धन-कुबेर राकफेलर—जिन्हें अपनी दिशा बदलनी पड़ी।

May 1966

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मनुष्य कई तरह के आत्मिक, बौद्धिक, शारीरिक एवं सामाजिक शक्तियों का विकास करता है, तब कहीं स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण कर पाता है। एकांगी विकास से मनुष्य जीवन का वास्तविक अर्थ सिद्ध नहीं होता। कई बार तो वह मनुष्य के पतन का कारण भी बन जाता है। अकेले स्वास्थ्य के निर्माण में तन्मय रहकर मनुष्य आजीविका, शिक्षा एवं पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता, तो केवल बौद्धिक प्रगति में लगे रहने से स्वास्थ्य आदि का क्षेत्र अधूरा रह जाता है। प्रकृति अद्भुत रीति से विभक्त होकर सृष्टि की संचालन व्यवस्था को बनाये रखती है। मनुष्य का जीवन भी उसी प्रकार अनेक क्षेत्रों में विभक्त है। उनमें से सभी क्षेत्र आवश्यक, सभी महत्वपूर्ण हैं। सभी क्षेत्रों में प्रगति करने वाला मनुष्य ही पूर्ण अध्यात्मवादी कहा जा सकता है, एकांगी विकास तो साँसारिक सुख प्रदान करते रहने में भी पूर्ण समर्थ नहीं है।

धन-कुबेर राकफेलर का जीवन-क्रम इस वस्तु स्थिति को पूरी तरह सिद्ध कर देता है। उन्होंने 53 वर्ष की अवस्था तक विशुद्ध रूप से केवल अर्थ-उपासना की। धन, बहुत धन, अथाह और अपार धन की लिप्सा ने उन्हें इस तरह जकड़ा कि बेचारे आधी उम्र भी न गुजार पाये थे कि उनका शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था।

प्रति सप्ताह बीस लाख डालर की कमाई करने वाले राकफेलर को दूध और रोटी के टुकड़े पचा लेना भी दुस्तर हो गया था।

धन से उन्हें इतना मोह हो गया था कि जरा-सा नुकसान भी उन्हें सहन न होता था, ऐसा कोई समाचार उन्हें सुनने को मिल जाता तो बेचारों का बुरा हाल हो जाता था, बुखार आ जाता, बीमार पड़ जाते। रात में नींद न आना तो स्वाभाविक बात हो गई थी। आरम्भ में राकफेलर बड़े स्वस्थ थे। 23 वर्ष की उम्र में जब तक कि ‘स्टैर्ण्डड वेकुअम आइल कम्पनी’ के मालिक न बने थे, ऐसे झूमते हुए चलते थे कि हाथी भी उनकी मस्ती के आगे शरमा जाय। खूब हँसी-खुशी का, मस्ती का जीवन था, पर जैसे-जैसे उनका धन का स्वामित्व बढ़ता गया, भोग, रोग और दुश्चिंताओं ने उनके सारे शरीर को खोखला करना शुरू कर दिया। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि केवल सिगरेट और काफी के अतिरिक्त और कुछ पचा लेना उनके लिये हराम हो गया। जीवित रहने के लिये कैप्सूल और इन्जेक्शन ही मात्र सहारे रह गये थे।

अथाह धन होते हुए भी ऐसा क्यों हो गया? यह एक प्रश्न है। इसका एक ही उत्तर है कि उन्होंने जीवन के अन्य क्षेत्रों की और बढ़ने की कभी इच्छा नहीं की, प्रारम्भ में धन की अधिकता ने उन्हें भोगवादी बना दिया। आहार-विहार की अनियमितता के कारण उनके शरीर का जीवन-तत्व निचुड़ता गया, पर इन्होंने कभी अपने स्वास्थ्य की ओर ध्यान नहीं दिया।

चिन्ता के मानसिक बोझ ने उनकी रही-सही शक्तियों को भी बर्बाद कर दिया। एक बार की घटना है—इन्होंने लगभग 50 हजार डालर के अनाज से भरा हुआ एक जहाज भेजा, जिसे ग्रेजलेक्स से होकर जाना था। इनका दूसरा साझीदार ज्योर्ज गार्डनर था। उसने सलाह दी जहाज का बीमा करा लेना चाहिए, पर इसमें 150 डालर का बीमा खर्च देना पड़ता था। राकफेलर उसके लिए तैयार न हुए। रात को लेक्स में भारी तूफान आ जाने से जहाज संकट में फँस गया। यह खबर राकफेलर को मिली तो वे बुरी तरह डर गये, चिन्ता से मुँह पीला पड़ गया। सारी रात पलक नहीं मूँदी। प्रातःकाल गार्डनर को किसी तरह अब भी बीमा करवाने के लिये दौड़ाया। बीमा हो गया, बीमे की रसीद कट कर आ गई। इधर यह भी खबर आ गई कि जहाज सकुशल यथा-स्थान पहुँच गया, बस राकफेलर महोदय को डेढ़ सौ डालर का इतना दुःख हुआ कि चारपाई पकड़ ली। हफ्तों इन्जेक्शन दिये गए, तब कहीं दुबारा काम करने योग्य हो पाये।

अनियन्त्रित आकाँक्षा एक व्यक्ति को ही नहीं, सारे समाज को दुःख देती है। “पुअर मैन्स एडवोकेट” के लेखक का यह कथन—”हजार गरीबों से एक-एक टुकड़ा छीनकर एक बड़ा धनवान् बनता है”—राकफेलर के जीवन में अक्षरशः सत्य साबित हुआ। धन की वासना इतनी बढ़ी कि उसने अपने मजदूरों का शोषण करना शुरू किया। उचित-अनुचित सभी तरह के निन्दित कार्य करने में भी उन्हें जरा भी आत्म-ग्लानि न हुई। उनके पुतले जलाये गये। पेनसिलेविया के तेल क्षेत्रों में मजदूरों ने उन्हें मार डालने तक की धमकी दी, पर उन्हें तो धन चाहिये था। लोगों की धमकियों, गालियों और धमकियों से भरे पत्रों ने एक बार फिर से उन्हें बिस्तर से जा चिपकाया। इस बार भी वे मरणासन्न स्थिति से ही किसी प्रकार वापिस लौटे।

आमोद-प्रमोद, खेल-कूद, इष्ट-मित्र आदि भी संसार में होते हैं—राकफेलर ने यह कभी नहीं जाना। उनके एक मित्र ने कई हजार डॉलर से एक सुन्दर नाव बनवाई, एक दिन राकफेलर को सैर करने के लिए निमन्त्रण भेजा, पर उत्तर में “नाही” कर दी गई। बेचारा दूसरे दिन स्वयं आया और सैर करने के लिये आग्रह करने लगा। राकफेलर ने उसे बुरी तरह आड़े हाथों लिया—”तुम्हारे पास खेल-कूद ही है या और कुछ, जाओ हमारे पास बेकार के कामों के लिये समय नहीं।”

तिजोरियाँ भर गई, पर मित्रों की संख्या समाप्त हो गई। चिन्ताओं का बोझ बढ़ गया, इधर सहयोगियों, स्वामी भक्तों, शुभ-चिन्तकों का बिल्कुल अभाव हो गया। इस बार वह बीमार पड़े तो जीवित बचने की कोई अभिलाषा न रही। डॉक्टरों ने अथक परिश्रम किया, करोड़ों रुपये खर्च हुए, तब कहीं जाकर हालत सुधरी, पर इस बार डॉक्टरों ने स्पष्ट बता दिया कि यदि उन्होंने अपना जीवन-क्रम नहीं बदला तो अब उनका दुबारा जीवित बच सकना बिल्कुल असम्भव होगा।

मनुष्य कितना ही क्षुद्र और अधोगामी हो, उसका दृष्टिकोण बदल जाय तो वह कुछ से कुछ बन सकता है। डाकू बाल्मीकि का दृष्टिकोण बदला तो वे महर्षि वाल्मीकि बन गये, सदन कसाई परम-भक्त, गणिका-ब्रह्मवादिनी तथा अंगुलिमाल जैसा क्रूर दस्यु प्रतापी बौद्ध भिक्षु हुआ। एक बार जीवन का ध्येय बदल जाने से वह राकफेलर, जिसे 53 वर्ष की आयु में जीने की कोई सम्भावना न शेष रही थी, जो रोटी का एक टुकड़ा भी न पचा सकता था, वह 98 वर्ष की अवस्था तक जिया, कष्ट और तकलीफ से नहीं, प्रसन्न, प्रफुल्ल और सन्तुष्ट रहकर। खूब खाना खाने लगा। राकफेलर को गहरी नींद आने लगी, चारों तरफ सुख ही सुख बिखर गया।

यह सब तब सम्भव हुआ, जब उसके मस्तिष्क में यह बात आई कि धन ही सब कुछ नहीं है। स्वार्थों में ही जीवन को नष्ट कर दिया जाय तो मनुष्य-जीवन की विशेषता क्या रही? जिस मायावी धन ने स्वयं को सुखी न रहने दिया था, उसकी आसक्ति के कटु परिणामों का एक बार बोध हो गया तो राकफेलर ने अपने जीवन की दिशा ही बदल दी। विनाश की ओर बढ़ते हुए कदम विकास की ओर मुड़ गये। पतन के गर्त की ओर जाने की अपेक्षा अब उसने निर्माण को अपना जीवन-लक्ष्य चुन लिया था।

राकफेलर वही था, पर अब उसके विचार बदल गये थे, पहले जैसा व्यवहार न था उसका। प्रातःकाल वह कारखाने में जाता तो हर मजदूर से उनके कष्ट और दुःख पूछता और उनकी मदद करता। अमेरिका में कोई भी नेक कार्य राकफेलर के रहते आर्थिक अभाव के कारण रुकने न पाया। “राकफेलर-फाउण्डेशन” नाम का कोष जो अन्तर्राष्ट्रीय हित के लिए स्थापित किया गया था, पेन्सिलीन आदि बहुमूल्य औषधियाँ जो आज हजारों व्यक्तियों को जीवन दान देती हैं, उसी संस्था के नेक कार्यों में से है। यह सब राकफेलर की उदारता और परोपकार वृत्ति के कारण ही सम्भव हुआ।

अब वह प्रतिदिन सायंकाल मैदान की ओर निकल जाता। गोल्फ खेलता, मित्रों से मिलता, सबके सुख-दुःख में सच्चे हितैषी की तरह शामिल होता। धन की चिन्ता छोड़ दी। व्यायाम करने से शरीर की शक्तियाँ पुनः लौट आई। त्याग वृत्ति से मानसिक दुश्चिन्ताओं का बोझ भी हल्का पड़ गया, फलस्वरूप उसे पूरी तरह नींद आने लगी और जीवन सुखपूर्वक बीतने लगे।

पिछले जीवन में जो गलतियाँ हो गई थीं, वह अब भी सामने आती थीं, पर निर्द्वन्द्व राकफेलर को उनसे कोई घबराहट नहीं होती थी। कठिन से भी कठिन परिस्थितियों में वह अपना धैर्य नहीं छोड़ता था। अनुचित कर्म की सजा भोगने से उसे दुःख नहीं हुआ, वरन् उससे उसे आत्म सन्तोष ही हुआ।

एक घटना उस समय की है, जब ‘स्टैर्ण्डड आयल कम्पनी’ पर अमरीकी सरकार ने एकाधिकार कायम कर लेने पर मुकदमा चला दिया। राकफेलर ने उसमें बड़े-बड़े बैरिस्टरों को पैरवी में नियुक्त किया। एक से एक कानूनी विशेषज्ञों की सलाह ली गई, पर अन्तिम नतीजा कुछ ठीक न निकला। राकफेलर मुकदमा हार गये और उन पर भारी जुर्माना कर दिया गया। यह बात अभी केवल वकीलों को ही मालूम थी। राकफेलर तो निश्चिन्त होकर अपने बँगले की सैर कर रहे थे। वकीलों को सूझ नहीं रहा था, आखिर राकफेलर को इस परिणाम से कैसे अवगत कराया जाए? सबके मन में एक बात पक्की तौर पर बैठ गई थी कि यह समाचार सुनकर उसकी हृदय-गति अवश्य ही रुक जायगी और जैसा कि वह अपने पूर्व के जीवन में धनासक्त था, वैसा ही अब भी रहा होता तो वकीलों का यह अनुमान गलत भी न होता।

वकील ने डरते-डरते सुनाया— आप मुकदमे में हार गये हैं, कहीं ऐसा न हो, आप अपनी मानसिक शान्ति खो बैठें। राकफेलर ने जबाब दिया— “आप घबड़ाइये नहीं, इस समाचार से मुझे जरा भी दुःख नहीं हुआ, मेरा मानसिक सन्तुलन ठीक है, मुझे रात में पूरी नींद आ जायेगी।” वकील राकफेलर के इस तरह के उत्तर से अवाक् रह गये। उन्हें स्वप्न में भी ऐसी आशा न थी, वे अब भी उसे वही राकफेलर समझते थे जो 150 डॉलर के लिए चारपाई पकड़ लिया करता था।

जब तक धन का लोभ रहा, राकफेलर को चिन्ता, स्वार्थ, निंदा और सामाजिक अपमान ने बहुत सताया। करोड़पति होकर भी उसे सुख-शान्ति पल भर को भी उपलब्ध न हुई। पर जब उसने अपनी प्रतिभा को बहुमुखी बनाया, धन के साथ धर्म, त्याग, परमार्थ और परोपकार आदि आध्यात्मिक वृत्तियों का आश्रय ग्रहण कर लिया, वही राकफेलर सुखी, सन्तुष्ट स्वस्थ और सम्मानित व्यक्ति बन गया।

राकफेलर अपने अन्तिम जीवन में मानवता की भलाई के लिए जो कार्य कर गये, उससे अनेकों सन्तप्त हृदय व्यक्तियों को राहत मिल रही हैं, बहुतों के लिए वे प्रेरणास्रोत बने तो उनकी आत्मा भी जहाँ होंगी, सुख और सन्तोष का ही अनुभव कर रही होगी।

हर मनुष्य अपना दृष्टिकोण बदल और सुधार सकता है। विपन्नताओं की विभीषिकाओं को तोड़ता हुआ, हर स्थिति में सुख-शान्ति की ओर बढ़ सकता है। हम और आप भी ऐसा ही कर सकते हैं।


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