्ट देख कर मक्खन की तरह सहज ही पिघल जाता है। दया और करुणा से द्रवीभूत अन्तःकरण कुछ सहायता करना ही चाहता है।

भौतिक दृष्टि से दूसरों की सहायता धनी लोग कर सकते हैं और आत्मिक दृष्टि से किसी की सहायता कर सकना प्राण-धन से सम्पन्न लोगों के लिए- सिद्ध पुरुषों के लिए- आत्मिक सम्पत्ति से सुसम्पन्न व्यक्ति के लिए ही संभव होता है। यह पूँजी केवल प्राण बल के आधार पर ही संग्रह की जा सकती है।

गायत्री की ‘प्राण प्रक्रिया’ वह वैज्ञानिक पद्धति है, जो साधक की उपरोक्त कठिनाइयों का हल और आवश्यकता की पूर्ति का साधन प्रस्तुत करती है। समर्थ साधक ही अपनी आन्तरिक क्षमता के द्वारा इस कठिन मार्ग पर देर तक- अन्त तक चलता रह सकता है। इसलिये एक आवश्यक साधन को माध्यम समझते हुए श्रेयार्थी की प्राण शक्ति सम्पादित करने की साधना पद्धति को अपनाना पड़ता है। इसी विधि व्याख्या का नाम ‘प्राण-प्रक्रिया’ है।

इस अनन्तः विश्व ब्रह्मांड में- समुद्र में भरे हुए जल की तरह सूक्ष्म रूप में वह अपेक्षित प्राण-शक्ति भरी पड़ी है। आकाश में वायु, ईथर, विद्युत, परमाणु जैसी भौतिक शक्तियाँ भरी पड़ी हैं, इसे पदार्थ विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं। अध्यात्म विद्या के तत्वदर्शियों को पता है कि इस ब्रह्मांड में एक प्रचण्ड प्राण शक्ति व्याप्त है जिसे संस्कृत में ‘ब्रह्म ऊष्मा’ और अंग्रेजी में ‘लेटेन्ट हीट’ कहते हैं। इसी के प्रभाव और प्रकाश से संसार में विविध प्रकार की हलचलें और गतिविधियां दृष्टिगोचर होती हैं। परमाणु के इलेक्ट्रोन, प्रोट्रान, न्यूट्रोन आदि भाग इसी ऊष्मा से अपनी धुरी और कक्ष पर द्रुत गति से घूमते हैं। वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं में सजीवता इसी प्रभाव से परिलक्षित होती है। यह प्राण ही संसार का जीवन है। गायत्री का सविता देवता उस प्राण का प्रचण्ड-पुंज अपने में धारण किये हुए हैं।

गायत्री शब्द के अक्षरों का अर्थ- प्राण की संरक्षक अभिवर्धनी शक्ति है। यह महामंत्र उस महत्तत्व साधक में इस प्राण की मात्रा बढ़ाता है। जिस प्राणी में जितना आध्यात्मिक चुम्बकत्व है वह उतनी ही अधिक मात्रा में इस महाप्राण को अपनी ओर आकर्षित कर उसे संग्रह कर सकता है। इस चुम्बकत्व का अभीष्ट मात्रा में उत्पादन गायत्री मंत्र की उपासना से होता है। जिन्होंने इस महाशक्ति का आश्रय-सान्निध्य लाभ किया है, उनमें प्राण शक्ति की मात्रा दिन-दिन बढ़ती चली गई है और वे इतना आत्म-बल सम्पादित कर सकते हैं जिसके आधार पर बाह्य और आन्तरिक जीवन की समस्त कठिनाई का निवारण और समस्त आवश्यकताओं का समाधान किया जा सके।

प्राण-प्रक्रिया के साधन विधानों को प्राणायाम कहते हैं। यों साधारणतया साँस की गहराई तक खींचने (पूरक) रोके रहने (अन्तः कुम्भक) पूरी तरह बाहर निकालने (रेचक) और कुछ देर बिना साँस के रहने (बाह्य कुँभक) इस चार स्तर में बढ़ी हुई श्वाँसोच्छास प्रक्रिया को प्राणायाम कहा जाता है। संध्या उपासना के नित्य-कर्मों में इसी पद्धति का प्रयोग होता है। पर इतने मात्र से ही प्राणायाम को सीमा बद्ध नहीं मान लेना चाहिये। उसके प्रख्यात 84 प्रकार हैं। इसके अतिरिक्त भी अन्य ऐसे प्राण विधान हैं, जिनके माध्यम से शरीर के सूक्ष्म प्राण संस्थानों का जागरण होता है, वे विश्व-व्यापी प्राण शक्ति के साथ जोड़ने और उस संपर्क से अपने का अत्यधिक दिव्य सामर्थ्य सम्पन्न बनाने में समर्थ होते हैं।

मोटे तौर पर प्राणायाम श्वासोच्छवास की एक व्यायाम पद्धति है, जिससे फेफड़े मजबूत होते, रक्त-संचार की व्यवस्था सुधारने से समग्र अरोग्य एवं दीर्घजीवन का लाभ मिलता है। शरीर विज्ञान के अनुसार हमारे दोनों फेफड़े साँस को अपने भीतर भरने के लिये वे यंत्र हैं, जिनमें भरी हुई वायु समस्त शरीर में पहुँच कर ओषजन (ऑक्सीजन) प्रदान करती है और विभिन्न अवयवों से उत्पन्न हुई मलीनता (कार्बोनिक गैस) को निकाल बाहर करती है। यह क्रिया ठीक तरह होती रहने से फेफड़े मजबूत बनते हैं और रक्त-शुद्धि का क्रम ठीक तरह चलता रहता है। पर देखा गया है कि लोग गहरी साँस लेने के आदी नहीं होते। वे उथली साँस लेते हैं, जिससे फेफड़ों का लगभग एक चौथाई ही काम करता है शेष तीन चौथाई लगभग निष्क्रिय पड़ा रहता है। शहद की मक्खी के छत्ते की तरह फेफड़ों में प्रायः 7 करोड़ 30 लाख ‘स्पंज’ जैसी कोष्टक होते हैं। साधारण हल्की साँस लेने पर उनमें से लगभग 2 करोड़ में ही वायु पहुँचती है। शेष साढ़े पांच करोड़ का कोई उपयोग नहीं होता। इस निष्क्रिय पड़े हुए भाग में जड़ता और गंदगी जमने लगती है और उसी में क्षय, (टी.वी.), खाँसी (कफ), सूजन (ब्रौंकाइटिस), जल वृण (प्लुरिसी) आदि रागों के कीड़े जमा होकर चुपके-चुपके अपना विघातक कार्य करते रहते हैं। फेफड़े की कार्य पद्धति का अधूरापन रक्त-शुद्धि पर प्रभाव डालता है। हृदय कमजोर पड़ता है और फलस्वरूप अकाल-मृत्यु का कोई-न-कोई बहाना रोज उपज खड़ा होता है। डाक्टरों का कथन है कि प्रत्येक पाँच में से एक मौत फेफड़ों के रोग से होती है। 15 वर्ष से अधिक आयु में मरने वालों में से प्रत्येक तीन के पीछे एक मौत फेफड़ों के रोगों से होती है। अकाल, महामारी, युद्ध, दुर्घटना आदि से उतने मनुष्य नहीं मरते जितने फेफड़ों के रोगों से। हमारे देश में औसतन प्रति मिनट एक व्यक्ति क्षय रोग से मरता है और उसका प्रधान कारण फेफड़ों की दुर्बलता ही होता है।

गहरे श्वासोच्छ्वास लेने की साधारण प्राणायाम पद्धति को फेफड़ों का बढ़िया व्यायाम कहा जा सकता है, जिससे स्वास्थ्य सुधार और दीर्घ-जीवन की संभावना निश्चित रूप से बढ़ती है। विभिन्न रोगों का निवारण केवल विशेष प्रकार के प्राणायामों द्वारा किया जा सकता है। प्राण पद्धति अपने आप में सर्वांगपूर्ण आरोग्य संवर्धन एवं रोग निवारण को सर्वांगपूर्ण पद्धति है। यदि कोई इस विज्ञान को ठीक तरह जान ले तो न केवल अपना बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य सुधार ले, वरन् दूसरों को भी शारीरिक रोगों से मुक्त कर उन्हें सर्वांगपूर्ण सुधरे हुए स्वास्थ्य का आनन्द लाभ करा सकता है। इसीलिये प्रत्येक धर्म कार्य में, शुभ कार्य में, संध्या वन्दन के नित्य कर्म में, ‘प्राणायाम’ को एक आवश्यक धर्म-कृत्य के रूप से सम्मिलित किया गया है।

हमें यह भली-भांति समझ लेना चाहिये कि स्वास्थ्य लाभ तो ‘प्राणायाम’ का अकिंचन-सा प्रारंभिक लाभ है। उससे वास्तविक लाभ मानसिक एवं आध्यात्मिक होता है। मनोविकारों के उद्वेग में प्राणायाम एक प्रकार का चमत्कारी प्रयोग है। चिन्ता, क्रोध, निराशा, भय, कामुकता, उद्वेग, आवेश आदि का समाधान उन प्रयोजनों के लिए निर्धारित प्राणायामों द्वारा सरलतापूर्वक किया जा सकता है। मस्तिष्क की क्षमता बढ़ाने में- स्मरण शक्ति, कुशाग्रता, सूझ-बूझ, दूरदर्शिता, सूक्ष्म-निरीक्षण, धारणा, प्रज्ञा, मेधा आदि मानसिक विशेषताओं का अभिवर्धन ‘प्राणायाम’ द्वारा किया जा सकता है। चंचल मन का विरोध एकाग्रता साधन करने के लिए प्राणायाम की उपयोगिता अद्भुत है। आन्तरिक मलीनता को शुद्ध करने और अन्तःकरण में सतोगुणी सत्प्रवृत्तियों में अभिवर्धन का आध्यात्मिक प्रयोजन भी प्राणायाम से सिद्ध होता है। षट्-चक्र, वेधन, कुण्डलिनी जागरण एवं शरीर तथा मन में प्रसुप्त पड़े हुए अनेक सूक्ष्म-शक्ति संस्थानों का उन्नयन प्राण की प्रयोग प्रक्रियाओं पर ही निर्भर है। इनका विज्ञान एवं विधान अपने आप में एक सर्वांगपूर्ण शास्त्र है। प्राचीनकाल के तत्ववेत्ता इस विद्या को भली प्रकार जानते थे और विश्वव्यापी प्राण-तत्व को अपने अन्दर अभीष्ट मात्रा में धारण कर उन विभूतियों को प्राप्त करते थे, जो ऋद्धि-सिद्धियों के नाम से विख्यात हैं।

यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि साँस खींचना और छोड़ना ही प्राणायाम नहीं है। यह तो उसकी प्रारम्भिक परिपाटी है। आगे चल कर उसके अनेक प्रयोग और प्रकार बन जाते हैं। 84 प्राणायामों में के विधान एक-से-एक विलक्षण प्रकार के हैं। फिर कितने ही उनमें से मानसिक और आध्यात्मिक ही हैं, जिनमें साँस खींचने और छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। उनमें प्राणशक्ति का आकर्षण एवं विकर्षण ही प्रधान रहता है। प्राण का संचय होने से समाधि लगती है और मनुष्य काल को वश करके मन चाही अवधि तक जीवित रह सकता है। वह चाहे जब प्राण-त्याग उसी सरलता से कर सकता है, जैसे मल-मूत्र विसर्जन किया जाता है। शरीर और मन प्राण की शक्ति से चलते हैं। प्राण पर नियंत्रण करने की विधि जानने वाला अपने शरीर और मन की प्रत्येक क्रिया पर नियंत्रण रख सकने की क्षमता से सुसम्पन्न हो जाता है। इस प्रकार के सभी विधि-विधान ‘प्राणायाम’ विद्या के अंतर्गत आते हैं। साँस खींचने-छोड़ने वाला- रेचक-पूरक कुम्भक-विधान तो उस महाप्राण विद्या का सब में प्रारंभ का एक हल्का-फुल्का शुभारंभ मात्र है।

गायत्री प्राण विद्या है। प्राण के साधन से हम शरीर, मन और आत्मा की दृष्टि से परिपुष्टि और समुन्नत बनते हैं। यह विकास क्रम हमारी अपूर्णताओं को क्रमशः दूर करते हुए पूर्णताओं से लाभान्वित करता है। अतः हम अपनी सम्पूर्ण अपूर्णताओं से छुटकारा पाकर पूर्णता प्राप्ति का जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकने में सफल हो जाते हैं।

गायत्री उपासना का मध्यवर्ती मार्ग प्राण प्रक्रिया है। इससे वह समर्थता आती है जिसके बल पर ‘ध्यान धारणा’ से सफलता प्राप्त की जा सके। बल के मूल्य पर ही इस संसार की विभिन्न सम्पत्तियाँ और विभूतियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। शरीर-बल, मनो-बल, आत्म-बल इन तीनों का अभिवर्धन धन, सम्पत्ति, इन्द्रिय भोग, यज्ञ, मैत्री, वर्चस्व, उल्लास आदि साँसारिक सुखों का सृजन करता है। इसी के द्वारा आत्म-कल्याण का जीवनोद्देश्य प्राप्त होता है। उसी के द्वारा बन्धन से मुक्ति का- मोक्ष का- परम पुरुषार्थ सफलतापूर्वक सम्पन्न होता है। अतएव समग्र सफलता के लिये समग्र बलिष्ठता सम्पादित करनी पड़ती है और यह प्रयोजन गायत्री की प्राण विद्या द्वारा संपन्न हो सकता है। अतएव गायत्री शक्ति के आह्वान का विधान ‘प्राणायाम’ हमारी एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इसकी महिमा बताते हुए शास्त्रकारों ने कहा है-

तपो न परं प्राणायामत्ततो विशुद्धिर्मलानां दीप्तिश्च ज्ञानस्येति। - तंत्र सार

‘‘प्राणायाम के बराबर दूसरा कोई तप नहीं है। उससे दोषों की शुद्धि और ज्ञान की दीप्ति होती है।’’

प्राणायामैरेव सर्वे प्रशुष्यन्ति मला इति। आचार्याणांतु केपाञ्चिदन्यत्कर्म न सम्मतम्॥ - योग चूड़ामणि

‘‘प्राणायाम से देह के समस्त मल सूख जाते हैं, अनेक आचार्यों को इसके अतिरिक्त और कोई मलशोधक साधन अभिप्रेत नहीं है।’’

प्राणायामेन युक्तेन सर्वरोगक्षयो भवेत्। अयुक्ताभ्यास योगेन सर्वरोग समुद्भवम्॥

हिक्का श्वासश्च काशश्च शिराकर्णाक्षि वेदना। भवन्ति विविधा दोषाःपवनस्य व्यतिक्रमात्॥ - सिद्धियोग

‘‘नियमपूर्वक प्राणायाम करने से साधक सब रोगों से छूट जाता है, किन्तु अनियमकपूर्वक करने से वायु का व्यक्तिक्रम होक


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