ईश्वर-उपासना से महान आध्यात्मिक लाभ

May 1966

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जल में प्रवेश करते ही उसकी उष्णता या शीतलता का तत्काल भान होता है। आग के पास बैठने वाले को उसकी गर्मी मिलना स्वाभाविक है। किसी भी वस्तु की समीपता मनुष्य के जीवन में अपना विशिष्ट प्रभाव अवश्य छोड़ती है। बुरी वस्तु का संग, बुराई पैदा करता है और भली का भलाई। संसार के सभी लोग इसीलिये भले आदमियों और भली वस्तुओं का सान्निध्य-सुख प्राप्त करना चाहते हैं।

ईश्वर-उपासना के सत्परिणाम भी मनुष्य को तुरन्त देखने को मिलते हैं। जो लोग उसके वैज्ञानिक अस्तित्व का ज्ञान नहीं रखते वे भी उस लाभ से वंचित नहीं रहते। दियासलाई जान में जलाई जाय या अनजान में, उससे आग अवश्य पैदा होगी। उपासना की वैज्ञानिक प्रक्रिया को न समझने वाले भी ईश्वर से प्राप्त होने वाले आध्यात्मिक लाभों द्वारा अपने लौकिक एवं पारलौकिक उद्देश्य प्राप्त कर लेते हैं इसमें जरा भी सन्देह नहीं है।

ईश्वर एक प्रकार का विज्ञान है और उपासना उसे प्राप्त करने की वैज्ञानिक पद्धति। ईश्वर-उपासना का अर्थ है, ईश्वर के समीप बैठना। जल, अग्नि अथवा वायु की समीपता से जिस तरह मनुष्य तुरन्त उनके गुणों का प्रभाव अनुभव करने लगता ही ठीक उसी तरह से परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त होते ही जीव का आपा विस्तीर्ण होने लगता है, उसकी शक्तियाँ प्रकीर्ण होने लगती हैं। उस प्रकाश में मनुष्य न केवल अपना मार्ग दर्शन करता है अपितु अनेकों औरों को भी सन्मार्ग की प्रेरणा देता है। एक ईश साधक की शक्ति इसीलिये बहुत बड़ी और जाज्वल्यमान समझी जाती है क्योंकि वह सर्व शक्ति मान ज्योति में अन्तर्हित होकर स्वयं भी उनका उत्तराधिकार अनुभव करने लगता है। यजुर्वेद में इस सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुये कहा गया है।—

सपर्य्यगाच्छुक मकायमब्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभू-स्वयं भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् - व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥

(यजु 40।1)

“जो परमात्मा देव तेजस्वी, निराकार, व्रण रहित, स्नायु जाल से अपरिच्छिन्न अलौकिक पाप-रहित, कवि, मनीषी, सर्वव्यापी, सर्व शक्तिमान है वह हमें भी इन शक्तियों से ओत-प्रोत करें।”

इस मंत्र में परमात्मा की उपासना से प्राप्त होने वाले महान् आध्यात्मिक लाभों को ईश्वरीय गुणों के रूप में दिखाया गया है। यह गुण अग्नि की उष्णता या जल की शीतलता के ही समान है और जो व्यक्ति उनकी जितनी अधिक समीपता में पहुँचता, इन गुणों का उसी अनुपात में उसके जीवन में आविर्भाव होता चला जाता है और में उसी में लीन होकर जीव-भाव से मुक्त हो जाता है।

परमात्मा को “शुक्रम्” अर्थात् प्रकाश स्वरूप कहा जाता है। प्रकाश-तेजस्विता, निर्दोषिता एवं ज्ञान का प्रतीक है। ईश्वर उपासना से जीवात्मा का उत्थान इसी कक्षा से प्रारम्भ होता है। जब तक मनुष्य अपने जीव भाव में था। तब तक वह अज्ञान-ग्रस्त था, उसे संसार की वस्तुस्थिति का कुछ भी ज्ञान न था। थोड़े से क्षणिक सुखों की पूर्ति को ही उसने अपने जीवन का उद्देश्य समझा था वह भोग में लिप्त था। इस कारण उसका जीवन दीन भी था। भोग शारीरिक रोग शोक पैदा करने वाले होते हैं उनसे इन्द्रियों की क्षमता नष्ट होती है और मनुष्य वृद्धावस्था तथा मृत्यु की ओर अग्रसर होता है। भोगों से जहाँ शारीरिक व्याधियाँ बढ़ती हैं वहाँ मानसिक चिन्तायें भी बढ़ती हैं। यह चिन्तायें मनुष्य को बन्धनों से बाँधनी और दुःखी करती हैं। पर जैसे ही परमात्मा के शुक्रम् अर्थात् प्रकाश तत्व ने उसके जीवन में प्रवेश किया कि वह साँसारिक भोगों की निःसारता अनुभव करने लगा। अब उसे क्षणिक सुख निरर्थक अनुभव होने लगते हैं और दैवी प्रकाश में अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित करता है। वह देखता है कि जब मुझे केवल सुख और असीम सुख की चाह है, तो मैं इन क्षुद्र वासनाओं के पीछे क्यों भागता फिरूं। ऐसे भी प्रश्न उसके जीवन में उतरते हैं, संसार के गहन रहस्य और जीवन की पारलौकिकता और उसके विचार दौड़ने लगते हैं। यह ज्ञान ही परमात्मा का प्रकाश है। इसे ही उसकी कृपा मान सकते हैं। परमात्मा का यह प्रकाश पाये बिना मनुष्य जीवन का उद्धार भी सम्भव नहीं।

प्रकाश जीव के विकास की प्रारम्भिक अवस्था भी है और अन्तिम भी। प्रारम्भ इसलिये है कि जीवन की शक्तियों का विस्तार यहीं से प्रारम्भ होता है। इस ज्ञान के उदय के साथ ही मनुष्य के अन्तःकरण में आत्म-ज्ञान की तीव्र आकाँक्षा जागृत होती है और चूँकि अन्त में जीव उसी प्रकाश में ही समाधि ले लेता है, यह परम लक्ष्य की अन्तिम अवस्था भी है। इसलिये वेद-शास्त्रों में ज्ञान के महत्व को सर्वोपरि माना गया है और उसके बिना मनुष्य को पशुवत् बताया गया है।

परमात्मा का दूसरा गुण है— अकायम्। वह निराकार है, उसका शरीर मनुष्यों जैसा नहीं अर्थात् वह मनुष्यों जैसा कार्य नहीं करता। उपासक के अन्तःकरण में यह गुण शीघ्र ही चमकता है। अर्थात् परमात्मा का ज्ञान-तत्व प्राण-तत्व जब उसने धारण किया तो उसे सर्व प्रथम अनुभव हुआ कि वह अब तक जिस शरीर को ही संसार सुख और अहंकार की पूर्ति का प्रमुख साधन समझे हुये या यों कहें कि अब तक वह अपने शरीर को ही जीवन भर प्राण समझता था अब उससे उसे विरक्ति होने लगती है। विरक्ति का यह अर्थ नहीं कि वह शारीरिक क्रियायें छोड़ देता है वरन् अब वह इसे साधन या परमात्मा के मन्दिर के रूप में प्रतिष्ठित हुआ देखता है। जो इन्द्रिय लिप्सायें उसे अब तक परेशान किये हुये थीं अब उसने समझा कि इन शारीरिक विकृतियों से उसे परेशान नहीं होना चाहिये। यह शरीर नाशवान है, पंच भौतिक है, कभी भी नष्ट हो सकता है। अतः अब इस पर स्वामित्व कर इसका सदुपयोग किया जाना चाहिये।

इन भावनाओं के उदय के साथ ही उसे प्राण-तत्व या शरीर में प्रतिष्ठित चेतना का अनुभव हुआ और उसने विचार किया कि अपने अदृश्य शरीर— प्राण-शरीर को प्राप्त करना चाहिये। यह प्राण-शरीर निराकार है जो चिन्तन और विचार द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है। सूक्ष्म इन्द्रियाँ ही उसे जान सकती हैं। अतः उसकी मनोवृत्तियाँ अंतर्मुख होने लगीं । वह कायिक हितों से परोन्मुख होकर अपने निराकार स्वरूप का चिन्तन और उसका रहस्य जानने की इच्छा करने लगा।

परमात्मा अव्रणम् है अर्थात् उसे किसी प्रकार के घाव नहीं लगते। घाव मनुष्य के शरीर में ही लग सकते हैं। शास्त्रकार ने बताया है— “ नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।” अर्थात् आत्मा को शस्त्र छेदन नहीं कर सकते आग उसे जला नहीं सकती। जब तक मनुष्य में शरीर भाव था तब तक साँसारिक ताप और शारीरिक कष्ट उसे अप्रिय लगते थे और हर क्षण इनसे छुटकारा पाने का ही प्रयत्न करता था किन्तु अब उसने अनुभव किया कि शारीरिक लालसायें अभी भी ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में उसकी बाधक है अतः इनका उच्छेदन करना चाहिए। यह तप के अर्थ में है। तप को शारीरिक तितीक्षा भी कहते हैं। अर्थात् जान बूझकर शरीर को कष्ट देते हैं जिससे आत्मभाव स्पष्ट होने लगे और जीव-भाव से मुक्ति मिलने लगे।

शरीर को कष्ट देने का तात्पर्य यह नहीं है कि उसे शस्त्रों से छेदा या आग से जलाया जाय वरन् उन तितिक्षाओं को जगाना है जिससे लौकिक सुखों की कामना मर जाय। नियमित जीवन, स्वच्छता, सफाई जप, प्राणायाम, उपवास, कृच्छ-चान्द्रायण, आदि तप कहे गये हैं इनका उद्देश्य आत्मा को तपाना है और उसे परमात्मा में मिलने के अनुरूप शुद्ध और तेजस्वी बनाना है।

किन्तु मनुष्य की युग-युगान्तरों की दमित वासनायें इतने शीघ्र नष्ट नहीं हो जाती। शरीर और मन की यह सफाई ठीक ऐसी ही है जैसी किसी गन्दी नाली में शुद्ध जल डालकर उसकी सफाई की जाती है। सफाई करते समय बहुत दिनों से सतह में जमी हुई गन्दगी की सड़ाँद इतनी तीव्रता से फैलती है कि वह आस-पास वालों का दिमाग बदबू से खराब कर देती है। आत्मोत्थान के विभिन्न साधनों द्वारा भी शरीर में वासनाओं ओर लौकिक कामनाओं की ऐसी सड़ाँद उत्पन्न होती है जो मन को झकझोर कर रख देती है। कुछ क्षण के लिये मन को काबू करना कठिन हो जाता है। इस हलचल की प्रक्रिया को ही अग्नि-दीक्षा या प्राण-दीक्षा के नाम से पुकारा जाता है और उस स्थिति को सम्हालने के लिये किसी योग्य तथा अनुभवी मार्गदर्शक की बड़ी आवश्यकता बताई गई है। परमात्मा का “अस्नाविरम्” गुण इस बात का बोध कराता है कि उपासक परमात्मा की प्राप्ति के लिये जब सन्धान करे तो वह शरीर की चंचलता को हर तरह से रोके । अथवा यह कह सकते हैं कि परमात्मा की ओर अचल भावना से प्रतिष्ठित हुई जीवात्मा शारीरिक चंचलता, इन्द्रियों की भड़कन या मनोविकारों से प्रभावित नहीं होती है।

परमात्मा नित्य शुद्ध है वह अपने उपासक में पाप कैसे देख सकता है। दूध में शुद्ध जल मिल सकता है, गन्दा जल तो उसके स्वरूप को ही बिगाड़ देता है। अग्नि में लोहा डाला जाता है तो वह भी अग्नि वर्ण हो जाता है। परमात्मा अपने भक्त के पापों का इसी प्रकार संहार कर उन्हें नष्ट करता है। यही बात उपासक की ओर से भी होती है। वह अनुभव करता है कि पाप पूर्ण जीवन बिता कर परमात्मा को पाना सम्भव नहीं, वैसे ही पुराने पापों का फल पाये बिना भी उसकी सिद्धि सम्भव नहीं। इन दोनों स्थितियों में सन्तुलन रखकर वह अपने पापों का धैर्य पूर्वक प्रच्छालन करता है और परमात्मा में मिल जाने की योग्यता प्राप्त करने में संलग्न रहता है।

विचारों से भावनाओं की शक्ति बड़ी मानी गई है। परमात्मा मनीषी भी है और कवि भी । कविता आत्मा की सर्वव्यापकता की अभिव्यक्ति है। आत्मा जब विकसित होती है तो सारे संसार के सुख दुःख में वह अपना सुख दुःख अनुभव करने लगती है। यह गुण ईश्वर उपासक में भी उसी रूप में जागृत होता है। उसमें भी दया, प्रेम, त्याग, उदारता, सद्व्यवहार, सहानुभूति और कष्ट सहिष्णुता जैसी कवि-भावनायें जागती हैं। अपने स्वार्थों का परित्याग कर उसे परमार्थ में विशेष आनन्द आने लगता है। संसार में जितने भी संत-भक्त हुये हैं उन्होंने मनुष्य की सेवा को ही परम धर्म बताया ही ऐसा तभी सम्भव हुआ जब परमात्मा की उपासना के फलस्वरूप उनका कवि-गुण- भावनायें जागृत हुई। इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि बाल्मीकि, अजामिल और सदन जैसे कठोर और दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों ने जब ईश्वर की शरण ग्रहण की तो वे इतने सदय हृदय हुये कि मानवता की सेवा में ही अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया।

विचार और भावनाओं की सर्वोच्चता में पहुँचने पर उपासक भगवान की “परि-भू” शक्ति का रसास्वादन करता है। ईश्वर सर्वव्यापी है, परिभू है। संसार के कण-कण में उसकी सत्ता समा रही है। पहाड़, नदियाँ, सागर, वृक्ष, वनस्पति, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र सब उसी के बनाये हुये हैं। सर्वत्र उसी का प्रकाश भर रहा है। कण-कण में, रज-रज में वही खेल खेल रहा है। जल, थल, नभ ऐसा कोई भी स्थान नहीं जो परमात्मा से रिक्त हो। यह विराट् जगत उसी का स्वरूप है। एक-एक जिनके पर उसकी दृष्टि है किसी का व्यवहार उससे छुपा हो यह सम्भव नहीं, उस आँख से कोई बचकर नहीं जा सकता, कोई भी व्यक्ति बुरी बात करे और वह उसे सुन ले ऐसा कभी सम्भव नहीं। उपासक परमात्मा की इस सर्व व्यापकता की अनुभूति प्राप्त कर आनन्द-विभोर हो जाता है। वह अपने आपको भी उसी अविनाशी तत्व में विलीन हुआ सर्वव्यापक सत्ता के रूप में देखता है, स्वयं भी सर्वव्यापक हो जाता है।

परमात्मा सर्व शक्तिमान भी है। उसकी व्यवस्था बड़ी विशाल बड़ी अनोखी है। संसार के सब कर्मों की वह देख-रेख करता है। कर्म का फल भी वही देता है। रक्षा, पालन और विनाश भी वही करता है। पर वह यह सब अलिप्त, निर्विकार भाव से किया करता है। संसार के कल्याण की दृष्टि से ही उसने अपनी शक्तियाँ विकसित की है और उनका लाभ भी वह सारे संसार को देता रहता है। ईश्वर का अंचल पकड़ने वाला भी अन्त में परमात्मा की यह महान् विभूति प्राप्त कर अलिप्त निर्विकार और जीवन मुक्त हो जाता है। मनुष्य शरीर में ही वह परमात्मा की सिद्धियों और शक्तियों का रसास्वादन करता हुआ अन्त में उसी सुख स्वरूप, तेजस्वी दुःख का नाश करने वाले परमात्मा के दिव्य प्रकाश में विलीन हो जाता है।


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