उतावली के दोष से बचिये।

May 1966

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उतावलापन मनुष्य स्वभाव का एक दोष है। इसीलिये एक कहावत प्रचलित है—”उतावला सो वावला।” उतावले की समता वावले से करने का सही आशय है कि जिस समय मनुष्य उतावली में होता है उस समय उसमें कमोवेश वे सारी कमियाँ और विकृतियाँ आई रहती हैं जो किसी वावले व्यक्ति में पाई जाती हैं।

आवेग, उद्वेग, व्यग्रता, अस्त-व्यस्तता, अस्थिरता, अधैर्य अथवा असंतुलन आदि दोष वावले व्यक्ति के लक्षण हैं। जिस प्रकार वावला व्यक्ति किसी काम को करते समय विचारों का संतुलन खोये रहता है, वह करता हुआ भी यह नहीं जानता कि जो कुछ वह कर रहा है उसकी अस्त-व्यस्तता के कारण ठीक नहीं हो रहा है। उसे वह इस प्रकार नहीं करना चाहिये जिस प्रकार वह कर रहा है। कोई भी काम करने का एक तरीका होता है, एक व्यवस्था होती है। उसे उसकी निरर्थक क्रियाशीलता ही समझा जाता है। यही अवस्था किसी उतावले व्यक्ति अथवा विश्वस्त नहीं होता। इसीलिये “जल्दी का काम शैतान का” कहा जाता है।

प्रायः होता यह है कि किसी काम को जल्दी से निपटाने के लिये लोग उतावली बर्तते हैं। किन्तु उसका परिणाम उल्टा ही होता है। उतावली के साथ किये हुये काम बहुधा जल्दी होने के बजाय देर में ही हो पाते हैं—सो भी अव्यवस्थित, अस्त-व्यस्त एवं त्रुटिपूर्ण। किसी काम को करने के लिये एक अपेक्षित गति तथा समय की आवश्यकता होती है। जब मनुष्य किसी काम के लिये आवश्यक गति में बढ़ोत्तरी और समय में कटौती करेगा—दो घंटे के काम को एक आध घंटे में पूरा करने की हड़बड़ी में अंधाधुँध लग जायेगा, तो उसका बिगड़ जाना स्वाभाविक है। अब क्षण-क्षण पर भूलें होंगी, गलतियों और कमियों को अवसर मिलेगा। तब उनको सँभालने देखने और दूर करने में दोहरा परिश्रम करना पड़ेगा जिसमें अधिक समय लगेगा ही! इस प्रकार समय की बचत तो नहीं ही होती, काम भी गलत-सलत होता है सो अलग। जल्दी में गलतियों करते हुये उन्हें बार-बार सँभालने की अपेक्षा, कहीं अच्छा है कि किसी काम को धैर्यपूर्वक सावधानी के साथ किसी जाय।

जब कोई काम उतावली के साथ किया जाता है तब मन में एक उद्वेग आन्दोलित होता चलता है, जिससे चित्त चंचल रहता है, बुद्धि में व्याकुलता तथा व्यग्रता का समावेश होता है, जिससे न तो एकाग्रता प्राप्त होती है और न काम की व्यवस्था बन पाती है। उतावली के साथ काम करने वाले का ध्यान काम में नियोजित रहने के बजाय उसकी ज्यों-त्यों समाप्ति में लगा रहता है। वह काम प्रारंभ करने से पूर्व ही उसकी समाप्ति के लिये उत्सुक होने लगता है, जिससे काम करने में बीच में लगने वाला समय उसके लिये एक भार बन जाता है और वह ज्यों-ज्यों बेगार की तरह काटने के लिये व्यग्र होने लगता है। उतावले व्यक्ति की काम में रुचि नहीं होती। वह उसे ज्यों-त्यों निबटा कर अपना पीछा छुड़ाने का प्रयत्न किया करता है। काम करने का यह तरीका बिल्कुल गलत है। इससे न केवल काम ही बिगड़ता है बल्कि समय खराब होने के साथ-साथ काम करने की शक्तियों का ह्रास होता है, अदक्षता एवं असावधानी का दोष उत्पन्न होता है। इस प्रकार उतावली करने वाला अपनी न जाने कितनी हानि किया करता है।

जल्दबाज आदमी हर काम में उतावली किया करता है। ऐसा करते समय उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि उसके ऐसा करने में क्या हानि होगी। भोजन करते समय जल्दी-जल्दी ग्रास मुँह में डालेगा, जल्दी हाथ चलायेगा, झटपट चबायेगा और अधकचरा ही निगल लेगा। कभी दाल के पहले शाक और शाक से पहले दाल खायेगा। कभी कुछ भूल जायेगा तो कभी कुछ। मतलब यह कि उसका भोजन-कार्यक्रम नासमझ बच्चों की तरह अस्त-व्यस्त क्रीड़ा कौतुक जैसा बन जायेगा। जिससे वह न केवल पात्रों तथा स्थान को ही गन्दा करेगा बल्कि कपड़े भी खराब कर लेगा। साथ ही स्वाद से प्रवंचित होकर स्वास्थ्य का भी अहित करेगा। जल्दी-जल्दी ज्यों-त्यों चबाकर निगल लेने से मुख में भोजन का स्वाद तो नहीं ही मिलेगा, अधकचरे ग्रास पेट में जाकर दाँतों का दायित्व आँतों को सौंपेंगे जिससे अजीर्ण, पीड़ा, अपच तथा मंदाग्नि का विकार पैदा होगा और अस्वस्थता का शिकार होना पड़ेगा! भोजन को क्रम के साथ अपेक्षित गति, धैर्य और स्वाद के साथ आदर पूर्वक करना चाहिये। इस प्रकार सुचारुता से किया हुआ साधारण भोजन भी स्वास्थ्य को असाधारण लाभ करता है।

बहुत से लोग यात्रा के समय तो उतावली करने में कमाल कर देते हैं। यह रख, वह हटा, यह बाँध वह खोल, यह पहन वह उतार, ताँगा छोड़ रिक्शा पकड़ आदि की ऐसी हड़बड़ी मचा देते हैं मानो हाला-चाला आ गया हो और उनकी समझ में ही नहीं आता कि क्या करें और क्या न करें। जिसका फल यह होता है कि बहुधा यात्रा के लिये आवश्यक चीजें छूट जाती हैं और अनावश्यक चीजें साथ लग लेती हैं, जिनका परिणाम बीच रास्ते अथवा गन्तव्य स्थान पर पहुँच कर व्यग्रता, परेशानी तथा पश्चाताप के रूप में सामने आता है। कभी-कभी तो इस उतावली में यात्रा का मुख्य उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है। टिकट लेने, रेलगाड़ी पर चढ़ने आदि में ऐसी हड़बड़ी करते हैं कि अपने आप तो परेशान होते ही हैं दूसरों के लिये भी असुविधा एवं अप्रसन्नता का कारण बनते हैं। जल्दी में टिकट के पैसे ज्यादा दे सकते हैं और कुली चुकाते समय चवन्नी की बजाय अठन्नी जेब से निकल सकती है। छोटे पैसे उँगलियों के बीच से गिर सकते हैं। मनी बैग को की जेब में जाने के बजाय स्वीटर में फँस कर गिर सकता है। अथवा जल्दी में ठीक से न रखा जाकर निकला रह सकता जिससे किसी गठकटे के पौबारह हो सकते हैं। इतना ही नहीं उतावली के कारण और न जाने कितनी तरह की अस्त-व्यस्तताएं हो सकती हैं जो क्षति करने के साथ उपहासास्पद बना सकती हैं। यात्रा करने से पूर्व ठीक से उसकी तैयारी करिये, सोच-समझकर सारा सामान रखिये हटाइये विश्वासपूर्वक टिकट लीजिये, आश्वस्त होकर गाड़ी में चढ़िये, ठीक से सामान रखिये और कुली को पूरे पैसे दीजिये। यात्रा को यात्रा तक सीमित रखिये, उतावली में उसे संकट अथवा समस्या न बनाइये!

किसी से बात करते समय उतावली बड़े बड़े अनर्थों तथा आपदाओं का कारण बन जाती है। जल्दी में क्या से क्या कह जाना, किसी के कथन का क्या-से-क्या अर्थ लगा लेना तो एक साधारण भूल है। बिना विचार किये और शब्दों के उच्चारण प्रकार और प्रभाव को समझे बिना कह निकलना न जाने कितनी गलत फहमिया पैदा कर सकता है। अर्थ का अनर्थ अथवा अत्यर्थं उपस्थित कर सकता है। इससे कितनी हानि और सम्मान क्षति हो सकती है, इसका अनुमान कर सकना कठिन है। उतावली में देश,काल कथन और परिस्थिति का ज्ञान न रहने से संकटोत्पन्न स्थिति की सम्भावना रह सकती है। बात करते समय तो धैर्य और सावधानी की बहुत बड़ी आवश्यकता है। अच्छी तरह से सोच समझकर ही बात अथवा बर्ताव करना ठीक होता है।

किन्तु उतावली न करने का अर्थ यह भी नहीं है कि हर काम को अनावश्यक विलम्ब से किया जाये! इतने धीरे-धीरे किया जाये कि वह अपेक्षित समय में पूरा न होकर सर पर बोझ बना रहे। हर काम को अभ्यास के अनुरूप इस प्रकार किया जाना चाहिये जिससे कि न तो वह बिगड़े और न अनावश्यक विलम्ब हो। काम का जल्दी अथवा देर में कर सकना अपने-अपने अभ्यास पर निर्भर होता है। यदि आप कोई काम दक्षतापूर्वक जल्दी करना चाहते हैं तो उचित रूप से धीरे-धीरे उसका अभ्यास बढ़ाइये। अभ्यास बढ़ जाने से काम स्वयं ही अपेक्षित समय में ठीक से होने लगेंगे।

उतावली न करने का मतलब यही है कि कोई काम करते समय चित्त हड़बड़ी से उद्वेलित न रहे। आपको उसे ज्यों-त्यों निबटाने की हैवत न हो। काम को पूरी तरह चित्त लगाकर निरन्तरता के साथ करिये, न तो जल्दी में पड़िये। उतावली वास्तव में शीघ्रता नहीं बल्कि कमजोर मन की विक्षिप्तता होती है जो आवेग से भर कर उतावला बना देती है। अपनी इस मानसिक दुर्बलता से बचना चाहिये और काम को उतावली के साथ करने के बजाय जमे हुए ढंग से करना चाहिये। उतावली से काम बनता नहीं बिगड़ता ही है।


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