आत्म-कल्याण बनाम विश्व-कल्याण

May 1968

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परमार्थ और परोपकार के दो लाभ माने गये हैं- एक आत्मोद्धार, दूसरा विश्व-कल्याण।

देखने में तो यह अलग-अलग दो लाभ विदित होते हैं। पर वस्तुतः दोनों बातें हैं एक ही। व्यक्ति-व्यक्ति रूप में जब सारा मानव-समाज अपना सुधार अथवा कल्याण कर लेगा तो समस्त संसार का कल्याण स्वतः ही हो जायेगा। इसी प्रकार विश्व-कल्याण की व्यापक भावना के अंतर्गत व्यक्ति कल्याण की भावना आ ही जाती है। अपना सुधार विश्व-कल्याण और विश्व-कल्याण अपना उद्धार- दोनों एक ही बात हैं। अथवा यों कह लीजिये दोनों एक ही बात के दो दृष्टि-बिन्दु अथवा पक्ष हैं। दोनों में कोई अन्तर नहीं है।

जो दूरदर्शी बुद्धिमान व्यक्ति अपने सुधार पर जितना ध्यान देते हैं। अपनी त्रुटियों और दुर्बलताओं को खोजते और दूर करने का प्रयत्न करते हैं- वे एक प्रकार से उतना ही संसार का उपकार करते हैं। व्यक्ति का सुधार संसार का ही सुधार तो है और संसार का सुधार परोपकार कार्य ही होता है। जो अपनी परिस्थितियाँ सुधारता और भविष्य को उज्ज्वल बनाता चलता है, वह उतने ही अर्थों में संसार का भविष्य उज्ज्वल बनाता है।

जो लोग सोचते हैं कि अपनी उन्नति अपना उद्धार करना एक स्वार्थ मात्र है, वे भारी भ्रम में हैं। अपना उद्धार करना संसार का उद्धार करने का प्रथम चरण है। जो अपना उपकार आप नहीं कर सकता वह संसार अथवा किसी दूसरे का उपकार क्या कर सकता है? जो स्वयं अच्छा है, वही दूसरे को अच्छा बना सकता है। जो स्वयं उदार और निर्लोभ है, वह ही किसी दूसरे को इसकी शिक्षा दे सकने का अधिकारी है। हम संसार को जिस रूप में देखने की आकाँक्षा रखते हैं, सबसे पहले हमें स्वयं ही वैसा बनना पड़ेगा। व्यक्ति और संसार कोई भिन्न वस्तु नहीं। व्यक्तियों का समूह ही समाज और संसार कहलाता है। यदि हम संसार का कल्याण करना चाहते हैं, तो यह काम हमें अपने से ही आरंभ कर देना चाहिये। अपनी सेवा भी संसार की ही एक सेवा है।

यदि हम स्वयं बुरे हैं और संसार को अच्छा बनाना चाहते हैं, तो यह सम्भव न होना। फिर चाहे उसके लिये हम समाज में जाकर लोगों की सेवा ही क्यों न करते हैं। उन्हें ज्ञान का प्रकाश और सद्भावना का अमृत क्यों न बाँटते रहें। सबसे पहली बात है कि लोग हम पर विश्वास ही न करेंगे, दूसरे यदि कोई सुनने समझने को भी तैयार हो जाये तो उसका कोई उपयोगी प्रभाव न होना। तीसरे यदि एक बार यह दोनों बातें हो भी जांय तो भी हम जितना एक ओर सुधार करेंगे, उतना ही हमारी बुराइयाँ दूसरी ओर विकृति पैदा कर देगी। संसार का उपकार करने से पूर्व आवश्यक है कि पहले अपने पर उपकार कर आत्म-सुधार कर लिया जाय। अपनी सच्ची सेवा संसार की सेवा का ही एक अंग है। आत्मोद्धार को स्वार्थ मानना भारी भूल है।

आत्मोद्धार संसार का उपकार करने का एक सरल और सुगम उपाय है। अपना आपा ही अपने सबसे निकट होता है। अपने को अपने पर दूसरों की अपेक्षा अधिक अधिकार और नियंत्रण होता है। अपने को तो अपनी इच्छानुसार किसी ओर भी मोड़ा अथवा किसी आदर्श में ढाला ही जा सकता है। दूसरों पर हमारा कोई अधिकार नहीं होता। हम किसी से कुछ निवेदन ही कर सकते हैं, कुछ समझा सकते हैं और परामर्श दे सकते हैं। अपनी तरह बलपूर्वक किसी ओर चला तो नहीं सकते। यह निश्चित नहीं कि दूसरे लोग हमारी बात मानें ही। वे मान भी सकते हैं और नहीं भी मान सकते हैं। इस संदिग्ध स्थिति में विश्व-सुधार का कार्य सरलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है। इसलिये अच्छा यही है कि संसार का एक अंग होने के नाते अपने माध्यम से संसार के उपकार में लगें। यही सबसे सही और सुगम तरीका है।

आत्मोद्धार, आत्मोपकार और आत्म-विकास को जो स्वार्थ मानते हैं, उन्हें समझ लेना चाहिये कि सदाशयता पूर्ण स्वार्थ भी परमार्थ ही होता है। अपनी आत्मा का स्वार्थ जिन विचारों और कार्यों द्वारा सिद्ध होगा, उन्हीं के माध्यम से संसार का हित साधन भी होगा। जिन गुणों से जिन उपायों से हमें आत्म-शाँति, आत्म-संतोष और आत्म-कल्याण का लाभ होगा, उनके सिवाय दूसरे और कौन से कारण और उपाय हो सकते हैं, जो दूसरों की आत्माओं में इन विशेषताओं का समावेश कर सकें? सारे संसार की आत्माएँ एक हैं और वे एक जैसे गुण-दोषों से सुखी और दुःखी होती हैं।

उत्कृष्ट स्तर का स्वार्थ वस्तुतः परमार्थ का ही एक रूप होता है। सत्कर्म एवं सद्गुण स्वयं ही परोपकार बन कर प्रकट होते हैं। लोक-कल्याण और आत्म-कल्याण की गतिविधियाँ भिन्न-भिन्न नहीं एक ही होती हैं। जो माध्यम आत्म-कल्याण का होता है, वही लोक-कल्याण का। अस्तु आत्मोद्धार को स्वार्थ मान बैठना ठीक नहीं।

लोभ, लोलुपता और परपीड़न की भावना से प्रेरित प्रवृत्तियाँ ही स्वार्थ हैं, जिनकी विद्वानों और मनस्वी व्यक्तियों द्वारा निन्दा और निषेध किया गया है। ऐसा संकीर्ण व्यक्ति मानवीय धर्म की उपेक्षा करने लगता है, जिससे वह संसार का तो अपकार करता ही है आप भी अपना पतन कर लिया करता है।

संकीर्ण, भौतिक एवं निकृष्ट स्वार्थ मिथ्या स्वार्थ माना गया है। ऐसा स्वार्थ वह उत्कृष्ट और सच्चा स्वार्थ नहीं होता जिसका परिणाम परमार्थ पुण्य के फल वाला होता है। झूठा स्वार्थ मनुष्य को वासनाओं और तृष्णाओं से ग्रसित कर कुकर्म करने को विवश करता है। ऐसे स्वार्थी व्यक्ति कोई तात्कालिक लाभ भले ही प्राप्त करलें पर अन्त में उसे लोक-निन्दा, अविश्वास, प्रण, असंतोष, विरोध, विक्षोभ, आत्मग्लानि, अशाँति आदि के कष्टदायक मानसिक एवं साँसारिक नरक में पड़ना पड़ता है। ऐसा निकृष्ट एवं निन्दित व्यक्ति क्या तो अपना उद्धार कर सकता है और क्या लोकोपकार है।

इन्हीं कारणों से ऐसे नारकीय स्वार्थ को मनीषियों ने निन्दित एवं हेय ठहराया है। परमार्थ का पूरक स्वार्थ उज्ज्वल और उन्नत स्वार्थ ही माना गया है। उसके संपादन में आरम्भ में थोड़ा-सा कष्ट भले हो, उससे इन्द्रियजन्य सुखों और लोभजन्य लाभों की पूर्ति भले ही न हो सके, वासनाओं और तृष्णाओं की पूर्ति भले ही न हो सके- पर अन्ततः वह सुखदायक और कल्याणकारी ही होता है। परमार्थपरक स्वार्थ वाले व्यक्ति अपने सदाचार और सद्-व्यवहार के कारण लोक-प्रियता का वह श्रेय प्राप्त कर लेते हैं, जो आत्म-शांति, आत्म-संतोष के साथ-साथ साँसारिक और पारलौकिक जीवन के लिये एक बड़ा सम्बल बनता है।

परमार्थ और परोपकार का अर्थ केवल यही नहीं है कि हम किसी को भोजन, वस्त्र और धन दें और न उसका अर्थ उन कामों तक ही सीमित है, जिससे किसी की सेवा हो सके या कोई कष्ट दूर किया जा सके। बल्कि यदि हम किसी को किसी ऐसी प्रवृत्ति से विरत कर देते हैं, जिससे वह किसी आगामी संकट से बच जाता है तो यह भी परोपकार ही माना जायेगा। दूसरे की गलतियों और बुराइयां हमें परेशान करती हैं, कष्ट देती हैं और हानि पहुँचाती हैं। अब यदि हममें परोपकार भावना नहीं है, तो हम उसे उसका दोष देंगे, प्रतिकार करेंगे। जिससे वह भी किसी कष्ट और संकट का भागीदार बन जायेगा। जिसकी प्रतिक्रिया उसके भावी जीवन को और नीरस तथा बुरा बना देगी।

हमारे कारण वह समाज से खीझने लगेगा, उसका अपकार करेगा, जिसके फलस्वरूप आये दिन संकट में पड़ता रहेगा। यदि हम परोपकार भावना द्वारा उसे उसकी बुराई के लिये क्षमा करके यह सोचने पर विवश कर दें कि उसने एक अच्छे व्यक्ति की बुराई की है, जो उसे नहीं करनी चाहिये थी, तो भविष्य के लिए उसकी प्रवृत्तियों में सुधार होगा और वह आगामी संकटों से बचा रहेगा। व्यक्ति का यह सुधार एक बड़ा परोपकार ही नहीं पुण्य परमार्थ भी है।

किन्तु यह सुधार हम कर सकने में सफल तभी होंगे, जब अपनी प्रवृत्तियों को क्षमा एवं सहनशीलता द्वारा पवित्र बना सकें। एक आध्यात्मिक व्यक्ति की भाँति दूसरे की बुराई का कारण अपने भीतर खोजें और उसका निराकरण करें, तभी हममें वह गुण आ सकता है जिसके प्रभाव से बुरा व्यक्ति अच्छा बन जाता है। हमें सोचना होगा कि कोई वस्तु सजातीय एवं अनुकूल वायुमंडल में ही बढ़ती और पनपती है। दूसरे कोई बुराई करने का अवसर तभी मिलेगा, जब वैसी ही बुराई और त्रुटि अपने अन्दर भी हो। यदि अपना स्वभाव उत्कृष्ट, सहनशील एवं क्षमाशील है, बुरे के साथ भी उपकारपूर्ण सद्भावना और सहानुभूति है तो बुरे लोगों को भी अपने को उसके अनुरूप बनाने पर विवश होना पड़ेगा, अपना व्यवहार बदलना पड़ेगा।

जो व्यक्ति जितना ही अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुधारता है, वह ‘आत्मोद्धार ही विश्व-कल्याण हैं’-वाले सिद्धान्त के अनुसार उतना ही उपकारी माना जायेगा। ऐसा व्यक्ति तत्परतापूर्वक अपनी छोटी-से-छोटी बुराई की भी उपेक्षा नहीं करता, उसे भी जड़मूल से नष्ट कर देने में सचेष्ट रहता है। हम जितनी अधिक अपनी परिस्थितियाँ सुधारते चलेंगे। अपने भाग्य और भविष्य को उज्ज्वल और उन्नत बनाते चलेंगे, उतने ही अंश में संसार का उपकार करते चलेंगे।

अपना सुधार न कर परोपकार कार्यों में लगना एक विडम्बना मात्र ही सिद्ध होगा। अतएव आवश्यक है कि परोपकार का पुण्य पाने के लिए अपने सुधार, आत्मोपकार पर भी ध्यान दिया जाय। संसार का उपकार करने का सबसे सरल और सुगम तरीका आत्मोद्धार ही है। इसकी ओर ध्यान न देने वाले से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि उसका किया उपकार निःस्वार्थ और निष्कलंक होगा। न चाहते हुए भी निम्न प्रवृत्तियों के व्यक्तियों के परोपकार कार्यों में निकृष्ट स्वार्थ के समावेश हो जाने का भय बना रहता है।

अपने जीवन को सार्थक बनाने की दृष्टि से भी और विश्व हित साधन की दृष्टि से भी हमें सबसे पहले अपने व्यक्तित्व को निर्दोष व निष्कलंक बनाना चाहिये। हमारा व्यक्तित्व जितना उज्ज्वल और उन्नत बनता जायेगा, उसी अनुपात से हममें अंतर्ज्योति का तो जागरण होगा ही साथ साथ ही उतने अंशों में संसार का भी कल्याण होगा और इस प्रकार स्वार्थ में परमार्थ का समन्वय होगा और दोनों पक्ष सधते चलेंगे।


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