ईश्वर हमारा सच्चा जीवन सहचर है।

May 1968

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इस संसार में पग-पग पर कठिनाइयों और संकटों का सामना मनुष्य को करना पड़ता है। संसार संकटों का आलय कहा गया है। बहुत कुछ साधन होने पर भी आपत्तियाँ आ जाती हैं। उनसे छुटकारा का कोई मार्ग नहीं दीखता। मनुष्य बहुत कुछ हाथ-पैर मारता है लेकिन संकटों से निस्तार नहीं हो पाता।

ऐसी भयप्रद परिस्थितियाँ कभी-न-कभी प्रायः सभी मनुष्यों के सामने आती रहती हैं। ऐसा लगता है जैसे उसका सारा बल, सारे साधन समाप्त हो गये हैं। इस अंधकार में कोई साथ देने वाला नहीं है, जीवन भारी हो गया है। पैर लड़खड़ाने लग गये हैं। चारों ओर अन्धेरा ही छाया हुआ है। इस प्रकार वह निराशा और भय से घिर कर असहाय हो जाता है।

लेकिन फिर धीरे-धीरे सारा ज्वर शाँत होने लगता है। सभी ओर समाधान दीखने लगता है। वही साधन जिनकी शक्ति में अविश्वास होने लगा था, उसी अपने बल में, जिसमें अन्धेरा ही अन्धेरा दिख रहा था, विश्वास, श्रद्धा और प्रकाश आता दिखलाई देने लगता है। आपत्तियों और संकट के बादल छटने लगते हैं और निराश मनुष्य एक बार फिर अपने ही पैरों पर खड़ा हो जाता है। यह सब चमत्कार क्या है?

यह चमत्कार वह ईश्वरीय कृपा है जिसका उदय अपने भीतर से ही होता है। वह मनुष्य के आस्तिक भाव का लाभ है, उसी का प्रसाद है। यह लाभ उसे नहीं मिल पाता जो नास्तिक होता है, जिसके हृदय में उस सर्वशक्तिमान के प्रति विश्वास नहीं होता। नास्तिक व्यक्ति को ऐसा अप्रत्याशित सम्बन्ध प्राप्त नहीं होता। वह तो अपने साधनों, अपने बल और अपनी शक्ति के थकते ही पराजित हो जाता है और तब संकट और आपत्तियाँ उस व्यक्ति को पूरी तरह नष्ट कर देती है। ईश्वर उन्हीं पर करुणा करता है, जो उसके विश्वासी होते हैं, आस्तिक भाव से ओत-प्रोत होते हैं।

ईश्वर की यह महती कृपा ही है कि वह अपने विश्वासी की निरुपाय स्थिति में सहायता करता है। वह किसी का बन्धक नहीं होता, किसी का उस पर कोई इजारा नहीं होता। यदि वह सहायता न करे तो इसका कोई उलाहना नहीं। लेकिन नहीं वह अपने उस जन की सहायता बिना माँगे ही करता रहता है। क्योंकि वह करुणा सागर है, दया का आगार है। परमात्मा की इस कृपा के प्रति हम सबको कृतज्ञ ही रहना चाहिये।

अनेक लोग जरा-सा संकट आते ही बुरी तरह घबरा जाते हैं। हाय-हाय करने लगते हैं, उसे ईश्वर का प्रकोप मान कर भला-बुरा कहने लगते हैं। निराश और हतोत्साह होकर ईश्वर के प्रति अनास्थावान् होने लगते हैं। यह ठीक नहीं आपत्तियाँ संसार में सहज सम्भाव्य हैं। किसी समय भी आ सकती हैं। किन्तु उनसे घबराना नहीं चाहिये। उन्हें ईश्वर का अपने बच्चों के साथ एक खेल समझना चाहिये। जैसे कोई कागज का भयावह चेहरा लगा कर कभी-कभी बच्चों को डराने का विनोद किया करता है, उसी प्रकार ईश्वर भी संकट की स्थिति लाकर अपने बच्चों के साथ खेल किया करता है। उसका आशय यही होता है कि बच्चे भयावह स्थितियों के अभ्यस्त हो जायें और डरने की उनकी आदत छूट जाये। वे संसार में हर संकट का सामना करने के योग्य बन जांय। आपत्तियों को ईश्वर का खिलवाड़ समझ कर डरना नहीं चाहिये। उसमें उस खिलाड़ी का साथ देकर खेलते ही रहना चाहिये।

आपत्तियां उन्हीं के लिये भय का कारण बनती हैं, जो ईश्वर विश्वासी नहीं होते। उनमें ईश्वर के मंगल मन्तव्य का आभास नहीं देखते। अन्यथा संसार की किसी भी परिस्थितियां से डरने का कोई कारण नहीं। जिसे ईश्वर की कृपा में विश्वास है, उसकी सर्वशक्तिमत्ता में अखण्ड आस्था है, जो उसे अपना स्वामी सखा और माता, पिता समझता है, उसे किसी धातु से डरने का क्या अर्थ? डरना तो उसे चाहिये, जिसने उस सर्वशक्तिमान का साथ छोड़ दिया है।

जो उसके आदेशों और निर्देशों का उल्लंघन करने का अपराध करता है, जो ईश्वर के विरोध से नहीं डरता है, जो उसकी इच्छा का अनुसरण करने में आनाकानी करता है, डर तो उसके लिये है। जो उसकी अवज्ञा नहीं करता, आज्ञा में चलता है, अपना विश्वास सुरक्षित रखता है, उसको संसार में तो किसी से भय लगता है और न वह किसी परिस्थिति से विचलित होता है। अपने विश्वासी को ईश्वर बिना माँगे ही साहस, सम्बल और शक्ति देता रहता है। यह उसकी महती कृपा है। इसके प्रति हम सबको आभारी रहना चाहिये।

जीवन एक लम्बी यात्रा के समान है। सर्वथा एकाकी चल कर इसे आसानी से पूरा कर सकना सरल नहीं है। जब किसी यात्रा में कोई मनचाहा साथी मिल जाता है, तो वह बड़ी आसानी से कट जाती है। रास्ता लम्बा और नीरस नहीं लगता। लेकिन साथी सच्चा, सहयोगी और योग्य ही होना चाहिये। अन्यथा वह मात्रा को और भी संकटपूर्ण बना देगा। किन्तु संसार में ऐसे मन चाहे साथी मिलते कब हैं?

संसार में स्वार्थी, विश्वासघाती और आपत्ति के समय साथ छोड़ जाने वाले ही अधिक पाये जाते हैं। जीवन यात्रा के लिए सबसे योग्य एवं उपयुक्त साथी ईश्वर के सिवाय और कौन हो सकता है? वही एक ऐसा मित्र, सखा, स्वजन, सहायक और गुरु होता है, जो पूरे रास्ते साथ रहे, भूलने पर रास्ता दिखलाये, थकने पर सहारा दे और आपत्ति के समय हाथ पकड़ कर बाहर निकाल लाये। एक ईश्वर को छोड़ कर ऐसा साथी और कौन हो सकता है, जो जीवन भर साथ दे सके, पग-पग पर चेतावनी और सहारा दे सके किन्तु अपने इस उपकार के बदले में न तो कुछ ले और न माँगे। ऐसा निःस्वार्थ एवं हित-चिन्तक साथी, सखा और सहचर के उपकार यदि भुला दिए जाते हैं, तो इससे बढ़ कर कृतघ्नता और क्या हो सकती है?

जिसने ईश्वर से मित्रता कर ली है, उसे अपना साथी बना लिया है, उसके लिये यह संसार बैकुण्ठ की तरह आनन्द का आगार बन जाता है। जिसकी यह सारी दुनिया है, जो संसार का स्वामी है, उससे संपर्क कर लेने पर, साथ पकड़ लेने पर, फिर ऐसी कौन-सी सम्पदा, ऐसा कौन-सा सुख शेष रह सकता है, जिसमें भाग न मिले। जो स्वामी का सखा है वह उसके ऐश्वर्यों का भी भागी होता है।

ईश्वर के अनन्त उपकारों को कोई कृतघ्न नास्तिक ही भुला सकता है, श्रद्धालु आस्तिक नहीं। उस अहेतुक उपकार करने वाले के प्रति हमें सदैव विश्वासी एवं आस्थावान् ही रहना चाहिये। जब वह जीव को जन्म देने की सोचता है, तब उसके लिये सारी सुविधाएँ पहले से संचय कर देता है, जिससे जन्म लेने के बाद उसके प्यारे जीवों को कोई कष्ट न हो। उसकी मनोनीत माता को दो स्तन दे देता है। जन्म देते ही उनमें नित्यप्रति ताजा, स्वादिष्ट और स्वाददायक दूध पैदा करता रहता है। माता के हृदय में वात्सल्य और स्नेह उपजा कर अबोध जीव की सुरक्षा सेवा और देखभाल करने की प्रेरणा देता रहता है। यदि वह ऐसा न करे तो संसार में जीव का जीवन एक दिन भी नहीं चल पाये।

इतना ही क्यों? आगे चल कर भी वह जीवों पर अनन्त उपकार करता रहता है। उसे क्रमिक वृद्धि देता है, उसका विकास करता है, बल, बुद्धि और विवेक की कृपा करता है। यदि वह ऐसा न करे तो जीव भी जड़ की तरह अगतिशील ही बना रहे। न वह संसार में किन्हीं कर्तव्य को कर पाये और न उसका आनन्द उठा पाये। ऐसे चिर-कृपालु ईश्वर के उपकारों को किस प्रकार भुलाया जा सकता है?

इस संसार में क्या नहीं है? सुख, सौभाग्य, आनन्द-मंगल सभी तो इस संसार में भरा पड़ा है। किन्तु यह मिलता उन्हें ही है, जो इसके स्वामी परमात्मा के अनुकूल रहते हैं। उसके प्रतिकूल चलने वालों को संसार में दुःख और आपत्तियों के सिवाय और कुछ नहीं मिल पाता। जब इस जगत के स्वामी को अपना माता-पिता मानेगा उसकी आज्ञा में चलेगा, उसे हर प्रकार से प्रसन्न रखने व प्रयत्न करेगा, वही उत्तराधिकारी बनेगा और संसार का वैभव पायेगा। संसार का सारा वैभव हमारे पिता का है- जब यह विश्वास हृदय में जम जायेगा तो पुत्र भाव रखने वाला आस्तिक उस अतुल वैभव को अपना अनुभव करने लगेगा। उसे गरीबी, अभाव, दरिद्रता अथवा दुःख का अनुभव ही न होगा। जब साधारण साँसारिक राजा, रईसों के लड़के अपने आपको सम्पन्न और संतुष्ट अनुभव करते हैं और पिता के बल पर संसार में निर्भय होकर विचरते हैं, तब भला उस सर्वशक्तिमान् को अपना पिता मानने वाला क्यों तो किसी से डरेगा और क्यों अपने को विपन्न मान कर दुःखी होगा?

ईश्वर मनुष्य के भाव के अनुरूप ही अपना भी भाव बनाता है। जो उसमें पिता का भाव रखता है, वह बदले में उसकी ओर से पुत्र का भाव पाता है। अब ऐसा कौन-सा पिता होगा जो अपने पुत्र को अपनी सम्पदाओं से वंचित रखेगा अथवा उसे विपत्ति में पड़ा रहने देगा? वह तो उसका हर प्रकार से लालन-पालन करेगा और हर प्रकार से आपत्तियों से बचायेगा। ऐसे परम दयालु पिता का उपकार न मानना बहुत बड़ा पाप है।

संसार की इस लम्बी जीवन-यात्रा को एकाकी पूरा करने के लिए चल पड़ना निरापद नहीं है। इसमें आपत्तियाँ आयेंगी, संकटों का सामना करना होगा। निराशा और निरुत्साह से टक्कर लेनी होगी। इन सब बाधाओं और दुःखदायी परिस्थितियों से लड़ने के लिए एक विश्वस्त साथी का होना बहुत आवश्यक है। वह साथी ईश्वर से अच्छा कोई नहीं हो सकता। उसे कहीं से लाने-बुलाने की आवश्यकता नहीं होती है। वह तो हर समय, हर स्थान पर विद्यमान है। एक अणु भी उससे रहित नहीं है। वह हमारे भीतर भी बैठा हुआ है। किन्तु हम अपने अहंकार के कारण उसे जान नहीं पाते। उसी प्रकार जैसे किसी के घर में बड़ा भारी खजाना छिपा पड़ा हो और वह उसे अज्ञानवश न जान सके। जब किसी को अपनी छिपी सम्पत्ति का पता हो जाता है, तो वह उसे खर्च भले ही न करे तब भी उसे उसके बल पर एक सम्पन्नता एक विश्वास और एक बल अनुभव होता रहता है। जो अन्तरस्थ ईश्वर का विश्वास पा लेता है, समझ लेता है कि वह सर्वशक्तिमान हर समय उसके हृदय में विराजमान है, उसके साथ रहता है, उसे एक बड़ा आनन्ददायक आत्म-विश्वास बना रहता है। फिर उसे न किसी से भय लगता है और न वह किसी प्रकार की कमी अनुभव करता है। वह स्वयं ही अपने उस विश्वास के बल पर हर परिस्थिति से टक्कर से लेता है, प्रायः रो, कलय कर ईश्वर को पुकारने की भी आवश्यकता नहीं रहती।

ईश्वर हमारा महान उपकारी पिता है। वह हमारा स्वामी और सखा भी है। हमें उसके प्रति सदा आस्थावान रहना चाहिये और आभारपूर्वक उसके उपकारों को याद करते हुए उसके प्रति विनम्र एवं श्रद्धालु बना रहना चाहिये। इसमें हमारा न केवल सुख ही निहित है बल्कि लोक-परलोक दोनों का कल्याण भी।


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