वेदों के स्वर्ण सूत्र

February 1954

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तुम्हारी भुजाएं खूब बलशाली होवें।

असंतापं में हृदयं। अथ. 16।3।6

मेरा हृदय संताप से रहित हो।

अहमनृतात्सत्यमुपैमि। यजु. 1।5

मैं झूठ से बच कर सत्य को धारण करता हूँ।

यशः श्रीः श्रयताँ मयि। यजु. 29।4।

यश और ऐश्वर्य मुझ में हों।

भूयासं मधु संदृशः। 12।4।6

प्रत्येक देखने वाले को मेरा दर्शन मीठा हो।

अत्राजहीत ये असन्नशिवाः। अथ. 12।2।27

अमंगल दुखप्रद दोषों का परित्याग कर दो।

समुद्रो अस्मि विधर्मणा। अथ 16।3।6

मैं धारण शक्ति से समुद्रवत् गम्भीर बनूँ।

मा मा प्रापत् पाप्मा मोत मृत्युः। अ. 17।1।29

मुझे पाप और मौत न व्यापे।

वियं वनेम ऋतया सपन्तः। ऋग. 2।11।12

सदाचरण से परस्पर प्रेम करते हुए हम बुद्धि प्राप्त करें।

विद्वानों के जीवन से मिलकर जीओ।

ऋषिधविप्रः पुरएता जनानाम्। ऋग. 9।87।3

तत्वदर्शी विद्वान् पुरुष मनुष्यों का नेता हो।

वदन् ब्रह्मा वदतो वनीयान्। ऋग. 10।11।7

उपदेष्टा ब्राह्मण चुप रहने वाले ब्राह्मण से श्रेष्ठ है।

उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः। ऋ.. 10।137।1

रे विद्वानों! गिरे हुए (पतित) को पुनः ऊंचा करो।

तुम्हारे हृदय एक समान हों।

नाहं विन्दामि कितवस्य भोगम्। ऋग. 10।34।3

मैं जुआरियों के लिये भोग (सुख) नहीं देखता।

अर्याज्ञयो हत वर्चा भवति। अथ. 12।2।37

यज्ञ हीन का तेज नष्ट हो जाता है।

तमेव विदित्वाँति मृत्युमेति। यजु. 31।18

उस ब्रह्म (प्रभुः) को जानने से ही मृत्यु से छुटकारा है।

अरिष्टाः स्याम तन्वा सुबीराः। अथ. 5।3।5

हम शरीर से निरोग हों और उत्तम वीर बनें।

भूत्यै जागरणम् अभूत्यै स्वपनम्। यजु. 30।17

जागना (ज्ञान) ऐश्वर्य प्रद है। सोना (आलस्य) दरिद्रता का मूल है।

अतप्ततनूने तदामो अश्नुते। ऋग. 9 9।83।1

जिसने शरीर को तपाया नहीं वह सुख को नहीं पाता।

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ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्

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वर्ष-14 सम्पादक - आचार्य श्रीराम शर्मा अंक-2

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