जिन्दगी निरुद्देश्य नहीं—सोउद्देश्य जियी जाय।

May 1966

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जिन्दगी एक रास्ता है, जो हर आदमी को पूरा करना होता है। कोई इसे सफलतापूर्वक पूरा कर लेते हैं और कोई असफलता की वेदना लिये हुये इस के दूसरे छोर पर पहुँचते हैं। जिन्दगी की इस राह पर झाड़-झंखाड़ों से भरे जंगल भी हैं और फूलों भरी फुलवारी भी। कोई चलता-चलता झाड़-झंखाड़ों में उलझ जाता है तो कोई फूलवारी की मोहक गोद में पहुँचता है।

जिन्दगी का रास्ता चलते-चलते हम कहाँ पहुँचें। यह सोच समझ कर तय करना होगा और उसी के अनुसार अपनी डगर भी। कुछ लोग केवल चलते रहने में विश्वास रखते हैं। चलते चलो कहीं न कहीं तो पहुँच जायेंगे। ऐसे व्यक्ति अधिकतर उन्हीं स्थानों पर पहुँचते हैं जहाँ पर उन्हें पश्चाताप होता है और वे सोचा करते हैं कि गलती की। हमको रास्ता निश्चित करके ही चलना चाहिए था। किन्तु उस समय उनके पास न तो समय शेष रह जाता है और न शक्ति, जिससे कि वे लौटकर उस जगह से अपना रास्ता ठीक कर लें जहाँ से उन्हें अपने रास्ते का उचित चुनाव कर लेना चाहिये था।

इसके विपरीत जो लोग ठीक समय और ठीक स्थान पर आगे चलने का रास्ता सोच-विचार कर चुन लेते हैं वे प्रायः उसी स्थान पर पहुँचते हैं जहाँ उन्हें पहुँचना होता है और तब वे अपने को सफल मानते हैं। उन्हें पश्चाताप नहीं होता। एक सन्तोष होता है। यदि उनका जीवन यान किसी कारणवश फुलवारी में नहीं पहुँच पाता है तब भी कंटकित वनस्थली से तो बच ही जाता है। उन्हें यह सोचकर सन्तोष पाने का अवसर रहता है कि हम ठीक रास्ते पर ठीक से चले। अपने प्रयत्न में कोताही नहीं रक्खी अब अगर फूलों भरी फुलवारी में नहीं भी पहुँच पाये तो कोई बात नहीं। हम पर मूर्खता अथवा अकर्मण्यता का लाँछन तो नहीं आया।

ऐसा कोई बिरला ही होता है, जो होश सँभालते ही रास्ता चुन लेता है। नहीं तो प्रायः होता यही है कि बहुत कुछ चल लेने के बाद ही रास्ता ठीक करने का होश आता है। इस बात को होश जब आये यानी मन में यह विचार उठे कि अब हम सयाने हो गये लोग हमें उत्तरदायी समझने लगे हैं अब हमें एक निश्चित रास्ता तय कर लेना चाहिये और उसी पर चल कर हम जो कुछ बनना चाहते हैं, जहाँ पहुँचना चाहते हैं वह बन जायें और वहाँ पहुँच जायें । विचारों का यही स्थल वह चौराहा है जहाँ पर से जिन्दगी के अन्त तक चलने वाली राह चुननी होती है।

जिन्दगी के चौराहे पर सभी को देर-सबेर एक दिन पहुँचना होता है और जरूरी हो जाता है कि एक उचित रास्ता पकड़ा जाये। इस चौराहे पर एक रास्ता तो वह होता ही है जिस पर हम चले आ रहे होते हैं और जो सीधा-सपाट सामने चला जाता है। एक रास्ता दायें और एक बायें जाता है। अब यहीं से वह रास्ता चुनना है जो हमें ठीक-ठीक लक्ष्य तक पहुँचा दे। यदि इसके चुनाव में गलती हो गई तो हम अपने लक्ष्य से भटकर ऐसी जगह पहुँच जायेंगे जहाँ पर हमारे अस्तित्व को भय उत्पन्न हो सकता है। क्योंकि हम जो बनना चाहते थे वह न बन सकेंगे, तब ऐसी स्थिति में हम वैसे बन जायेंगे जिससे क्षोभ में अस्तित्व खो जायेगा।

यदि हम विचारपूर्वक सही रास्ता चुन सके तो लक्ष्य पर जा पहुँचेंगे जिसका परिणाम हर्ष, उल्लास, प्रसन्नता और सन्तोष के रूप में हमारे सामने आयेगा। हम अपने को सफल समझेंगे और अपनी आत्मा में सुख-समृद्धि और प्रतिष्ठा का अनुभव करेंगे। स्वयं अपनी दृष्टि में ऊँचे उठ जायेंगे।

इसी चौराहे पर आकर हम अपने भाग्य विधाता की स्थिति में होते हैं, और रास्ते के उचित चुनाव पर हमारी भावी सुख सफलता निर्भर रहती है। यही वह असमंजस की घड़ी होती है जब हम अपने मूल मन्तव्य के अनुसार प्रेरित होते हैं। यदि वास्तव में हमारी जिन्दगी का कोई मन्तव्य है और हम उसके प्रति ईमानदार हैं तो निश्चय ही उचित रास्ता चुनेंगे और दृढ़तापूर्वक उसमें आये अवरोधों को पार करते हुए लक्ष्य तक पहुँचने के लिए आजी वन चलते रहेंगे, और यदि हमारी जिन्दगी का कोई उद्देश्य नहीं यों ही उल्टी-सीधी जी डालना चाहते हैं तब या तो जिस रास्ते चले आते हैं उसी पर चलते चले जायेंगे या बिना सोचे समझे जिधर सींग समायेगें चल निकलेंगे।

संसार में आज तक जितने भी सफल और लक्ष्य गामी लोग हुये हैं, वे इस जिन्दगी के चौराहे पर अवश्य रुके हैं, ठीक से विचार कर लक्ष्य की ओर ले जाने वाले रास्ते का चुनाव किया है और दृढ़तापूर्वक उस पर चले हैं। किन्तु ऐसा कर वे ही लोग पाते हैं जिनका लक्ष्य पूर्व निर्धारित, निश्चित और स्पष्ट होता है।

जिन्होंने अपनी जिन्दगी का कोई उद्देश्य निश्चित नहीं किया है, लक्ष्य निर्धारित नहीं किया है उनके लिए कोई रास्ता निरापद नहीं हैं। वे जब किसी एक रास्ते पर चलकर उसके फल पायेंगे तो सोचेंगे कि वे यह तो नहीं चाहते थे। उनकी वाँछा तो यह है, और जब असन्तोष वश रास्ता बदल कर दूसरे रास्ते पर चलकर परिणामों के सामने आएंगे तब फिर ‘यह नहीं वह’ का असन्तोष होगा। इस प्रकार उनकी सारी जिन्दगी ‘इस और उस’ के अर्थ में लग जाती है और वे एक असफलता, एक असन्तोष लेकर दुनिया से रवाना हो जाते हैं। इसलिये जरूरी है कि कोई न कोई, स्थिति के अनुकूल, साधारण अथवा असाधारण उद्देश्य लेकर ठीक रास्ते से जिन्दगी चलानी चाहिये।

ऐसे लोग अधिक नहीं होते जो इस जिन्दगी के चौराहे पर पहुंचकर रास्ते का ठीक चुनाव कर पाते हैं। यही कारण है कि संसार में बहुतायत ऐसे लोगों की है जो एक निरुद्देश्य जिन्दगी की भँवर में फँसे हुये शोक-सन्तापों के शिकार बने रोते-झींकते नजर आते हैं। न तो वे अपनी जिन्दगी में खुद कोई रस पाते हैं और न किसी की रसानुभूति में सहायक हो पाते हैं।

मनुष्य की बुद्धिमानी इसी में है कि वह अपने को इन अहितकर श्रेणियों में से किसी को भी सदस्य न बनने दे, और यदि वह किसी कारण बन गया है तो उसका त्याग कर दे और ठीक-ठीक बुद्धिमान और हाथ- पाँव के वर्ग में आये। यदि अब तक वह किसी लक्ष्य को निर्धारित नहीं भी कर पाया है तो अब करले और उसी अनुसार अपना रास्ता चुन कर उस पर दृढ़तापूर्वक निकले। लक्ष्य का चुनाव अपनी शेष जिन्दगी, उसी शक्ति और साधनों के अनुसार करे। यदि महत्वाकाँक्षा बोझिल हो उठी हैं तो उन्हें त्याग दे। यदि बिना विचार निर्धारित किया हुआ लक्ष्य असह्य दीखता है तो उस कम दूरी वाला लक्ष्य, अपनी गति के अनुपात के अनुसार फासले वाला, उद्देश्य निश्चित करलें और उसकी ओर जाने वाले रास्ते पर चल पड़े।

जिन्दगी कितनी ही लम्बी और विश्वासपूर्ण क्यों न हो, हमेशा छोटी और अविश्वस्त ही है। इसका गया हुआ क्षण मूल्यवान है हर आने वाला क्षण कीमती है इसलिए एक-एक क्षण लक्ष्य की दिशा में उपयोग किया जाना विवेकशीलता है। जीवन में एक सामान एवं साधारण जिन्दगी जीने तक को भी जब लक्ष्य बना लिया जाता है तो उसमें विशिष्टता तथा महानता का समावेश हो जाता है। जरूरी नहीं कि बड़ी-बड़ी चीज पाने को ही लक्ष्य बनाया जाये। जो जिन्दगी आपको मिली है उसे व्यवस्थित रूप से एक रस बिता जाना भी एक ऊँचा लक्ष्य है और जब आप इस विश्वास के साथ अपनी शेष जिन्दगी को भी अन्त तक एक जैसा शान्त और सुव्यवस्थित रूप में पूरा कर लेंगे तो एक लक्ष्य ही पालेंगे और सुख-सन्तोष की वाँछित फुलवारी की गोद में पहुँच जायेंगे।

जिनके सामने एक लम्बी जिन्दगी पड़ी है। जिन्दगी की शुरुआत करनी है वे अपने जीवन का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य बना लें और चलने से पूर्व उसके अनुरूप रास्ता चुन लें जिससे कि वे अपने लक्ष्य की ओर ही ठीक-ठीक अग्रसर हो सकें। फिर वह लक्ष्य एक साधारण-सी नौकरी और छोटा-सा परिवार ही क्यों न हो।


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