परिवार का आदर्श और विकास

May 1968

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एक ही रक्त और कुल के क्यों न हों अनेक लोगों का एक साथ रहना मात्र ही पारिवारिक जीवन नहीं है। एक साथ एक घर में अनेक भाई और उनके बच्चे रहते हों किन्तु वे आपस में लड़ते, संघर्ष करते और कलह मचाते रहें, तो इससे पारिवारिक जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं होता। इस प्रकार तो वह एक घर परिवार न कहा जाकर संग्राम-स्थल ही कहा जायेगा।

अनेक पशु-पक्षी समूह बना कर रहते हैं। साथ-साथ चरते, घूमते, उठते, बैठते, सोते और जागते हैं किन्तु उनको एक परिवार नहीं कहा जा सकता। परिवार का प्रमुख लक्षण है, एक-दूसरे से प्रेम, सहानुभूति, आत्मीयता और स्वार्थ रहित सेवा-भाव। एक-दूसरे के लिये त्याग तथा उत्सर्ग की तत्परता। जिस मानव समूह में एक दूसरे का सुख-दुःख अपना सुख-दुःख न बन सका, वहाँ पारिवारिक भावना नहीं मानी जायेगी। पशु-पक्षी का साथ रहते हुए भी इसी आत्म-भाव के अभाव में पारिवारिक नहीं माने जाते। पारिवारिक जीवन का लक्षण है- ‘‘प्रेम, आत्मीयता, सहयोग, सहायता, संवदेना, सद्भाव तथा सबके प्रति यथायोग्य व्यवहार सबकी मंगल-कामना, सबकी सुख-सुविधा का विचार आदि के सात्विक गुण।” जहाँ बड़ों का छोटों के प्रति आशीर्वाद नहीं, छोटों में गुरुजनों के प्रति आदर और विनम्रता का भाव नहीं, जहाँ भाई-भाई और भाई-बहन में एकात्मकता नहीं वहाँ पारिवारिक भावना का अभाव है, यही मानना ही पड़ेगा।

परिवार का अर्थ है- एक-दूसरे की साँसारिक सुख में सहायता के साथ आत्मोन्नति में यथासाध्य सहयोग करना। जहाँ लोग एक-दूसरे का अधिकार छीनना चाहते हों, एक-दूसरे से ईर्ष्या व डाह करते हों, पीछे खींचने का प्रयत्न करते और अपने स्वार्थ पर ही दृष्टि रखते हों, वहाँ परिवार कहाँ? वहाँ तो पाशविक समूह जैसी भावना ही समझना चाहिये।

घर में जब प्रत्येक सदस्य दूसरे के लिए त्याग करने को तत्पर रहे, उसका अपना स्वार्थ दूसरों के स्वार्थ के साथ जुड़ा हो, एक की पीड़ा सबकी पीड़ा और एक की उन्नति सबकी उन्नति बन कर प्रकट हो, तब समझना चाहिये कि हम पारिवारिक जीवन यापन कर रहे हैं। दूसरे हमसे अच्छा खायें पहनें, घर की सुख-सुविधा का उपभोग पहले दूसरे लोग करें, हमारी खुशी इसी में है। हमारा कर्तव्य तो अधिकाधिक त्याग और दूसरों की सुख-शाँति और विकास में सहायक होना है। ‘मेरे रहते किसी को दुःख-तकलीफ न हो आदि की उदार भावना ही पारिवारिक भावना को प्रकट करती है।

परिवार की प्रतिष्ठा हमारी प्रतिष्ठा, परिवार की उन्नति हमारी उन्नति, उसकी समृद्धि हमारी समृद्धि और उसका लाभ-हानि हमारा लाभ-हानि है, ऐसी आत्म-भावना पारिवारिकता का विशेष लक्षण है। हम कोई ऐसा काम न करें, जिससे परिवार की प्रतिष्ठा पर आँच आये। किसी सदस्य पर कोई अवाँछनीय प्रभाव पड़े, परिवार की उन्नति में अवरोध उत्पन्न हो अथवा उसकी समृद्धि एवं वृद्धि में प्रतिकूलता आये, ऐसा सतर्क भाव ही तो पारिवारिकता कहा जायेगा। जहाँ यह सब बातें पाई जांय, वहाँ समझना चाहिए कि लोग वास्तविक रूप में परिवार बन कर रह रहे हैं। जहाँ स्वार्थ, वैषम्य, विचार-वैषम्य, भाव-वैषम्य अथवा सुख-दुःख में विषमता की गन्ध पाई जाये वहाँ मानना होगा कि एक साथ अनेकों के रहने पर भी वहाँ परिवार भावना नहीं है। लोग किसी कारणवश एक साथ रहे जा रहे हैं।

परिवार एक पवित्र तथा उपयोगी संस्था है। इसमें मानव की सर्वांगीण उन्नति का आधार सहयोग, सहायता और पारस्परिकता का भाव रहता है। यह भाव वह शक्ति है जिसके आधार पर मनुष्य आदि जंगली स्थिति से उन्नति करता-करता आज की सभ्य स्थिति में पहुँचा है। सहयोग की भावना ही मनुष्य जाति की उन्नति का मूल कारण रही है। एकता, सामाजिकता, मैत्री आदि की सहयोग मूलक शक्ति ने ही आज मानव सभ्यता को उच्चता पर पहुँचा दिया है। सभ्यता के प्रारम्भिक युग में जिस व्यक्ति ने सहयोग की शक्ति समझ कर उसका प्रकटीकरण तथा प्रवर्तन किया होगा, वह निश्चय ही एक बड़ा दार्शनिक तथा समाज हितैषी महापुरुष रहा होगा। सहयोग की शक्ति जान कर लोगों ने अपनी स्थूल तथा सूक्ष्म विशेषताओं को मिला कर संगठन की चेतना प्रबुद्ध की होगी और कन्धों-से-कन्धा, विचार-से-विचार, शक्ति-से-शक्ति तथा साधन-से-साधन मिला कर एक तन-मन से काम किया होगा, जिसके फलस्वरूप सभ्यता तथा मानवीय समृद्धि के एक के बाद एक द्वार खुलते चले गये होंगे।

आज भी तो पूरा समाज सहयोग और पारस्परिकता के बल पर ही चल रहा है। यदि समाज से सहयोग की भावना नष्ट हो जाये तो तुरन्त ही चलते हुए कारखाने, होती हुई खेती और बढ़ती हुई योजनाएँ व विकास पाती हुई कलायें, शिल्प, साहित्य आदि की प्रगति रुक जाये और कुछ ही समय में समाज जड़ता से अभिभूत होकर नष्ट हो जाये। सहयोग मानव विशेषताओं में एक बड़ी विशेषता है, परिवार में जिसका होना नितान्त आवश्यक है। इसी पर परिवार बनता, ठहरता, चलता और उन्नति करता है।

परिवार में जब तक सच्ची पारिवारिक भावना नहीं होती उसका उद्देश्य पूरा नहीं होता। आज सच्ची पारिवारिक भावना के अभाव में ही तो परिवार टूटते, बिखरते जा रहे हैं। उनकी शक्ति तथा दक्षता नष्ट होती जा रही है। उनकी वृद्धि, समृद्धि रुकती जा रही है और दिन-दिन उन्हें दीनता, दरिद्रता घेरती चली आ रही है। पारिवारिक भावना के अभाव में ही भाई-भाई लड़ते, बहनें एक-दूसरे से मन-मुटाव मानती, सास-बहू के बीच बनती नहीं और देवरानी, जिठानी एक-दूसरे से डाह व ईर्ष्या करती हैं। जितने मुकदमें दूसरों के विवाद के नहीं चलते उससे कई गुने मुकदमें पारिवारिक कलह के कारण दायर होते और चलते रहते हैं। चाचा-ताऊ, बाप-बेटों और बाबा-पोतों तक में संघर्ष होता चलता है।

इस अनिष्ट का एकमात्र कारण यही है कि एक परिवार होते हुए भी वे सब पारिवारिक भावना से रहित होते हैं। अपना भिन्न तथा पृथक अस्तित्व मानते और तदनुरूप ही आचरण करते हैं। सच्ची पारिवारिक भावना का विकास तो तब ही होता है, जब परिवार का प्रत्येक सदस्य अपना अस्तित्व पूरे परिवार में मिला कर अभिन्न हो जाता है। इस आत्म विसर्जन के पुण्य से ही लोगों में सच्चे प्रेम और सच्ची आत्मीयता का विकास होता है।

परिवारों से मिल कर समाज और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। यदि परिवार, संगठित, शक्ति सम्पन्न और समृद्ध हो जायें तो समाज तो वैसा आप-ही-आप बन जायेगा। उसके लिये अलग से कोई प्रयत्न करने की आवश्यकता न रह जायेगी। परिवारों में सच्ची पारिवारिक भावना का अभाव किन कारणों से हुआ है, या हो रहा है, यदि इस पर विचार करते हैं, तो यह विदित होता है कि आज का हमारा रहन-सहन और आचार-विचार इसके लिए मुख्य उत्तरदायी हैं।

हम परिवार तो बड़े शोक से बसा लेते हैं, किन्तु उसका उचित निर्माण नहीं करते। वह अपने आप स्वतंत्र रूप से कुशकंटकों की भाँति जिधर चाहता बढ़ता और विकसित होता चला जाता है। यदि किसी चतुर माली की तरह हम अपने परिवार को एक सुन्दर वाटिका मान कर उचित पालन और निर्माण करें तो निःसन्देह उसका एक-एक सदस्य खुशनुमा फूल की तरह गुणों की सुगन्ध से भर कर खिल उठे, जिससे न केवल परिवार को ही बल्कि अन्य लोगों को सुख की प्राप्ति हो।

परिवार का निर्माण बच्चों के निर्माण से प्रारम्भ होता है। बच्चों का समुचित निर्माण तभी सम्भव है, जब हमारे उतने ही बच्चे हों जितनों का ठीक से पालन और देख-रेख की जा सके, जिनको शिक्षित और सुयोग्य बनाने के लिये हमारे पास साधन हों। परिस्थिति से परे अनावश्यक बच्चे पैदा करते जाने वाला गृहस्थ लाख प्रयत्न करने पर भी अपने परिवार का वाँछित निर्माण नहीं कर सकता। जिस बोझ को उठाया ही नहीं जा सकता उसको लक्ष्य तक नहीं ले जाया जा सकता। इसलिए परिवार निर्माण का मुख्य आधार छोटा तथा नियोजित परिवार ही मान कर चलना चाहिये।

बच्चों को केवल भोजन-वस्त्र दे देना और उनकी शिक्षा के लिये प्रबन्ध कर देने मात्र से उनका निर्माण नहीं हो सकता। स्कूलों में बच्चों को केवल पुस्तकीय शिक्षा ही मिल पाती है। आचरण की शिक्षा, गुण कर्म तथा स्वभाव की शिक्षा जो उनके निर्माण के लिए अत्यावश्यक है, वह आज के शिक्षालयों में नहीं मिलती है।

बच्चों के निर्माण में पिता का व्यक्तिगत आचरण बहुत महत्व रखता है। बच्चे सहज ही अनुकरणशील होते हैं, वे जैसा पिता को करते देखते हैं, वैसा ही सीख लेते हैं। अतः पिता को अपना रहन-सहन, आचार-विचार और स्वभाव उसके अनुकूल रहना चाहिये, जिस आदर्श में वह अपने बच्चों को ढालना चाहता है। यदि पिता अपने इस महान दायित्व को समझे और अपने को त्याग, प्रेम, परिश्रम, पुरुषार्थ, सदाचार के आदर्श के रूप में प्रस्तुत करे तो कोई कारण नहीं कि उसके बच्चे न बन जायें। जो पिता स्वार्थी, क्रोधी, कर्कश, और व्यसनी विलासी होता है, वह न तो आदर का पात्र रहता है और न उसके बच्चे ही अच्छे बन पाते हैं।

माता के व्यक्तिगत आचरण का प्रभाव कन्याओं पर विशेष रूप से पड़ता है। जो मातायें अधिक साज सज्जा, श्रृंगार, फैशन, पाउडर, लिपस्टिक और गहनों में रुचि रखती हैं और सास, ननद, देवरानी, जिठानी आदि से लड़ती-झगड़ती रहती हैं, उनकी कन्यायें भी फैशनेबुल, छबीली और विलास-प्रियता की शिकार बन जाती हैं और उनके स्वभाव में भी विवाद, असहयोग और कलह के अंकुर उग आते हैं। माता-पिता को चाहिये कि परिवार के सारे सदस्यों तथा व्यक्तियों से यथायोग्य प्रेम और आदर का व्यवहार करें, सबके लिये त्याग तथा उदार भावना को प्रश्रय दें, अधिक-से-अधिक सादगी और शालीनता से रहें, इससे उनके बच्चों पर पारिवारिकता के अनुकूल प्रतिक्रिया होगी। वे प्रेमभाव की मिठास और त्याग का महत्व समझेंगे।

अभिभावकों के व्यक्तिगत आचरण के साथ परिवार का वातावरण भी बच्चों और सदस्यों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं। जिन घरों में दिन-रात लड़ाई-झगड़ा तथा आपा-धापी होती रहती है। उस परिवार के बच्चे और अन्य सदस्य परस्पर सहयोग का मूल्य नहीं समझ सकते। उनमें स्वार्थ और कलह की प्रमुखता हो जायेगी। चाचा-ताऊ आदि जो भी सदस्य एक परिवार में रहते हों, जो भी भाई-बहन एक घर में रहते हों उन सबको अपना तथा अपने बच्चों से अधिक ख्याल भाई-बहन के बच्चों और उन खुद का रखना चाहिये। परिवारों में बच्चों के प्रति अपना-अपना भाव रखने से ही अधिकतर कलह के अंकुर उगते हैं। यदि सब बच्चों को अपना बच्चा और अपने को उनका सगा अभिभावक समझा जाये और वैसा ही प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाये तो कोई कारण नहीं कि सबमें समान रूप से प्रेम-भाव न बना रहे और सारे बच्चे समान रूप से सारे गुरुजनों का आदर न करें अथवा अनुशासन न मानें। सारे प्रौढ़ सभी बच्चों को अपने बच्चे और सारे बच्चे सभी गुरुजनों को अपना शुभ-चिन्तक और अभिभावक मान कर वैसा ही आचरण करने लगें, तो निश्चय ही परिवार में दृढ़ता और स्थिरता के साथ-साथ सुख-शाँति की परिस्थितियाँ रहने लगें।

इसके साथ परिवार का वातावरण अधिक-से-अधिक पवित्र तथा शालीन रहना चाहिये घरों में ऐसा साहित्य ऐसे चित्र तथा ऐसे मनोरंजन को नहीं धँसने देना चाहिये जिससे बच्चों के स्वभाव अथवा आचरण पर अवाँछनीय प्रभाव पड़े। घरों में गन्दी मजाक, तानाकशी और हल्का विनोद अथवा गाली-गलौज का वातावरण नहीं होना चाहिये। रूढ़िवादिता, कुरीतियाँ और कुप्रथाओं के बहिष्कार से भी बच्चों के निर्माण में बहुत कुछ सहायता मिलेगी। पारिवारिक रूढ़ियों और अन्ध-विश्वास बच्चों पर इतना बुरा प्रभाव डालते हैं कि वे जीवन भर के लिये पढ़े-लिखे होने पर भी विचारों की स्वतन्त्रता तथा नवीनता से वंचित रह जाते हैं। यह विकृति उन्हें निश्चित रूप से पक्षपाती, दुराग्रही तथा स्वार्थी बना देती है।

इस प्रकार व्यक्तिगत आचरण, घरेलू वातावरण तथा विचार विकृति दूर कर परिवार का निर्माण कीजिये, आपके घरों से कलह, क्लेश तथा फूट-टूट की दूषित विकृति दूर हो जायेगी और उसके स्थान पर सच्ची पारिवारिकता, सहयोग, प्रेम तथा पारस्परिकता की भावना बढ़ेगी, जिससे परिवार के साथ, समाज तथा देश का कल्याण होगा।


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