“मन के हारे-हार है, मन के जीते-जीत”

May 1966

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कहा गया है कि — “मन के हारे—हार है, मन के जीते-जीत” यह साधारण-सी लोकोक्ति एक असाधारण सत्य को प्रकट करती है और वह है मनुष्य के मनोबल की महिमा। जिसका मन हार जाता है, वह बहुत कुछ शक्तिशाली होने पर भी पराजित हो जाता है और शक्ति न होते हुए भी जो मन से हार नहीं मानता, उसको कोई शक्ति परास्त नहीं कर सकती ।

मनुष्य की वास्तविक शक्ति मनोबल ही है। मनोबल से हीन मनुष्य को निर्जीव ही समझना चाहिए। संसार के सारे कार्य शरीर द्वारा ही सम्पादित होते हैं, किन्तु उसका संचालक मन ही हुआ करता है। मन का सहयोग पाये बिना शरीर-यन्त्र उसी प्रकार निष्क्रिय रहा करता है, जैसे— बिजली के अभाव में सुविधा- उपकरण अथवा मशीनें आदि।

बहुत बार देखा जा सकता है कि साधन-शक्ति तथा आवश्यकता होने पर भी जब मन नहीं चाहता तो अनेक कार्य बिना किये पड़े रहते हैं। शरीर के अक्षत रहते हुए भी मानसिक सहयोग के बिना कोई काम नहीं बनता। और जब मन चाहता है तो एक बार रुग्ण शरीर भी कार्य में प्रवृत्त हो जाता है। जो काम मन से किया जाता है वह अच्छा भी होता है और जल्दी भी। बेमन किये हुए काम न केवल अकुशल ही होते हैं, बल्कि बुरी तरह शिथिल भी कर देते हैं। मनोयोग रहने से मनुष्य न जाने कितनी देर तक बिना थकान अनुभव किये कार्य में संलग्न रहा करता है, किन्तु मन के उचटते ही जरा देर भी काम करने में मुसीबत आ जाती है। इस प्रकार देखा जा सकता है कि मनुष्य का वास्तविक बल— मनोबल ही है।

मनोबल के इस उत्थान-पतन से घटित होने वाले न जाने कितने परिवर्तन इतिहास में भरे पड़े हैं? सिकंदर जीता और पोरस हार गया। यह मोटा-सा ऐतिहासिक सत्य है। किन्तु यदि गहराई से देखा जाये तो तथ्य इसके विपरीत है—विजयी होते हुए भी सिकन्दर हारा और विजित होते हुए भी पोरस जीता। पोरस बन्दी हुआ, उसकी सेनाओं ने तलवारें नीची करलीं — यह शारीरिक हार थी। पर पोरस मन से नहीं हारा— यह सच्ची जीत थी। सिकन्दर के पूछने पर पोरस का यह उत्तर कि “ एक राजा जो व्यवहार दूसरे राजा से करता है।”— उसकी मानसिक पराजय थी, जिसे सिकन्दर को मान्यता देनी पड़ी और इतिहास को स्वीकार करना पड़ा कि पोरस हार कर भी नहीं हारा और सिकन्दर जीत कर भी जीता।

यह महान् सेनानियों, सम्राटों, महापुरुषों तथा योद्धाओं की बात रही। इनको लोग विशेष व्यक्ति कहकर मनोबल की बात को हल्का कर सकते हैं। सामान्य जनता के मनोबल के चमत्कार देखने के लिये गत विश्वयुद्ध के दौरान होने वाली दो-एक घटनाओं का स्मरण किया जा सकता है।

हिटलर ने हाहाकार मचा रक्खा था। उसका लक्ष्य तो पूरा विश्व था, किंतु इंग्लैंड विशेष लक्ष्य बना हुआ था। उसके आक्रमण से ‘इंग्लैंड अब गया, तब गया’ की स्थिति आ गई थी। किन्तु वहाँ के राजनेता भले ही एक बार विचलित हो उठे हों, लेकिन जनता ने अपने मनोबल को नहीं खोया था। इसका प्रमाण यह है कि जिस समय डंकर्क के मोर्चे से ब्रिटेन की लगभग तीन साढ़े-तीन लाख सेना भागी थी, उस समय उसकी अधिकाँश युद्ध-सामग्री भी वहीं छट गई और इंग्लैंड की सेना शक्ति-साधन तथा शस्त्र विहीन हो गई। नौबत यहाँ तक आ पहुँची कि शत्रु को भ्रम में डालने के लिये खजूर के पेड़ कोलतार से रँग-रँग कर लन्दन के चारों ओर तोपों के स्थान पर लगाये गये थे।

अब प्रश्न यह था कि निःशस्त्नता की पोल खुलने से पहले ही सेनाओं को साधन एवं शस्त्र सम्पन्न कर दिया जावे। यह काम इंग्लैंड की नागरिक जनता का था। हार पर हार हो रही थी, सैन्य-सामग्री समाप्त हो गई थी, हिटलर के हमले पर हमले हो रहे थे।

ऐसी दशा में जनता के हाथ-पैर फूल जाना कोई बड़ी बात नहीं थी। किन्तु इंग्लैंड की मनोधनी जनता ने अपना मनोबल नहीं खोया। वह हर भय, आपत्ति तथा खतरों की ओर से निरपेक्ष होकर अपने काम में दिन और रात जुट गई। इस हद तक जुट गई कि एक बार प्रधान मन्त्री विंस्टन चर्चिल एक कारखाना देखने गये तो किसी ने उनका अभिवादन करने तक में समय खराब करना उचित न समझा। प्रधान मन्त्री कारखाना घूम कर बाहर आये और पत्रकारों को बताया कि जिस इंग्लैंड की जनता का मनोबल इतना ऊँचा है और जो अपने कर्तव्य को ठीक-ठीक समझ कर पूरा करने में इतनी ईमानदार है, उस ग्रेट-ब्रिटेन को एक हिटलर क्या हजार हिटलर भी परास्त नहीं कर सकते। और कुछ ही समय बाद इंग्लैंड जीता और हिटलर की हार हुई। यह विजय किसकी थी— सैनिकों की ? नहीं यह इंग्लैंड की जनता के मनोबल की विजय थी।

दूसरी घटना फ्राँस की है। जनरल पेताँ ने पेरिस में मोह में आकर मनोबल खो दिया और बिना हारे ही झण्डा झुका दिया। फ्राँस की स्वतन्त्रता-प्रिय स्वाभिमानिनी जनता ने अपने इस निकृष्ट कल्याण को अकल्याण माना। उसने जनरल पेताँ का बहिष्कार कर दिया और जनरल दिगाल को नेता बनाया। पेरिस का पतन हो चुका था, किन्तु वहाँ की जनता सुलभ साधनों को लेकर जंगलों तथा पर्वतों में फैल कर गुरिल्ला युद्ध करने लगी। उसने अपनी स्वतन्त्रता को सेना तथा सेना-नायकों पर निर्भर नहीं रहने दिया। भूखी-प्यासी फ्राँस की जनता इस मनोबल से लड़ी कि आखिर हिटलर को लेने के देने पड़ गये। फ्राँस स्वतन्त्र हुआ और पेरिस पर फिर राष्ट्र-ध्वज फहराने लगा। यह विजय किस की थी फ्राँस की उस जनता के मनोबल की, जिसके नेता विजय की आशा छोड़ बैठे थे।

एक घटना रूस की है। जहाँ की मनोधनी जनता ने मनोबल का रोमाँचकारी उदाहरण उपस्थित किया है। एक दिन रात के दो बजे हिटलर ने धोखे से रूस पर आक्रमण कर दिया और उसी फौजें रूस में दूर तक घुस कर मास्को तथा लेनिनग्राड तक पहुँच गई। लगभग पूरे योरोप के बर्बर विजेता हिटलर की फौजें असावधान रूस पर टूट ही नहीं पड़ी, प्रमुख राज-नगरों में पहुँच गई। संयोग की भयंकरता से रूसी जनता में भगदड़ मच जानी चाहिए थी, किन्तु नागरिकों ने हिम्मत न हारी। वह गली-गली, सड़क-सड़क, कूँचे-कूँचे, घर-द्वार, हाट-वाट दुश्मन से जूझ पड़ी। उसके शस्त्र— लाठी, डण्डा, भाला, बल्लप, मुँह-हाथ, प्याले-प्लेट, मेज-कुर्सी आदि बन गये। मास्को तथा लेनिनग्राड की गलियाँ खून और लाशों से भर गई लगभग डेढ़ करोड़ रूसी जनता काम आई, जिसमें से छः लाख वे बलिदानी नागरिक थे, जिन्होंने अपना पूरा राशन सेना को दे दिया था और खुद भूख से तड़प-तड़प कर प्राण दे दिये थे। इसका फल यह हुआ कि रूस के लेनिनग्राड तथा मास्को की भूमि से हिटलर की फौजें वापिस न आई और वहीं से हिटलर की पराजय प्रारम्भ होकर जर्मनी की बरबादी तक पहुँची। यह विजय किस की थी? रूसी फौजों, नेताओं की अथवा लाठी-डण्डों, प्याले प्लेट आदि अस्त्रों की? सर्वथा नहीं, यह विजय थी—रुस की जनता के महान् मानसिक बल की, जो कि उस अन्तक आपत्ति में भी यथावत बना ही नहीं रहा, बल्कि और अधिक बढ़ गया।

रूस, इंग्लैंड तथा फ्राँस की जनता ही नहीं, अभी के चीनी आक्रमण तथा पाकिस्तान के युद्ध में भारतीय जनता ने जिस मनोबल को परिचय दिया, उससे न केवल देश की रक्षा ही हुई, बल्कि संसार में भारत का मान ऊँचा हो गया।

इस प्रकार कहना होगा कि युद्ध से लेकर नित्यप्रति की सफलताओं में मनोबल ही काम किया करता है। मनोधनी व्यक्ति बड़ी से बड़ी आपत्तियों को जीत कर अपना मार्ग बना लेता है। कोई साधन न होने पर भी मानसिक बल के विश्वासी कभी किसी परिस्थिति से परास्त नहीं होते। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह बड़ी से बड़ी और विकट से विकट परिस्थिति में भी अपना मनोबल न जाने दे और सदैव याद रक्खें—” मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।”


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