सेवा, पर निःस्वार्थ

May 1968

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सेवा, पर निःस्वार्थ :-

भगवान्! के दो भक्त थे। एक बड़ा ईमानदार था, दूसरा बेईमान। पहला दिन भर मेहनत से काम करता। न कुछ चुराता और न फालतू समय बरबाद करता। पर शाम को जब भगवान के पास जाता तो अनेकों इच्छायें रखता- ‘‘मुझे घर चाहिए, पत्नी चाहिए, पुत्र चाहिए और चाहिए विपुल धन-सम्पत्ति कि जिससे सुख और सुविधापूर्वक रह सकूँ।”

दूसरा व्यक्ति दिन भर दायें-बायें करता। जहाँ अवसर मिलता कुछ-न-कुछ बचा कर चुपचाप अपनी जेब में रख लेता। जो कुछ मिलता अपने लिए अधिक रख कर दूसरों को कम देता। शाम को भगवान के पास जाता। प्रेम और श्रद्धा से सिर झुकाता और चुपचाप अपने घर लौटा जाता।

बेईमान की उन्नति होती गई। यह देख कर ईमानदार को बड़ी ईर्ष्या हुई। अपने भगवान से शिकायत की- प्रभुवर, मैंने आपकी सेवा इतनी सच्चाई और ईमानदारी से की पर आपने दिया बेईमान को सब कुछ।

भगवान् हँसे और बोले- ‘‘वत्स, बार-बार माँग कर परेशान करने की अपेक्षा तो तुम भी वैसा ही करते तो क्या बुरा था। अपने किये का भरपूर इनाम माँगते रहने पर तुम्हारी सेवा और साधना का महत्व ही क्या रह जाता? आत्म-सन्तोष के रूप में हमारा जो स्नेह और आशीर्वाद तुम्हें मिलता है, क्या उतने से तुम सन्तुष्ट नहीं रह सकते?

भक्त का समाधान हो गया। उसने अनुभव किया- आत्म-सुख और आत्म-शान्ति रूपी ईश्वर अनुग्रह के आगे एक सज्जन के लिए धन वैभव का कोई मूल्य नहीं।


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