प्रातःभ्रमण—एक उत्तम व्यायाम

May 1966

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स्वस्थ रहने के लिये व्यायाम बहुत आवश्यक है। व्यायाम से सारे शरीर-संस्थान में एक हलचल होने लगती है, जिससे अवयव विशेष रूप से सक्रिय हो उठते हैं। उनमें एक गर्मी पैदा हो जाती है, जिससे वे सक्षम, तेजस्वी और सुडौल बने रहते हैं। शरीर की संतुलित स्थिति ही स्वास्थ्य का लक्षण है।

मनुष्य जब व्यायाम करता है, तब उसके शरीर के विकार तथा विजातीय तत्व पसीने के साथ शरीर के बाहर बह जाते हैं, जिससे शरीर में एक ताजगी, चेतना तथा स्फूर्ति की अभिवृद्धि होती है। मन प्रसन्न रहता है और काम करने में खूब जी लगता है।

व्यायाम के समय अवयवों का आन्दोलन तथा ऊष्मा शरीर के अन्दर स्थान-स्थान पर रुके हुए अवाँछित तत्वों को द्रवित करके बाहर खदेड़ देती है। इस प्रकार रोज व्यायाम करते रहने से हमारी पाचक क्रिया ठीक रहती है, जो कुछ खाया जाता है, वह ठीक तरह से पच जाता है। ठीक समय पर पूरे शौच की आसानी रहती है। खुलकर सच्ची भूख लगती है, जो अगले भोजन के लिये रुचि तथा जीर्णता के लिये सहायक होती है। इस प्रकार ठीक भूख लगने और सुपच रहने से शरीर में अवाँछित तत्वों तथा विकारों के पैदा होने और रुकने की सम्भावना नहीं रहती और यदि किसी कारणवश वह पैदा हो जाते अथवा रुकते हैं तो व्यायाम की क्रिया उन्हें रोज बाहर कर देती है। इस प्रकार जब शरीर की नित्य ही सफाई होती रहेगी तो किसी रोग का भय नहीं रहता और आरोग्य ही वास्तविक स्वास्थ्य है। इसलिये स्वस्थ एवं समर्थ बने रहने के लिये मनुष्य को नियमित रूप से व्यायाम करते रहना चाहिए।

व्यायाम का अर्थ एक व्यवस्थित शारीरिक श्रम ही है। जो लोग दिन में आठ-दस घण्टा शारीरिक श्रम करते हैं, उनके लिये कहा जा सकता है कि व्यायाम की आवश्यकता नहीं है। जहाँ तक शारीरिक श्रम तक व्यायाम की परिभाषा है, वहाँ तक तो ठीक है कि शरीर-श्रमिक को व्यायाम करने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु जहाँ तक व्यायाम की भावनात्मक परिधि है, वहाँ तक व्यायाम क्या शरीर श्रम करने वाले और क्या न करने वाले के लिये आवश्यक है?

जो दिनभर मेहनत-मजदूरी करके जीविका कमाते रहते हैं उनका शरीर हलचल का लाभ जरूर उठाता है, किन्तु व्यायाम से सम्बन्धित जो स्वास्थ्य लाभ का भावनात्मक विश्वास है, उसका लाभ उन्हें नहीं हो पाता। स्वास्थ्य लाभ के लिये यह भावनात्मक विश्वास बहुत आवश्यक है। यह जरूर है कि शारीरिक श्रम करने वाले बौद्धिक श्रम करने वालों की अपेक्षा कम अस्वस्थ रहते हैं, तब भी स्वास्थ्य सम्बन्धी भावनात्मक विश्वास न रहने से वे पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं रह पाते। कभी थकान अनुभव तो कभी अधिकता की शिकायत करते हैं। इस प्रकार श्रम में भावनात्मक विश्वास की कमी रहने से मानसिक रूप से तो वे स्वस्थ नहीं रहने पाते। व्यायाम से प्राप्त स्वास्थ्य और स्वास्थ्य से प्राप्त प्रसन्नता से वे बहुधा वंचित ही रहते हैं। इसीलिये प्रायः श्रमिकों में उस मानसिक माधुर्य का दर्शन नहीं होता, जो एक स्वस्थ व्यक्ति में होना चाहिये। स्वास्थ्य के भावनात्मक विश्वास के लिये बौद्धिक ही नहीं, शारीरिक श्रम करने वालों को भी कुछ न कुछ व्यायाम करते ही रहना चाहिए।

व्यायाम के अनेक प्रकार हो सकते हैं। दण्ड-बैठक लगाना, खेलना कूदना, दौड़ना भागना, कुश्ती लड़ना डम्बल, लेजम, लाठी आदि उठाना, घुमाना। किन्तु इस प्रकार के व्यायाम अधिकतर उन्हीं लोगों के लिये उपयुक्त रहते हैं, जिनको दिन में कुछ अधिक काम न करना हो। यह व्यायाम—भारी व्यायाम हैं। इनसे शरीर पर अधिक दबाव पड़ता है और अधिक थकान आती है। जिसे पूरा करने के लिये अधिक विश्राम तथा अधिक पौष्टिक भोजन की आवश्यकता पड़ती है। यदि ऐसा न किया जायेगा तो शरीर में थकान भरी रहेगी, शिथिलता बनी रहेगी, जिससे स्फूर्ति के बजाय जड़ता की वृद्धि होगी, जो कि स्वास्थ्य के लिये यह अहितकर लक्षण होगा।

यह सत्य है कि टहलना एक उत्तम तथा हर प्रकार से स्वास्थ्य दायक व्यायाम है। व्यायाम की भावना के साथ जब भ्रमण किया जाता है, तब शरीर तो निरन्तर सक्रिय रहता है, भावना भी काम करती रहती है, जिससे अपना ही आत्म-विश्वास स्वास्थ्य बन बनकर मन तथा शरीर में संचय होता रहता है।

केवल किसी भी समय कुछ दूर पैदल चल लेने की जगमाता ही वह व्यायाम क्रिया नहीं है, टहलने के रूप में जो स्वास्थ्य के लिये आवश्यक कही जा सकती है। टहलने की भी एक सीमा, समय, स्थान तथा विधि है। इन नियमों के निर्वाह के साथ ही वास्तविक अपेक्षित लाभदायक हो सकता है, अन्यथा यों ही खाली घूमते-फिरते रहने से कोरी थकान ही अधिक हाथ आयेगी, व्यायाम का वास्तविक लाभ कम से भी कम।

टहलने अथवा भ्रमण करने के लिये सबसे उपयुक्त समय है, प्रभात का—उषा काल। यह प्रत्यूष काल वैदिक काल से लेकर आज के भौतिक-काल तक अमृत-बेला कहा जाता है। जिस समय सूर्य की शिशु-किरणें अन्तरिक्ष में पूरा जन्म न पा सकी हों, केवल पूर्व में लालिमा के रूप में उनका आभास भर ही भासित हो रहा हो, वही उषाकाल कहा जाता है और यही वह अमृत-बेला होती है, जिसमें टहलने का विधान दिया गया है। जन्मोन्मुख प्रातःकाल की सूर्य-किरणों में वे वैज्ञानिक तत्व रहा करते हैं, जिनमें रोग-नाशक तथा जीवन दायिका शक्ति होती है। साथ ही प्रातःकाल का वायु अपने साथ निर्विकार औषधि-तत्व लेकर संसार में फैलने के लिये चला करता है। रात्रि के शान्त वातावरण में प्रकृति जिस स्वास्थ्य दायक सम्पत्ति को संचय करती है, उसका कोष प्रातःकाल प्राणि-मात्र के लिये खोल देती है, ऐसे समय में जो निरालसी व्यक्ति उसके संपर्क में जाते हैं, वे सबसे अधिक अंश पाते हैं। अन्यथा दिन निकल आने पर कुछ तो सूर्य की किरणें प्रकृति के ऐश्वर्य का शोषण कर लेती हैं, कुछ निकल पड़ने वाली भीड़भाड़ में थोड़ा-थोड़ा बँट जाता है और कुछ यातायात आदि के धूल-धक्कड़ से विकृत हो जाता है। इसलिये प्रकृति-माता का विशुद्ध तथा अधिक से अधिक प्रसाद पाने के लिये उषा की अमृत-बेला के समय ही टहलने जाना चाहिए।

टहलने की एक सीमा भी रखना आवश्यक है। यह नहीं होना चाहिए कि कभी तो मौज में आकर दूर-दूर तक भ्रमण कर आये और कभी थोड़ी दूर ही जाकर वापिस आ गये। अपनी शारीरिक क्षमताओं, समय तथा सुविधा के अनुसार टहलने के लिये उतनी ही दूरी रखनी चाहिये जिसका नियमित निर्वाह हो सके और जिससे शरीर से आवश्यक शिथिलन तथा हलचल पैदा हो सके। कभी ज्यादा और कभी कम टहलने से सन्तुलित व्यायाम की कमी रहेगी, जिससे अपेक्षित स्वास्थ्य लाभ की आशा कम रहती है।

टहलने के विधि-विधान में तीन बातें बहुत आवश्यक हैं। अपेक्षाकृत तेज चलना इस प्रकार कि सारे शरीर की गर्मी दौड़ती रहे, यथा सम्भव नंगे पैर और शरीर पर अनावश्यक कपड़े न पहने हुए। तीसरी मुख्य बात यह कि टहलते समय सारी चिन्तायें तथा विकृत भावों को त्याग कर प्रकृति के साथ एकाग्र रहना चाहिए।

तेज चलने से जहाँ शरीर में हलचल होगी, गहरी श्वाँसों के साथ वायु का आक्सन तत्व अधिक से अधिक प्राप्त होगा। शरीर में चपलता तथा स्फूर्ति का समावेश होगा। गर्मी तथा पसीने के साथ शरीर के विकार बाहर निकलेंगे। नंगे पैर तथा कम कपड़े पहनकर टहलने से पृथ्वी का विद्युत-तत्व तलवों के जरिये पूरे शरीर में प्रवेश करेगा। कम कपड़ों से उषा का अमृत तथा वायु का गुण शरीर में अधिक से अधिक प्रवेश करेगा, जिससे शरीर निर्विकार तथा पुष्ट होगा।

प्रकृति के साथ तन्मय होकर निश्चिंत तथा निर्विकाम होकर घूमना सबसे अधिक लाभदायक है, इससे विचार शुद्ध होगा, आत्मा उन्नत होगी, मन प्रसन्न रहेगा और पवित्रता आयेगी। विचारों की पवित्रता स्वयं एक स्वास्थ्य दायक रसायन है।

इस प्रकार शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक स्वास्थ्य के लिये आबाल, वृद्ध, नर नारी को प्रातःकाल विधि-विधान के साथ अवश्य ही भ्रमण-व्यायाम करना चाहिए, इससे केवल स्वास्थ्य-लाभ ही नहीं होता, आयु भी बढ़ती है।


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