पराधीनता के बन्धन तोड़ फैंकिए।

May 1966

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पराधीनता प्राणी-मात्र के लिये सबसे कष्टकर स्थिति है। पराधीन व्यक्ति की अपनी कोई सत्ता नहीं होती। उसकी समस्त इच्छायें, आकाँक्षायें खाना-पीना रहना-सहना सब दूसरे की इच्छा पर निर्भर हो जाता है। पराधीन व्यक्ति अपनी इच्छा से उठ-बैठ तक नहीं सकता। उसे अपने हर कार्य और चेष्टा में यह भय बना रहता है कि कहीं मेरी अमुक बात मेरे अधिकारी को बुरी तो नहीं लगेगी। साराँश यह कि पराधीन व्यक्ति का समग्र अस्तित्व दूसरे का संकेत-पालक बन जाता है। उसका अपना व्यक्तित्व दूसरे में समाहित हो जाता है और वह अपने लिये-शून्य मात्र रह जाता है।

यह जितना भी चराचरमय जगत दृष्टिगोचर होता है वह सब मनुष्य के लिये है। संसार की प्रत्येक वस्तु पर मनुष्य की अखण्ड सत्ता है। मनुष्य जिस वस्तु को जिस प्रकार से चाहता है उपयोग में लाता है, उसे कोई रोकने, टोकने वाला नहीं है। वह जहाँ चाहता जमीन को जोतता, जहाँ चाहता मकान बनाता, जहाँ चाहता बाग लगाता और जहाँ चाहता खोदकर कुआं, तालाब और नहरें आदि बना लेता है। नदियों को बाँध लेता, समुद्रों में जहाज चलाता, पहाड़ों को काटता और जंगलों को उजाड़ डालता, पशुओं को पकड़ता, पालता और उनसे अपना काम लेता है। यह सब कुछ और इससे भी बड़े-बड़े साधिकार कार्य करने पर भी मनुष्य को कभी कोई रोकता, टोकता नहीं। इससे पूर्णतया प्रकट है कि यह सम्पूर्ण सृष्टि मानव मात्र के उपयोग के लिए ही है। वह जिस प्रकार से चाहे इसके साधनों द्वारा अपनी सुख सुविधा की व्यवस्था कर सकता है।

यह भी सत्य ही है कि मनुष्य जो कुछ भी करता है वह एक स्थिर सुख प्राप्त करने के लिए ही करता है। खाने से लेकर सोने तक और उपार्जन से लेकर व्यय तक वह जो कुछ क्रिया-कलाप किया करता है वह केवल सुख—एक अक्षय सुख पाने के लिए ही करता है। यहाँ तक कि मैत्री से लेकर युद्ध तक की सारी क्रिया प्रतिक्रियाओं की पृष्ठभूमि में सुख का ही उद्देश्य सन्निहित है।

किन्तु यह कम खेद और आश्चर्य का विषय नहीं है कि इतनी बड़ी और परिपूर्ण सृष्टि का अधिकारी और इतनी क्रियाओं का कर्त्ता होने पर भी मनुष्य अपनी वाँछित वस्तु ‘सुख’ को नहीं पा रहा है। आदि काल से लेकर आज तक के अपरिमित समय के सारे प्रयत्न व्यर्थ चले गए और चले जा रहे हैं। मनुष्य की इस कल्पनातीत असफलता से बड़ी खेदजनक बात और क्या हो सकती है?

क्या कारण है कि प्रचुर साधनों, सम्मिलित उपायों और वैयक्तिक प्रयासों के बावजूद भी मनुष्य सुख नहीं पा रहा है? ज्यों-ज्यों वह सुख प्राप्ति के प्रयत्न करता और उपकरण इकट्ठे कर रहा है त्यों-त्यों वह अधिकाधिक दरिद्री, दुःखी और दयनीय होता जा रहा है? प्रयासों के इस विपरीत परिणाम का एक प्रमुख कारण है मनुष्य की पराधीनता! संसार के समस्त पदार्थों का स्वामी होते हुए भी मनुष्य अपना स्वयं का स्वामी नहीं है। सब कुछ उसके वश में है, किन्तु वह स्वयं अपने वश में नहीं है। अपनी मानसिक दुर्बलता के कारण अपने को दुःख-दर्द, रोग-शोक, विषय-वासना, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि कष्टदायक अनुभूतियों के वश में किए रहता है। वह इनको अपने अधीन रखने के बजाय स्वयं ही इनका गुलाम बन जाता है। इनमें से जब जो विकार चाहता है मनुष्य पर हावी हो बैठता है और अपने अनुकूल उसे हाँकता रहता है।

यह अनुचित अधिकार प्राप्त विकार एक क्षण को भी मनुष्य को चैन नहीं लेने देते। कभी शोक तो कभी क्षोभ, कभी काम तो कभी क्रोध, कभी मद तो कभी मत्सरता, कभी मोह तो कभी ईर्ष्या द्वेष आदि उसे दबाए हुए त्रास देते ही रहते हैं। दुःख के इतने अधिक हेतुओं को अपने अंदर पाल लेने पर भूला मनुष्य किस प्रकार सुखी हो सकता है? सुख तो स्वतन्त्र और स्वाधीन रहने में है।

यही नहीं जो मनुष्य सुख साधनों का भी गुलाम बन जाता है वह भी दुःखी ही होता है। मनुष्य धन दौलत, जमीन जायदाद, कुटुम्ब परिवार, बन्धु बाँधव जिनका भी संचय किया करता है, वह सब सुख के लिए ही करता है।

जब तक मनुष्य इनको अपने अधीन रखता है इनको साधन मानकर निरपेक्ष व्यवहार करता है तब तक तो किसी हद तक झूँठा सच्चा सुख चैन पाता है, किन्तु ज्यों ही वह इन पर निर्भर होकर अपने को इनके वश में कर देता है, इन्हें जीवन का साध्य एवं श्रेय मान लेता है त्यों ही वह दुःखी होने लगता है। सुख बाह्य साधनों की गुलामी में नहीं अपने को स्वाधीन रखने में है। जिस दिन मनुष्य के मस्तिष्क में स्ववश रहने का महत्व अपना समुचित स्थान पा लेगा, उसी दिन दुःखों से निस्तार पाकर सुखी हो जायेगा।

वासनाओं, वस्तुओं और विकारों की अधीनता भी मनुष्य की अपनी कमजोरी है। इनमें स्वतः मनुष्य को गुलाम बना लेने की सामर्थ्य नहीं है। मनुष्य ने भ्रमवश इनको अपने से अधिक शक्तिशाली समझ लिया है। इनको अपने से अधिक शक्तिशाली समझ लेने से स्वाभाविक है कि मनुष्य अपने को निर्बल और निरुपाय समझे। मन में निर्बलता का भाव आते ही कायरता की उत्पत्ति होती है। जिससे मनुष्य की सारी शक्तियाँ शिथिल हो जाती हैं। अपनी इसी दुर्बलता के कारण वह किसी भी विकार के प्रति तत्काल आत्म-समर्पण कर देता है। अभ्यासवश वह इस दुर्बलता के इतना वशीभूत हो गया है कि परिणाम जानते और भोगते हुये भी विकारों का विरोध करते डरता है। वह समझ बैठा है कि वासनाओं और विकारों के अनुकूल परिचालित न होने से यह सब विद्रोह का भूकम्प लाकर एक क्षण को उसे सुख चैन से न बैठने देंगे। अपने इस काल्पनिक भय से ही मनुष्य उन्हें परितृप्त कर देने ही में अपना कल्याण समझता है।

क्रोध होने पर गुस्सा कर लेना आवेग आने पर उसे देना, मोह होने पर रो लेना, ईर्ष्या द्वेष होने पर जल लेना और लोभ पर स्वार्थ साधन कर लेना ही मनुष्य ने सुख का एक सीधा और सरल मार्ग मान लिया है।

विकार वेग वास्तव में उस पागल कुत्ते की तरह है जो अपने पालने वाले को ही काट लेते हैं। इन पागल कुत्तों को न पालना ही मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। जो जितना अधिक विकारों को पालता और परिपुष्ट करता है वह उतना ही अधिक अपने जीवन में विष बीज बोता है। सुर-दुर्लभ मनुष्य जीवन को कौड़ी मोल खोता है।

मनुष्य जीवन का यह बहुमूल्य उपहार इसलिये नहीं मिला है कि इसे विषय-विकारों के कीटाणुओं का भोजन बनाया जाये। इसे तिल-तिल जलाकर नष्ट कर दिया जाये। दुःख और दरिद्रता का भंडार बना लिया जाये! यह बहुत मूल्य उपहार इसलिये मिला है कि इसको हर अनिष्टकारी आक्रमण से सुरक्षित रक्खा जाये और इसका सदुपयोग करके अपने सुन्दरतम सुख-मूल एवं सत्य-स्वरूप का साक्षात्कार किया जाये। अनन्त एवं आविष्कार आनन्द की उपलब्धि की जाये।

इस आनन्दपूर्ण आत्म-स्थिति को पाने का केवल एक ही उपाय है और वह है अपने को स्वाधीन करना? संसार के विषयों को एक उच्चमना स्वामी के समान भोग करना! जो बुद्धिमान व्यक्ति संसार के उपभोगों को स्ववश स्वामी की भाँति भोगता हुआ उनके वश में नहीं रहता, वह अवश्य सच्चे सुख का अधिकारी बनता है। विषया वेगों के वशीभूत होकर उनकी गुलामी करने वाले व्यक्ति को अपने भाग्य में दुःख-दर्द और शोक सन्तापों के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

जिसका अपने पर अधिकार नहीं है जो गुलाम है पराधीन है, निर्बल और पराभूत है उसके लिए, उस सुख की आकाँक्षा करने का क्या अधिकार हो सकता है। सच्चा सुख, आत्म अधिकारियों, समर्थ स्वामियों और वासना के बैरियों की वाँछा है। कायर और कमजोरों को उसकी कामना नहीं करनी चाहिए।


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