दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए

May 1968

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

क्या कभी अपने यह सोचा कि आप पग-पग पर खिन्न, असंतुष्ट, उद्विग्न अथवा उत्तेजित क्यों रहते हैं? क्यों आपको समाज, संसार मनुष्यों, मित्रों, वस्तुओं, परिस्थितियों यहाँ तक अपने से भी शिकायत रहती है? आप सब कुछ करते, बरतते और भोगते हुए भी वह मजा, आनन्द और प्रसन्नता नहीं पाते, जो मिलनी चाहिये और संसार के अन्य असंख्यों लोग पा रहे हैं। आप विचारक, आलोचक, शिक्षित, और सभ्य भी हैं, किन्तु आपकी यह विशेषता भी आपको प्रसन्न नहीं कर पाती। स्त्री-बच्चे, घर, मकान सब कुछ आपको उपलब्ध है। फिर भी आप अपने अन्दर एक अभाव और एक असंतोष अनुभव ही करते रहते हैं। घर, बाहर, मेले-ठेले, सफर, यात्रा, सभा-समितियों, भाषणों, वक्तव्यों- किसी में भी कुछ मजा ही नहीं आता। हर समय एक नाराजी, नापसन्दी एवं नकारात्मक ध्वनि परेशान ही रखती है। संसार की किसी भी बात, वस्तु और व्यक्ति से आपका तादात्म्य ही स्थापित हो पाता है।

साथ ही आप पूर्ण स्वस्थ हैं। मस्तिष्क का कोई विकार आपमें नहीं है। आपका अन्तःकरण भी सामान्य दशा में है और आस-पास में ऐसी कोई घटना भी नहीं घटी है, जिससे आपकी अभिरुचिता एवं प्रसादत्व विक्षत हो गया हो। ऐसा भी नहीं हुआ कि विगत दिनों में ही किसी ऐसे अप्रिय संयोग से सामंजस्य स्थापित करना है, जिसकी अनुभूति आज भी आपको विषाण बनाये हुए हैं।

वास्तव में बात बड़ी ही विचित्र और अबूझ-सी मालूम होती है। जब प्रत्यक्ष में इस स्थायी अप्रियता का कोई कारण नहीं दिख पड़ा, फिर ऐसा कौन-सा चोर, कौन-सा ठग आपके पीछे अप्रत्यक्ष रूप से लगा हुआ है, जो हर बात के आनन्द से आपको वंचित किए हुये आपके जन्म-सिद्ध अधिकार प्रसन्नता का अपहरण कर लिया करता है। इसको खोजिये, गिरफ्तार करिये और अपने पास से मार भगाइये। जीवन में सदा दुःखी और खिन्नावस्था में रहने का पाप न केवल वर्तमान ही बल्कि आगामी शत-शत जीवनों तक को प्रभावित कर डालता है।

देखिये और जरा ध्यान से देखिये कि आपके अन्दर ‘दोष-दर्शन’ करने की दुर्बलता, तो नहीं घर पर बैठी है। क्योंकि ‘दोष-दर्शन’ का दृष्टिकोण भी जीवन को कुछ-कुछ ऐसा ही बना देता है। दोष-दर्शन और संतोष, दोष-दर्शन और प्रसन्नता, दोष-दर्शन तथा सामंजस्य का नैसर्गिक विरोध है। दोष-दृष्टि मनुष्य के हृदय पर उसके मानस पर एक ऐसा आवरण है, जो न हो बाहर की प्रसन्न- किरणों को भीतर प्रतिबिम्बित होने देता है और न भीतर का उल्लास बाहर ही प्रकट होने देता है। इसे मनुष्य एवं आनन्द के बीच एक लौह दीवार ही समझना चाहिये। लीजिये दोषदर्शी व्यक्तियों की दशा से अपना मिलान कर लीजिये और यदि अपने में दोष पायें तो तुरन्त सुधार कर डालिये, जिससे, अगले दिनों में आप भी उस प्रकार प्रसन्न रह सकें, जिस प्रकार लोग रहते हैं और उन्हें रहना ही चाहिये।

दोष-दर्शन से दूषित व्यक्ति जब किसी व्यक्ति के संपर्क में आता है, तब अपने मनोभाव के अनुसार उसके अन्दर बुराइयाँ ढूँढ़ने लगता है और हठात् कोई न कोई बुराई निकाल ही लेता है। फिर चाहे वह व्यक्ति कितना ही अच्छा क्यों न हो। उदाहरण के लिये किसी विद्वान महात्मा को ही ले लीजिये। लोग उसे बुलाते, आदर सत्कार करते और उसके व्याख्यान से लाभ उठाते हैं। महात्मा जी का व्याख्यान सुन कर सारे लोग पुलकित, प्रसन्न व लाभान्वित होते हैं।

उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते और अपने उतने समय को बड़ा सार्थक मानते। अनेक दिनों, सप्ताहों तथा मासों तक उस सुखद घटना का स्मरण करते और ऐसे संयोग की पुनरावृत्ति चाहने लगते। अधिकाँश लोग उस व्याख्यान का लाभ उठा कर अपना ज्ञान बढ़ाते, कोई गुण ग्रहण करते और किसी दुर्गुण से मुक्ति पाते हैं। वह उनके लिए एक ऐसा सुखद संयोग होता है जो गहराई तक अपनी छाप छोड़ जाता है, ऐसे ही सुव्यक्ति गुणाग्राही कहे जाते हैं।

अब दोष-दृष्टा को ले लीजिये। उसकी स्थिति बिल्कुल विपरीत होती है। जहाँ अन्य लोग उक्त महात्मा में गुण ही देख सके वहाँ उसे केवल दोष ही दिखाई दिये। उसका हृदय महात्मा के प्रशंसकों के बीच, उनकी कुछ खामियों के रखने के लिये बेचैन हो जाता। जब अवकाश अथवा अवसर न मिलता तो प्रशंसा में सम्मिलित होकर उनके बीच बोलने का अवसर निकाल कर कहना प्रारम्भ कर देता- ‘‘हाँ, महात्मा जी का व्याख्यान था तो अच्छा- लेकिन उतना प्रभावोत्पादक नहीं था, जितना कि लोग प्रभावित हुए अथवा प्रशंसा कर रहे हैं। कोई मौलिकता तो थी नहीं। यही सब बातें अमुक नेता ने अपनी प्रचार-स्पीच में शामिल करके देशकाल के अनुसार उसमें धार्मिकता का पुट दे दिया था। अजी साहब क्या नेता, क्या महन्त सबके-सब अपने रास्ते जनता पर नेतृत्व करने के सिवाय और कोई उद्देश्य नहीं रखते। यह सब पूजा, प्रतिष्ठा व पेट का धन्धा है।”

यदि लोग सच्चाई से विमुख होकर उससे सहमत न हुए तब तो वह वाद-विवाद के लिये मैदान पकड़ लेता है और अन्त में अपना दोषदर्शी चित्र दिखा कर लोगों की हीन दृष्टि का आखेट बन कर प्रसन्नता खो कर और विषण्ण होकर लौट आता है। जहाँ गुण ग्राहकों ने उस दिन महीनों काम आने वाली प्रसन्नता प्राप्त की, वहाँ दोष-दृष्टा ने जो कुछ टूटी-फूटी प्रसन्नता उस समय पास में थी वह भी गवाँ दी।

दोष-दर्शन की प्रक्रिया जोर पकड़ ही चुकी थी, उसकी सखी-सहेली झल्लाहट, खीझ, कुढ़न, कुण्ठा, अरुचि आदि सब साथ ही लगी हुई थीं। निदान घर आकर भोजन अच्छा न लगा पत्नी निहायत बेसऊर दिखाई देने लगी। बच्चे यदि सोते मिले तो नालायक हैं। शाम से ही सो जाते हैं। और यदि जगते मिले तो लापरवाह और तन्दुरुस्ती का ध्यान न रखने वाले बन गये। तात्पर्य यह कि उस दिन जहाँ अन्य सब लोग अधिक-से-अधिक प्रसन्नता के अधिकारी बने वहाँ दोषदर्शी के लिये हर बात खेदजनक और दुःखदायी बन गई।

किसी मित्र सम्बन्धी अथवा आत्मीयजन ने मानिये जन्म-दिन अथवा किसी अन्य शुभ अवसर पर अपनी योग्यता एवं समाज के अनुसार कोई उपहार दिया अथवा भेजा। कोई भी व्यक्ति इस सम्मान और स्नेह से पुलकित हो उठता और आभार भरा धन्यवाद देते-देते न अघाता। किन्तु दोषदर्शी तो अपने रोग से मजबूर ही रहता है। यद्यपि वह आभार एवं धन्यवाद न प्रकट करने की असभ्यता नहीं करता तथापि और कुछ नहीं उसमें इतना ही शामिल कर देता कि आपने बेकार यह चीज भेजी। यह तो मेरे पास पहले से ही थी और मुझे ऐसा रंग यह डिजाइन पसन्द नहीं है। यह रंग और प्रकार उपहार के रूप में बहुत आम और सस्ते हो गये हैं। इससे अच्छा यह होता कि आप सद्भावना और बधाई के ही दो शब्द दे देते। बात भले ही सही रही हो। किन्तु इस भावना ने, इस दोष-दृष्टि ने उसको स्वयं तो प्रसन्न नहीं ही होने दिया साथ ही अपने मित्र और स्वजन की प्रसन्नता भी छीन ली।

यही बात नहीं कि दोष-दृष्टा केवल दूसरों में ही बुराई और कमियाँ देखता हो। स्वयं अपने प्रति भी उसका यही अत्याचार रहा करता है। उदाहरण के लिये वह बाजार से अपने लिये कोई वस्तु खरीदने जाती है। पहले तो वह कितनी ही प्रकार की चीजें क्यों न दिखलाई जायें, उसे पसन्द ही नहीं आती, सबमें कोई-न-कोई दोष दिखलाई देता है। वस्तु के निर्दोष होने पर भी वह अपनी और से किसी दोष का आरोपण कर ही लेगा। अपनी इस प्रक्रिया से थक जाने के बाद जब चीज लेकर घर आता है। तब भी उसका पेट अप्रशंसा से भरा नहीं होता। चीज डाली और कहना आरम्भ कर दिया- ‘‘खरीदने को खरीद तो अवश्य लाया लेकिन कुछ पसन्द नहीं आई। यदि पत्नी इस बात को नहीं मानती और चुनाव की प्रशंसा करती है, तो झूठी प्रशंसा का करने का आरोप पाती है। जब तक वह अपनी पसन्द, बाजारदारी, चीज की पहचान के विषय में आलोचना नहीं कर लेता, बुराई नहीं निकाल लेता, अपनी अकल और अनुभव को कोस नहीं लेता चैन नहीं पड़ता। इस प्रकार वह इस प्रसन्नता के छोटे अवसर को भी खिन्नता से कडुआ बना ही लेता है।

तात्पर्य यह है कि दोष-दर्शी कितने ही सुन्दर स्थान, वस्तु और व्यक्ति के संपर्क में क्यों न आये अपने अवगुण के प्रभाव से उससे मिलने वाले आनन्द से वंचित ही रहता है। निदान इस लम्बे-चौड़े संसार में उसे न तो कहीं आनन्द दीखता है और न किसी वस्तु में सामंजस्य का सुख प्राप्त होता है। उसे हर व्यक्ति, हर वस्तु और हर वातावरण अपनी रुचि के साथ असमंजस उत्पन्न करती ही दीखती है। जबकि गुण-ग्राहक हर व्यक्ति, हर वस्तु और हर वातावरण में सामंजस्य और सुन्दरता ही खोज निकालता है। यही कारण है कि गुण-ग्राहक सदैव प्रसन्न और दोषान्वेषक सदा खिन्न बना रहता है।

वस्तुतः बात यह है कि संसार की प्रत्येक वस्तु गुण-दोषमय ही है। कोई भी वस्तु एवं व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता कि जिसमें या तो गुण-ही-गुण भरे हों अथवा दोष-ही-दोष। अपनी दृष्टि के अनुसार हर व्यक्ति उसमें गुण या दोष देख कर प्रसन्न अथवा खिन्न हुआ करता है।

बुद्धिमान व्यक्ति अपने लाभ और हित के लिये हर बात के अच्छे-बुरे दो पहलूओं में से केवल गुण पक्ष पर ही दृष्टि डालता है। क्योंकि वह जानता है, कि विपक्ष पर ध्यान देने, उसको ही देखते रहने से मन को अशाँति के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगेगा, दोष-दृष्टि रखने और दोषान्वेषक करने से घृणा तथा द्वेष का ही प्रादुर्भाव होता है, जिसका परिणाम कलह-क्लेश अथवा अशाँति असन्तोष के सिवाय और कुछ नहीं होता। इससे वस्तु अथवा व्यक्ति की तो कुछ हानि होती नहीं अपना हृदय कलुषित और कलंकित होकर रह जाता है।

अपने दृष्टि-दोष के कारण प्रायः अच्छी चीजें भी बुरी और गुण भी अवगुण होकर हानिकारक बन जाते हैं। जैसे स्वाँति-जल का ही उदाहरण ले लीजिये। स्वाँति की बूँद जब सीप के मुख में पड़ जाती है, तब मोती बन कर फलीभूत होती है और यदि वही बूँद साँप के मुख में पड़ जाती है तो विष का रूप धारण कर लेती हैं। वस्तु एक ही है किन्तु वह उपयोग और संपर्क के गुण दोष के कारण सर्वथा विपरीत परिणाम में फलीभूत हुई।

किसी में गुण की कल्पना न कर सकने के कारण दोषदर्शी अविश्वासी भी होता है। वह किसी की सद्भावना एवं सहानुभूति में भी कान खड़े करने लगता है। प्रेम एवं प्रशंसा में भी स्वार्थपूर्ण चाटुकारिता का दोष देखता है। इसलिये संपर्क में आने और स्नेहपूर्ण बरताव करने वाले हर व्यक्ति से भयाकुल और शंकाकुल रहा करता है। उसे विश्वास ही नहीं होता कि संसार में कोई निःस्वार्थ और निर्दोष-भाव से मिल कर हितकारी सिद्ध हो सकता है। विश्वास, आस्था, श्रद्धा, सराहना से रहित व्यक्ति का खिन्न असंतुष्ट और व्यग्र रहना स्वाभाविक ही है, जैसा कि दोष-दर्शी रहता भी है।

यदि आपको अपने अन्दर इस प्रकार की दुर्बलता दिखी हो तो तुरन्त ही उसे निकालने के लिए और उसके स्थान पर गुण-ग्राहकता का गुण विकसित कीजिये। इस दशा में आपको हर व्यक्ति, वस्तु और वातावरण में आनंद, प्रशंसा अथवा विनोद की कुछ-न-कुछ सामग्री मिल ही जायेगी। दूसरों के गुण-दोषों में से उस हंस की तरह केवल गुण ही ग्रहण कर सकेंगे, जोकि पानी मिले हुए दूध में से केवल दूध-दूध ही ग्रहण कर लेता है और पानी छोड़ देता है।

दूसरों की अच्छाइयों को खोजने, उनको देख-देख प्रसन्न होने और उनकी सराहना करने का स्वभाव यदि अपने अन्दर विकसित कर लिया जाये तो आज दोष-दर्शन के कारण जो संसार, जो वस्तु और जो व्यक्ति हमें काँटे की तरह चुभते हैं, वे फूल की तरह प्यारे लगने लगें। जिस दिन यह दुनिया हमें प्यारी लगने लगेगी, इसमें दोष, दुर्गुण कम दिखाई देंगे, उस दिन हमारे हृदय से द्वेष एवं घृणा का भाव निकल जायेगा और हमें हर दिशा और हर वातावरण में प्रसन्नता ही आने लगेगी। दुःख, क्लेश और क्षोभ, रोष का कोई कारण ही शेष न रह जायेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118