शारीरिक-श्रम के प्रति अनास्था न रखें

May 1968

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शारीरिक-श्रम का सम्बन्ध प्रतिष्ठा अथवा श्रेष्ठता से जोड़ना उचित नहीं। यह धारणा केवल भ्रामक ही नहीं अपितु हानिकारक भी है कि शारीरिक-श्रम करना तुच्छता का द्योतक है। शारीरिक-श्रम करते रहना मनुष्य का नैसर्गिक स्वभाव है। यदि शारीरिक-श्रम मनुष्य के लिये आवश्यक न होता तो प्रकृति ने उसे उसके अनुकूल परिस्थितियों में उत्पन्न न किया होता। मनुष्य के लिये आहार की वह सुविधा नहीं है, जो पशु-पक्षियों को प्राप्त है। उसे रोटी के लिये न जाने कितने प्रकार का श्रम करना पड़ता है। वह यों ही अन्य पक्षियों की भाँति वनस्पति के आधार पर अपना जीवन नहीं चला सकता। उसे उसके लिये खेती से लेकर भोजन तक की प्रक्रिया में ढेरों शारीरिक-श्रम करना पड़ता है।

आज मनुष्य श्रम-जीवी तथा बुद्धिजीवी, दो वर्गों में विभाजित हो गया है। धनवान तथा निर्धन के दो वर्ग ही गये हैं। किन्तु यह विभाजन तथा अन्तर प्राकृतिक नहीं है। वह निर्मित है, इससे प्रकृति का मूल मन्तव्य समाप्त नहीं हो जाता, वह अपनी ओर से सभी को समान रूप से उत्पन्न करती है और शारीरिक-श्रम के योग्य शरीर देती है। उसने मानव शरीर का निर्माण भी कुछ ऐसे ढंग से किया है कि बिना शारीरिक-श्रम किये वह कुण्ठित बना रहता है। प्रारम्भ में बच्चे हाथ-पैर हिलाने से लेकर खेलने-कूदने का श्रम करते रहते हैं। यही कारण है कि उनका शरीर शीघ्रता से विकसित होता जाता है।

कार्य विभाजन के कारण आज समाज में जो श्रमजीवी तथा बुद्धिजीवी दो वर्ग बन गये हैं, उनमें से बुद्धिजीवी वर्ग केवल शारीरिक-श्रम करने के कारण ही बुद्धिजीवी वर्ग की दृष्टि में तुच्छ समझा जाता है। बुद्धिजीवी लोग ऐसे काम को श्रेष्ठ मानते हैं, जिसमें शारीरिक श्रम न करना पड़े। उनकी दृष्टि में शारीरिक-श्रम करना, खेती, दस्तकारी, तकनीक तथा कारीगरी के श्रम-साध्य काम तुच्छ तथा अप्रतिष्ठित होते हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा का मानदण्ड वे कुर्सी पर बैठ कर काम करने, दस-बीस आदमियों पर हुक्म चलाने को मानते हैं।

देश का अधिकाँश शिक्षित वर्ग इसी झूँठी प्रतिष्ठा का भ्रम पाले बेकारी का शिकार हुआ दीखता है। वह हर प्रकार की कठिनाई सह लेता है किन्तु शारीरिक-श्रम का कोई काम करने के लिये तैयार नहीं होता। उसे इसमें तुच्छता का अनुभव होता है। कुर्सी पर बैठ कर सौ रुपये की क्लर्की करने को, सौ बीघे खेती का मालिक बनने से अधिक प्रतिष्ठापूर्ण समझता है। प्रतिष्ठा की यह भ्रान्त धारणा बड़ी चातक है। इससे समाज में आलस्य, अकर्मण्यता, वर्गवाद तथा बेकारी की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है। देश की गरीबी का एक मुख्य कारण इस प्रकार श्रम का अपमान किया जाना भी है। भारत का अधिकाँश युवक समाज श्रमिक तथा किसान न बन कर सफेदपोश बाबू बनना चाहता है, फिर चाहे इसकी खोज में उसकी काम करने और उन्नति करने की आधी आयु ही क्यों न बेकार चली जाये। वे किसी दफ्तर की साधारण-सी नौकरी पाने के लिये बरसों सड़कों की खाक छानते फिर सकते हैं। याचना-पत्र लिये स्थान स्थान पर भाग दौड़ सकते हैं। साक्षात्कारों के लिये पचासों बार सैकड़ों रुपया खर्च करके आ-जा सकते हैं। वृद्ध पिता पर बोझ बने रह सकते हैं किन्तु यह नहीं कर सकते कि घर की खेती अथवा व्यवसाय में लग कर उसे आगे बढ़ायें और न उनसे यही होगा कि यदि घर में खेती व्यवसाय नहीं है, तो कोई कारीगरी, दस्तकारी तथा मशीनरी का काम पकड़ लें और आनन्दपूर्वक श्रम करते हुए शीघ्र ही आत्म-निर्भर हो जायें। किन्तु वह श्रम साध्य काम करने में तो उनकी प्रतिष्ठा चली जायेगी। कितनी भ्रामक व विपरीत भावना है। बेकार रह कर जगह-जगह जूतियाँ चटकाते-फिरने में तो प्रतिष्ठा जाती नहीं, प्रतिष्ठा जाती है, पसीना बहा कर ईमानदारी से रोजी कमाने और स्वावलम्बी होने में!

परिश्रम मानव-जीवन का मूलाधार है। यही तो वास्तविक पूँजी है, जो मनुष्य को प्रकृति से जन्मजात अधिकार तथा विरासत में मिली है। जो इस पूँजी का समुचित उपयोग करता है उसके जीवन-पथ में कठिनाइयों का आगमन कम-से-कम होता है। सफलता तथा उन्नति श्रम की अनुचरियाँ मानी गई हैं। पता नहीं लोगों के दिमाग में यह गलत धारणा क्यों घर किये बैठी है कि परिश्रम से बचने में कोई सुख है। परिश्रम करने से शरीर थकता है और उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है। पर सत्य बात यह है कि श्रम करने से शरीर पुष्ट होता है। उसकी कार्य क्षमता बढ़ती है।

श्रम के अभाव में शरीर के अंगों-प्रत्यंगों का समुचित विकास अवरुद्ध हो जाता है। केवल मानसिक अथवा आराम के काम करते रहने से शारीरिक शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं। आलस्य, प्रमाद, उद्योगहीनता, निष्क्रियता आदि के दुर्गुण तो आ ही जाते हैं, साथ ही शरीर विविध रोगों का घर बन जाता है। शरीर स्फूर्ति-हीन होकर निर्जीव-सा हो जाता है। शारीरिक श्रम से दूर रहने से मनुष्य का जीवन एकांगी तथा अपूर्ण रह जाता है। श्रम के अभाव में शरीर के शिथिल हो जाने पर कुछ ही समय में मनुष्य का मन तथा मस्तिष्क भी कुण्ठित हो जाते हैं। उनकी प्रखरता नष्ट हो जाती। मन, मस्तिष्क आदि निराकार अवयवों को साकार शरीर से अलग समझना भूल है। इनके अस्तित्व भिन्न-भिन्न तथा इनका श्रम पृथक है, यह धारणा समीचीन नहीं।

जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग अपना काम अलग करते दिखाई देने पर भी समग्र शरीर के पोषण में सबका सहयोग समान रूप से ही रहता है, उसी प्रकार जब शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक सभी शक्तियों से समुचित काम लेंगे, उनका ठीक ढंग से समन्वय करेंगे, तभी उनके व्यक्तित्व की अपूर्णता पूरी होगी और वे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक रूप से प्रखर तथा कार्यक्षम बन पायेंगे।

स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन तथा स्वस्थ आत्मा का निवास होता है- यह बात अक्षरशः सत्य है। जिसका शरीर अस्वस्थ है, रोगी है, वह किसी प्रकार का बौद्धिक कार्य सम्पादित कर सकता है अथवा कोई आध्यात्मिक साधन निभा सकता है, ऐसा सम्भव नहीं। किसी भी क्षेत्र में उन्नति और विकास करने के लिए शरीर का स्वस्थ एवं निरोग होना हर प्रकार से वाँछनीय है। शारीरिक स्वास्थ्य और निरोगता सब प्रकार के परिश्रम पर निर्भर है। प्रकृति ने मनुष्य का शरीर हर प्रकार का काम-काज और श्रम करने के लिये ही बनाया है। उसके श्वास यंत्र की रचना भी इस प्रकार की गई है कि यदि खुले स्थान में खूब परिश्रम करके भरपूर श्वाँस, प्रश्वांस ली जायें तो शरीर के दूषित एवं अस्वास्थ्य कर तत्व बाहर निकल जाते हैं और बाहर की शुद्ध वायु भीतर जाकर रक्त को शुद्ध और प्रखर बनाती है।

शुद्ध रक्त ही आरोग्य का मुख्य आधार माना गया है। श्रम करते रहने से शरीर के विषैले और विजातीय तत्व पसीने के रूप में बाहर निकलते रहते हैं, भोजन पूरी तरह पच पर आवश्यक पोषक तत्वों का निर्माण करता है। रोगों की जड़ पेट, आमाशय और मलाशय में गंदगी इकट्ठी नहीं होने पाती, जिसके परिणाम स्वरूप शरीर सदा स्वस्थ तथा भला-चंगा बना रहता है। आरोग्य और स्वास्थ्य की स्थिति में मनुष्य का मन तथा आत्मा आप ही आप प्रसन्न तथा प्रखर बने रहते हैं। शारीरिक शिथिलता सारी शिथिलताओं की जड़ है। श्रम में निष्ठा रख कर इस अभिशाप को पास न आने देना ही चाहिये।

शारीरिक श्रम से भागते रहने से न केवल शारीरिक क्षमतायें तथा बौद्धिक प्रखरतायें ही कुण्ठित नहीं हो जाती अपितु मनुष्य में अनेक प्रकार की और भी त्रुटियाँ तथा विकृतियाँ भी आ जाती हैं। श्रम न करने से मंदाग्नि का रोग हो जाता है, जिससे भोजन की रुचि कम हो जाती है। किसी भी पदार्थ और वस्तु में स्वाद और रस नहीं आता। उसकी पूर्ति वह विविध प्रकार के मसाले तथा खट्टे, मीठे रसों की अनावश्यक वृद्धि कर करने का प्रयत्न किया करते हैं। भोजन की रुचि बढ़ाने के लिये अनेक लोग शराब तथा भंग आदि का प्रयोग करने लगते हैं। श्रम और गहरी नींद का घनिष्ठ सम्बन्ध है। श्रम-जन्य थकान के बिना नींद में कमी आ जाती है। उसकी पूर्ति के लिये लोग गुदगुदे गद्दों तथा तोशक तकियों का सहारा लेकर पंखा, कूलर अथवा हीटर का प्रयोग कर अपने को विलासी बना डालते हैं। श्रम-जन्य मानसिक संतोष के अभाव में मनोरंजन का सहारा लेकर सिनेमा, सर्कस तथा क्लब आदि के अभ्यस्त बन जाते हैं। रात-रात भर नाच गानों के चक्कर में पड़े रहते हैं। इस प्रकार खान-पान और रहन-सहन की अव्यवस्था तथा अनुपयुक्तता के फल-स्वरूप मनुष्य कामुक तथा अहिष्णु बन जाता है। थोड़ी-सी अनुकूलता पाकर उसका काम उत्तेजित तथा क्रोध प्रकट हो उठता है। ऐसा निकृष्ट जीवन को ग्रहण किए हुये किसी मनुष्य से अधिक उन्नति की आशा नहीं जा सकती।

शारीरिक-श्रम करने में अप्रतिष्ठा की धारणा बहुत घातक है। भोजन-वस्त्र जैसी मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति परिश्रम से ही होती है। यदि सारे किसान मजदूर, शिल्पी तथा कारीगर अप्रतिष्ठा को हेतु समझ कर अपने कामों से विरत हो जायें, तो क्या संसार में बाबू-गिरी को महत्व देने वालों का जीवन एक दिन भी चल पाये? बड़े-बड़े धनवान और साहूकार जो बिना कमाये खाते और गद्दों पर पड़े-पड़े जीवन बिताते हैं और अपने को श्रेष्ठ तथा भाग्यवान होने का अभिमान करते श्रमिकों और किसानों को तुच्छ दृष्टि से देखते हैं, क्या यह नहीं समझ पाते कि उनके इस वैभव का आधार, इस आराम अभिमान का हेतु किन्हीं लोगों का श्रम ही है, जिसका फल सामाजिक व्यवस्था के कारण उन्हें न मिल कर तुम्हें मिल रहा है। उत्पादन का सम्बन्ध श्रम से ही है। बिना परिश्रम के किसी प्रकार का उत्पादन सम्भव नहीं। समाज में भोजन-वस्त्र की मूल आवश्यकता की पूर्ति करने के लिये जो श्रमिक अपना खून-पसीना एक करते हैं, प्रतिष्ठा के मात्र वे माने जायेंगे, या कि वे आलसी जो पड़े-पड़े दूसरों के श्रम पर आराम और ऐश किया करते हैं।

समाज की इसी भ्रान्त धारणा के कारण देश में लोगों की निष्ठा श्रम के प्रति कम होती जा रही है। श्रम के प्रति इस प्रकार की हीन भावना केवल भारत में ही विशेष रूप से पाई जाती है। यही कारण है कि वह संसार के अन्य श्रमशील देशों से हर प्रकार के साधनों की प्रचुरता होने पर भी पिछड़ा हुआ है। उसकी आर्थिक स्थिति अनस्थिर तथा शारीरिक दशा शोचनीय बनी हुई है। श्रम के प्रति अनास्था ही उन्हें गरीबी तथा अभाव का जीवन बिताने के लिए विवश कर रही है। यह अनास्था जन-जीवन में कितनी दूर तक धँसती जा रही है, इसका अनुमान इस एक छोटी बात से लगाया जा सकता है कि ब्याह-शादी के लिए अच्छे खेतिहर अथवा कारीगर लड़के की अपेक्षा लोग छोटी-सी सोफियानी नौकरी करने वाले बाबू को अधिक महत्व तथा प्राथमिकता देते हैं। फिर चाहे उसकी आर्थिक और शारीरिक क्षमता हीन ही क्यों न हो। श्रम के प्रति अनास्था ही वह कारण है कि देश में मशीनों और यन्त्रों पर अधिकारपूर्वक काम करने वाले लोगों की कमी है और तकनीकी विकास की प्रगति रुकी हुई है। उद्योगों और योजनाओं के लिये तकनीशियन्स विदेशों के बुलाने पड़ रहे हैं।

श्रम का महत्व समझने वाले इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे छोटे-छोटे देश थोड़ी-सी जमीन में ही इतना अन्न उपजा लेते हैं कि अपनी पूर्ति के बाद दूसरे देशों को भेज सकते हैं। कुछ समय पूर्व जो रूस संसार के पिछड़े देशों में गिना जाता था और शक्ति के सम्बन्ध में नगण्य माना जाता था, श्रम की महिमा समझने से आज संसार का अग्रगण्य देश बना हुआ है। वे श्रम के आधार पर बर्फीली, चट्टानी और अनुपजाऊ मानी जाने वाली भूमि से भी उपजें प्राप्त कर रहे हैं।

कहना न होगा कि जिन सम्पन्न अथवा बुद्धिजीवियों के पास श्रम सम्बन्धी काम नहीं है। उनकी जीविका बिना पसीने के ही चल जाती है, उन्हें भी अपने शेष समय में कुछ-न-कुछ शारीरिक श्रम करते रहना चाहिये- ऐसा शारीरिक श्रम जो कुछ-न-कुछ उत्पादन कर सके। इसके लिये बागवानी, काष्ठ-कला, वस्त्र-कला और थोड़ी-सी खेती, चाहे अपने आस-पास ही सही करनी ही चाहिये। फल, सब्जी और शाक तो कुछ-न-कुछ उपजाना ही चाहिये। यदि यह नहीं तो वे कुटीर-उद्योग के किसी कताई अथवा बुनाई का काम ही अपना सकते हैं। इस प्रकार जब संपन्न और बुद्धिजीवी भी श्रम के कार्य करने लगेंगे, तो समाज में श्रम की प्रतिष्ठा बढ़ेगी? पीढ़ियाँ श्रमशील बनेंगी, वर्गवाद का भेद कम होगा और स्वास्थ्य के साथ राष्ट्र की सम्पन्नता भी बढ़ेगी।


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