स्वस्थ मनुष्य के चित्त के लिए प्रसन्नता वैसी ही प्राकृतिक है जैसा उसके गालों पर लाली, और जहाँ कहीं स्वाभाविक म्लानता होती है, वहाँ या तो दूषित वायु, अस्वास्थ्यकर भोजन, अनुचित रूप से कठिन परिश्रम होता है या भूल से भरी जीवन चर्चा।
—रस्किन